रस्ते में
दिखते हैं रोज ही
कांपते/हाँफते/घिसटते/दौड़ते
अपनी-अपनी क्षमता/स्वभाव के अनुरूप
सड़कों पर भागते
पहिये।
इक दूजे पर गुर्राते/गरियाते
पीछे वाले के मुँह पर
ढेर सारा धुआँ छोड़/भागते
बस, ट्रक या ट्रैक्टर के
गिलहरी की तरह फुदकते
छिपकली की तरह
चौराहे-चौराहे सुस्ताते
ग्राहक देख
अचानक से झपटते
आटो के
चीटियों की तरह
अन्नकण मुँह में दबाये
सारी उम्र
पंक्ति बद्ध हो रेंगते
रिक्शों के
आँखों में सिमटकर
गालों पर फूलते
खिड़की के बाहर मुँह निकालकर
पिच्च से थूकते/पिचकते
हारन बजाकर
बचते बचाते भागते
कारों के
बचपन के किसी मित्र को
पिछली सीट पर लादे
इक पल ठिठकते, रूकते, कहते..
"कहिए, सब ठीक है न?"
दूसरे ही पल
गेयर बदल, चल देते
स्कूटर के
या फिर
आपस में गले मिलकर
ठठाकर हँसते
देर तक बतियाते
साइकिल के
पहिये।
रस्ते में
चलते-चलते
इन पहियों को
देखते-देखते
यकबयक
ठहर सा जाता हूँ
जब सुनता हूँ...
'राम नाम सत्य है!'
काँधे-काँधे
बड़े करीब से गुज़र जाती है
बिन पहियों के ही
अंतिम यात्रा।
............................
हर पहिया को इस अंतिम सत्य के चक्के का पता हो तो गाते-गरियाते-इतराते पहिए भी अपनी रफ़्तार की हद में रहें।
ReplyDeleteअगर सहमति हो तो इस पहिए को हम आंच पर लें।
यह तो खुशी की बात है।..आभार।
Deleteयहीं तक काम देंगे ,इस दुनिया से आगे कहाँ चल पायेंगे ये पहिये !
ReplyDeleteबहुत खूब है आप की सुंदर रचना पहिए .
ReplyDeleteइसी तरह से छंद में आगे कविता कहिये ..
हर तरह के पहिये बस ज़िंदगी में ही साथ देते हैं ..... मौत तो बिना पहियों के ही ले जाती है ...
ReplyDeleteकाँधे-काँधे
बड़े करीब से गुज़र जाती है
बिन पहियों के ही
अंतिम यात्रा।
बहुत गहन अभिव्यक्ति
कवि हृदय कवि की एक और उत्कृष्ट संवेदनशील रचना .
ReplyDeletedeep thought...
ReplyDeleteinsightful..
उड़ते से चलने वाले मुसाफिरों , तुम भी एक पहिया ही हो !
ReplyDeleteश्रेष्ठ रचना !
सांस है तो जीवन हैं ...
ReplyDeleteजीवन है ...तो तन है मन है ...
मन है तो बुद्धि है विवेक है ...विचार है ....
विचार है तो संचार है ....अनवरत चलती जीवन यात्रा है ...!!
जब सांस ही नहीं तो परिवार है ...कम से कम चार कंधे तो हैं ... अंतिम यात्रा के पहिये ...!!
मनुष्य जैसे साजिक प्राणी की जीवन यात्रा ....बहुत सुंदर ...गहन अभिव्यक्ति ...हार्दिक बधाई इस रचना के लिये ...!!
साइकिल के पहिये सबसे सहज और नैसर्गिक लगे....हम स्वयं में भागते पहिये बन गए हैं.हम जैसे पहियों से कहीं ठीक यंत्रचालित पहिये हैं जिनपर हमारा नियंत्रण है पर हमारे पहियों पर हमारा भी नहीं !
