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“तS संझा कS खर्चा तोहरे घरे से आई? पहिले रोजी फिर रोजा। पेट भरल रही तS शतरंज तS खेले के हइये हौ। वैसे भी ई बाजी में कुछ न होत। चौ-मोहरी (शतरंज के देशी रूप में चार मोहरे शेष रहने पर बाजी ड्रा हुई मान ली जाती थी।) हो जात।“
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रामनाथ हार गइलन, घोड़ा भागल टी री री री... रामनाथ हार गइलन, घोड़ा भागल टी री री री... रामनाथ हार गइलन, घोड़ा भागल टी री री री... J
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जी हाँ, बात कर रहा हूँ अपने दूसरे ब्लॉग आनंद की यादें की नई पोस्ट (घोड़ा भागल टी री री री...) की। पता नहीं उसे लोग काहे नहीं पढ़ते!! बेचैन आत्मा की बेचैनी तो खूब झेलते हैं लेकिन यादों का आनंद उठाना ही नहीं चाहते! पढ़ते भी हैं तो कमेंट बेचैन आत्मा पर कर के चले जाते हैं। लोगों की अरूचि से मुझे भी लगा कि मैं बेकार का लिख रहा हूँ इसीलिए नहीं पढ़ते होंगे। यही कारण है कि उस पर लिखने के प्रति अरूचि सी जागृत हो गई। एक-एक पोस्ट कई-कई महीने बाद लिखने लगा। लेकिन मित्र लोग कहते हैं कि इसके आगे आपकी कविता बेकार है। अब यह बात मेरी समझ में नहीं आ रही कि कौन सच कह रहा है? यदि लोग यह समझते हों कि ताजी पोस्ट को समझने के लिए पूरी पोस्ट पढ़नी पड़ेगी तो मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि ऐसी कोई बात नहीं है। सभी पोस्ट एक दूजे से जुड़े होते हुए भी अपने आप में अभी तक तो पूर्ण हैं।
अब कोई इस ब्लॉग की चर्चा नहीं कर रहा तो अपनी मजबूरी बनती है कि खुद ही इसकी चर्चा करूँ। चर्चा में खर्चा तो कुछ होने वाली नहीं। अपनी दही की तारीफ दुकानदार नहीं करेगा तो क्या कोई दूसरा करेगा? फिल्म के हीरो-हीरोइन भी तो अपनी नई फिल्म का प्रमोशन करते हैं। मैं भी आनंद की यादें की नई पोस्ट का प्रमोशन कर रहा हूँ।:)
इस बार यहाँ का कमेंट विकल्प बंद कर देता हूँ नहीं तो आप फिर यहीं टिपिया के चले जायेंगे और वहाँ झांकेगे भी नहीं। :)
कष्ट के लिए खेद है।:)