29.12.12

एक बेटी के जाने के बाद

साहसी बेटी के जाने के बाद अब सरकार की आलोचना करना वक्त की बरबादी है। वैसे भी आलोचना उसकी की जाती है जिसमें सुधरने की संभावना हो। सरकारें आसमान से नहीं आतीं। हम ही सरकार हैं। हम जैसे होंगे वैसी सरकारें होंगी। हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा। हत्यारों को सजा मिले इसके लिए शांति पूर्ण प्रदर्शन किया जाना चाहिए। अब वे सभी उपाय किये जाने चाहिए जिससे देश में फिर कोई बलात्कार न हो। हम जहाँ हैं वहीं से यह लड़ाई शुरू करनी होगी। शुरूआत अपने घर से करनी होगी। पास-पड़ोस, मोहल्ले, समाज, दफ्तर कहने का मतलब हम जहाँ हैं वहीं यह ध्यान रखना होगा कि कहीं नारी का अपमान न हो। मुख शुद्धि से लेकर मन शुद्धि तक सभी अनुष्ठान करने होंगे। देखना होगा कि आक्रोश में हमारे मुख से जो गाली निकलती है उसमें किसी महिला के साथ बलात्कार तो नहीं हो रहा! यदि हो रहा है तो समझना होगा कि बलात्कार में कहीं न कहीं हम भी दोषी हैं। देश की एक बेटी के साथ हुआ यह अत्याचार नारी को उपभोग की वस्तु समझने की सोच का ही परिणाम है। 

सरकारी स्तर पर जो कानून बने हैं उन पर अमल हो। कानून में संशोधन की आवश्यकता है तो उसकी मांग हो। देर से ही सही सरकार संवेदनशील हुई है। जन भावना का खयाल करना, संवेदनशील होना उसकी मजबूरी है। मजबूरी में ही सही जांच आयोग का गठन हुआ है। देश भर से सुझाव मांगे जा रहे हैं।  देश भर में फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना की मांग उठ रही है। इस मांग का समर्थन किया जाना चाहिए। इन प्रयासों के साथ-साथ हमे खुद भी अपने सोच पर पुनर्विचार करना होगा। अंतर्जाल की दुनियाँ से, साहित्यकारों की दुनियाँ से, किताबों और अखबारों की दुनियाँ से बाहर निकलकर देखिये..आप जहाँ हैं वहाँ लोगों से बातचीत करके देखिये। आपको गहरी निराशा हाथ लगेगी। समाज वही का वही है। कुछ भी नहीं बदला। आज भी लोगों के मुख से बात-बात पर गालियाँ निकलती हैं। हर गाली में हमारी माँ बहनो के साथ बलात्कार होता है, हम सुनते हैं और चुप रहते हैं। अब हमे यह चुप्पी तोड़नी होगी। सिर्फ यहाँ विरोध करने से काम नहीं चलेगा, वहाँ भी विरोध करना होगा। समाज आज भी इसके लिए लड़कियों के कम कपड़े पहनने को दोषी ठहरा रहा है। समाज आज भी लड़कियों को देर शाम घर से निकलने के लिए दोषी ठहरा रहा है। हमारा समाज आज भी बलात्कार को आम घटना मान रहा है। मैने तो लोगों को यह भी कहते सुना है..पता नहीं ये टीवी वाले इत्ता हो हल्ला काहे मचा रहे हैं! पता नहीं अखबार वाले इत्ता हो हल्ला काहे मचा रहे हैं! यह कोई नई घटना है? रोज ही बलात्कार होता है! दिल्ली में हुआ तो इत्ता बवाल मच गया, छोटे-छोटे शहरों में तो आए दिन ये घटनाएँ होती रहती हैं! लोग अपने घऱ की लड़कियों को सुधारेंगे नहीं, घूमने-फिरने की आजादी देंगे, सुरक्षा का  ध्यान नहीं रखेंगे और जब घटनाएँ घट जाती हैं तो हाय तौबा मचायेंगे!!!