ReplyDeleteयह सत्यार्थ केवल बनारस में ही अनुभव गम्य हो सकता है !
ReplyDeleteआपने तो यहाँ के जीवन की एक तस्वीर ही रख दी ...
आप सही कह रहे हैं। बनारस में न होता तो यह अनुभव सहज न होता। बाबा, मुझ जैसे मूढ़ से भी कुछ लिखवा ही लेते हैं।
Deleteशहरी सड़कों का दृश्य जीवंत हो गया!
ReplyDeletedevender ji behad gahan abhivyakti
ReplyDeleteये सारे पहिये जिंदगी भर चलते - घिसटते रहते हैं, फिर वक़्त का पहिया घूमता है और ले जाता है अंतिम यात्रा पर वह भी बिना पहियों के, कितनी अजीब बात है जहाँ जिंदगी बिना पहियों के एक कदम भी नहीं चलती मंजिल बिना पहियों के मिल जाती है... गहन अभिव्यक्ति... आभार
ReplyDeleteशानदार प्रतिक्रिया के लिए आभार संध्या जी।
Deleteरोड पर किया गहन अध्ययन झलक रहा है कविताई में.
ReplyDeleteसाधुवाद.
DEEPAK BABA SE SAHMAT
ReplyDeleteISE BHI PADHEN:-
"कुत्ता घी नहीं खाता है "
http://zoomcomputers.blogspot.in/2012/06/blog-post_29.html
अपने अकेलापन को दूर करने के लिए आपको कितने लोंगो की आवश्यकता पड़ेगी?.....अरशद अली
http://dadikasanduk.blogspot.in/2012/06/blog-post.html
ये पहिये ही शाम कों घर आ के ऐसे सुस्त पड़ जाते हैं जैसे मुर्दे ...
ReplyDeleteपर जब चलते हैं तो किसी की पर्व नहीं करना चाहते जीवन की आंधी की तरह ...
जीवन का पूरा चक्र समा दिया पहिये में.....वाह बहुत शानदार।
ReplyDeleteआपकी कविता का पहिया चलता रहे।
ReplyDeleteवाह ! बहुत सुन्दर रचना.बधाई हो.रास्ते पर चलते हुये भी कवि जागा हुआ है.
ReplyDeleteवाह! जीवन के इस सत्य को इतनी सरलता से उजागर कर दिया.
ReplyDeleteपहिये से गति तो मिलती है पर वह अबाध गति तो कंधो पर ही होती है
वैचारिक पहिये चले, सधा-संतुलित वेग |
ReplyDeleteप्रगट करें पहिये सही, ऊँह उनमद उद्वेग |
ऊँह उनमद उद्वेग, वेग बढ़ता ही जाए |
समय फिसलता तेज, मनुज भागे भरमाये |
बिन पहियों के सफ़र, करे जब सबसे लंबा |
लगे ना फिर चक्कर, सहायक होना अम्बा ||
बिन पहियों के अंतिम यात्रा ,सब खेल धरा रह जाएगा ...सब छोड़ मुसाफिर जाएगा .
ReplyDelete.पहियों पर ज़िन्दगी ,बिन पहियों के मौत ...बढ़िया प्रस्तुति .
पहियों पर नित दौड़ती सभ्यता..विकास..गति..
ReplyDeleteठहरना, हताश होना, अपनी कुंद मति...?
Deleteओह कहां जाके ब्रेक लगी /:(
ReplyDeleteआपकी अंतिम पंक्तियों ने चमत्कृत कर दिया
ReplyDeleteअद्भुत दृष्टि... अंतिम पंक्तियाँ तो हतप्रभ कर जाती है....