कुछ नहीं सुधरी हमारी मानसिकता। कुछ फर्क नहीं पड़ा हमारी सोच पर। हम दोहरा जीवन जी रहे हैं। दहेज  को मन से या मजबूरी से स्वीकार भी कर चुके हैं। लड़कियों को पढ़ाने, उनको आत्मनिर्भर बनाने की वकालत भी करते हैं और जब वे पढ़ लिखकर अपने पैर पर खड़ी हो गईं तो उन्हें अपनी मर्जी से जीने भी नहीं देना चाहते। पिता चाहते हैं कि लड़कियाँ पढ़ लिखकर नौकरी कर ले, अपने पैर पर खड़ी हो जाय, उसका विवाह आसानी से हो जाय। भविष्य में ससुराल वालों ने तंग किया, पति ने तंग किया तो कम से कम  जी तो लेगी। मतलब लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने की उनकी सारी जद्दोजहद का कारण सामाजिक असुरक्षा की भावना है। समाज रूपी राक्षस से वे अपनी बिटिया को बचा कर रखना चाहते हैं। गोया समाज उनसे इतर है। पति चाहते हैं कि पत्नियाँ कमा कर घर चलाने में सहयोगी भी बने, माता-पिता की सेवा भी करे, बच्चों का भी ठीक से ध्यान रखे, घर का कुशल संचालन करे और मेरी मर्जी से ही चलें। लब्बोलुबाब यह कि लड़कियाँ पैदा ही न हों यदि गलती से पैदा हो गईं तो केवल जिंदा रहें, हर तरह से सहयोगी रहें लेकिन मन मर्जी न करें। उनका मन हमारी मर्जी से ही चले। यह तो सभी जानते हैं कि मन पर किसी का नियंत्रण नहीं हो सकता और मन की गुलामी से बड़ी कोई दूसरी गुलामी नहीं है। कुछ लोग तर्क देते हैं कि सभी नारियाँ दूध की धुली नहीं होतीं। बात सही है। जैसे सभी पुरूष दुष्ट नहीं होते वैसे ही सभी नारियाँ सद चरित्र नहीं होतीं। लोभ नर-नारी में भेद नहीं करता। बुराई किसी में भी आ सकती है। लेकिन एक की बुराई की आड़ लेकर सभी का शोषण करना और नारी को पैर की जूती समझना कहाँ की सज्जनता है?

एक बार मैं ऑटो से जा रहा था। एक प्रौढ़ महिला लिफ्ट मांग रही थी। ऑटो वाले ने लिफ्ट नहीं दिया। ऑटो में पर्याप्त जगह थी। मुझे नागवार लगा। मैने ऑटो वाले से कहा, "का मर्दवा! बइठा लेहले होता! काहे नाहीं बइठैला? ऑटो वाला हंसते हुए बोला, "आप नाही जनता मालिक! ऊ पॉकेट मार हौ! एकर रोज क धन्धा हौ! बगले बइठ के धीरे-धीरे आपसे बतियाई अउर कब जेब साफ कर देई पतो नाहीं चली! हम रोज देखल करीला। ई रोज यही चक्कर में रहेली।" सुनकर मैं सिहर गया। मुख से यही निकला.. "ठीक कइला, नाहीं बइठैला।"

हमने जो जीवन जीया है, जिस परिवेश से आये हैं, उसमे आधुनिक-आचार विचार हमारे गले नहीं उतरता। हम हर बात पर संशकित हो जाते हैं। लड़के-लड़कियाँ बाग-बगीचों में खुले आम गले में बाहें डाले घूमते हैं। एक लड़की के साथ एक से अधिक ब्वॉय फ्रेंड देखे जा सकते हैं। हमारे चिंहुकने के लिए और आँखें मूंद कर गुजर जाने के लिए वे दृश्य पर्याप्त होते हैं। ऐसे में पुलिस वालों की चिंता पर भी ध्यान देना होगा। वे उनको मार कर भगा नहीं सकते। भगाना भी नहीं चाहिए। लेकिन अब असली समस्या यह है कि कोई पुलिस वाला कैसे तय करे कि यह जो लड़की अपने ब्वॉय फ्रेंड के साथ बैठी है, अपनी मर्जी से आई है या इसे ये लड़के बहला फुसला कर लाये हैं? पूछती है तो स्वतंत्रता में हस्तक्षेप हुआ। नहीं पूछती तो और ये लड़के कोई कांड करके गुजर जाते हैं तो ? नीयत बदलने में कितना वक्त लगता है? दोषी पुलिस वाले ही होते हैं। लड़के लड़कियों को मन मर्जी घूमने की आजादी मिलनी चाहिए लेकिन यह भी ध्यान में रखना होगा कि हमारी इस स्वतंत्रता का फायदा कोई बलात्कारी तो नहीं उठा रहा है! पुलिस वालों की जिम्मेदारी बहुत कठिन है। उन्हें इसी में सावधानी से गलत और सही को ढूँढना है। सुरक्षा के जो नियम बने हैं उनका कड़ाई से पालन करवाना है। कुछ नहीं हुआ तो कोई बात नहीं लेकिन घटना घटने के बाद हर बिंदु की पड़ताल होती है और यह पाया जाता है कि फलां जगह फलां पुलिस वाले से यह चूक हुई थी। नियमो के पालन में यह कमी थी जिससे घटना घटी और तब सारा इल्जाम पुलिस पर मढ़ा जाना तय है।  बावजूद इसके हाथ पर हाथ धरे तो बैठा नहीं जा सकता। जो कानून बने हैं उनपर अमल होना चाहिए। लड़कियों को भी सावधान रहना होगा। अच्छे-बुरे में भेद करना सीखना होगा। कुछ सोच बनानी होगी, कुछ आत्मसंयम बरतना होगा। पुरूषों से ही सुधरने की कामना करना और स्वयम् सावधान न होना भी गलत है।