ReplyDeleteसादर बधाई स्वीकारें इस उत्तम सृजन के लिए।
यक्ष ने पूछा - किं आश्चर्यम ? :)
ReplyDeleteधर्मराज ने तो बता ही दिया है। मैं कोई नई बात थोड़े न लिखा हूँ। जरा सा घुमा के लिखा हँ कि धर्मराज की बात याद आ जाय। :)
Deleteखूबसूरत कविता है। आंच से होते हुए यहां तक पहुंची। अंतिम पंक्तियां बहुत असरदार हैं...
ReplyDeleteइत्तेफाक आज ही "आंच "पर पहिये की कसावदार समीक्षा भी पढ़ी ,सब खेल धरा जाएगा अजब छोड़ मुसाफिर जाएगा ,अकड फाकड ,पहिये की हवा , यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhai
बृहस्पतिवार, 30 अगस्त 2012
लम्पटता के मानी क्या हैं ?
जीवन अर्थों को बिम्बों से संजोती एक बेहतरीन कविता है पाण्डेय जी, आपकी रचनाधर्मिता को बधाई
ReplyDeletebeautiful lines with emotions and feelings
ReplyDeleteउत्तम सार गर्भित रचना है देवेन्द्र जी !
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति !!! प्रभावपूर्ण कविता...जीवन की आपाधापी और रेलम-पेल में सड़क का नजारा और जीवन का सत्य...आपाधापी में शायद पहियों की जरूरत रहती है लेकिन जीवन के अंतिम सत्य के लिए नहीं...
ReplyDeleteकल से अब तक तीसरी बार टिप्पणी लिखने जा रहा हूँ, लिखकर जैसे ही पब्लिश करता हूँ कि नेट बाबा अंतर्धान। हम भी आज ज़िद कर लिये हैं कि देखते हैं जोर कितना बाज़ुये कातिल में है। टिप्पणी लिख के जब ब्लैक होल में समा जाता है तो लगता है जइसे कउनो भरा थाल सामने से खीच लिया हो ...सच्ची ..बहुत खराब लगता है। दुबारा-तिवारा टिप्पणी लिखने में हर बार परिवर्तान होइये जाता है। अस्तु, अब प्रारम्भ होता है टिप्पणी लिखने का तृतीय सत्र ...
ReplyDeleteलोक-जीवन से प्रारम्भ होकर जीवन-दर्शन के द्वार तक ले जाने वाली यह कविता जीवन की आपाधापी के प्रति पाठक को चिंतन के लिये विवश करती है। कविता वही जो चिंतन की ओर ले जाये...इस उद्देश्य को पूर्ण करती ऐसी कवितायें यूँ ही नहीं लिखी जातीं। संसार को देखने के लिये जिन विशिष्ट चक्षुओं की आवश्यकता होती है उनके स्वामी ही लिख पाते हैं ऐसी कवितायें....सूक्ष्मावलोकन ...और फिर गहन चिंतन ....तभी लेखनी से निकलती हैं ऐसी रचनायें। कविता में पाण्डेय जी ने पहले तो अवलोकन किया और फिर एक संकेत करके छोड़ दिया पाठक के लिये कि अब आप चिंतन कीजिये। उन्होंने कोई निष्कर्ष नहीं दिया ...बल्कि चिंतन के लिये एक आधारभूमि प्रस्तुत करदी....कोई विचार लादा नहीं ...बल्कि पाठकों को अपने-अपने अनुसार चिंतन के लिये स्वतंत्र छोड़ दिया ....और यही इस कविता का सौन्दर्य है।
पाण्डेय जी की श्रेष्ठ रचनाओं में से एक है यह। मनोज भइया को बहुत-बहुत धन्यवाद ऐसी रचनाओं को आँच पर रखकर उन्हें और भी निखारने के लिये ...।
कविता तो बहुतये नीमन है बाकी एगो सिकायत है। जब ऊपर बाला कैमरे का समझ देइये दिया है त दू-चार गो रिलिवेंट फ़ुटुवा डाल देने में का बिगड़ा जा रहा था पाण्डॆय जी का? अइसन कामचोरी काहें?