सुधार चौरतफा होना चाहिए। भ्रष्टाचार और भौतिकतावादी मानसिकता की सहज स्वीकृति का भी परित्याग करना होगा। हमारे समझ में यह भी नहीं आता कि लोग अब दहेज प्रथा का विरोध करना काहे छोड़ दिये हैं? कित्ता पैसा आ गया है लोगों  के पास? विवाह में इतनी फिजूलखर्ची क्यों होती है? काहे कंगाल होकर भी दहेज देना स्वीकार कर लिये हैं? क्यों नहीं खा सकते बेटी की कमाई? क्यों आज भी बेटी के घर का पानी नहीं पीना चाहिए? क्यों विधवा विवाह को समाज आज भी शर्म की दृष्टि से देखता है। क्यों विधुर नहीं कर सकता आसानी से  दूसरा विवाह? और यह भी कि.. क्यों है बलात्कार मात्र लड़की के लिए ही शर्म?  क्यों हो गया उसका मुँह काला? क्यो समाज बलात्कार पीड़ित लड़की को जीने नहीं देता? क्यों नहीं थाम सकता देश का युवा बलात्कार पी़ड़ित लड़की का हाथ? गलत तो बलात्कारी ने किया, मुँह तो उसका काला होना चाहिए, शर्म तो उसे आनी चाहिये, समाज उसे जीने न दे चैन से, क्यों आती है हमे इतनी शर्म? आज जब श्रद्धांजलि स्वरूप कुछ लिखने बैठा हूँ तो मुझे उसका नाम भी नहीं मालूम! कोई दामिनी कह रहा है, कोई निर्भया.. क्यों?  माँ-बाप का नाम नहीं मालूम! क्यों?  क्यों है इस शोषित परिवार के लिए यह इतनी शर्मनाक घटना कि वे अब किसी को अपना मुँह नहीं दिखा सकते? धिक्कार है हमारी इस मानवीय सोच पर। झूठी सहानुभूति! झूठी संवेदना!! आधुनिकता का दंभ भरते हो तो पूरी तरह आधुनिक बनो। जाति वाद का विरोध करते हो तो पूरी तरह करो। विवाह के लिए जाति वाद का अंध समर्थन और बातें बड़ी-बड़ी!  यही दोहरी नीति है।

सामाजिक परिवर्तन की यह लड़ाई बहुत कठिन है। पुरूष प्रधान मानसिकता ने लड़िकियों का जीवन और भी कठिन बना दिया है। यह और भी कठिन होगा। संघर्ष में ऐसा ही होता है। नारियाँ आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ रही हैं और हर लड़ाई बलिदान मांगती है। हमे यह भी ध्यान रखना होगा कि यह अकेले नारियों का संघर्ष नहीं है। इसे पुरूषों के विरूद्ध समझना हमारी भूल होगी। नारी के बिना पुरूष अधूरा है। यदि हम स्वस्थ और सुंदर समाज का निर्माण चाहते हैं तो नारियों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना होगा।  देश की बेटी की यह हत्या भी इसी सामाजिक संघर्ष में हुआ बलिदान है। उनके हत्यारों को फाँसी हो यह मांग उचित है। ऐसे सिद्ध अपराधों की सजा फाँसी से कम नहीं होनी चाहिए। लोग लाख तर्क दें कि यह मनोरोग है। मनोरोगी की सजा रोग सुधार होनी चाहिए फाँसी नहीं लेकिन समाज सुधार तो फाँसी ही मांगती है और हमे समाज को सुधारना है। फाँसी का भय ऐसे मनोरोगियों को रोग से मुक्ति भी दिलाने में सहायक होगा।

आज देश की बन चुकी बेटी हमारे बीच नहीं रही। लाख सरकारी संवेदनाओं के बाद भी नहीं रही। जन-जन की दुआओं के बाद भी नहीं रही। यह बात भी सिद्ध हो गई कि सरकारी संवेदनाओं और जन-जन की दुआओं से ज्यादा सच्चे कर्म अधिक प्रभावी भूमिका निभाते हैं। पाप आसानी से नहीं कटता। पुन्य सतकर्मों के कठिन तप से होकर अंकुरित होता है। बहुत पाप कर लिये हमने। अब समय आ गया है कि समाज सुधार के इस यज्ञ में अपने पुन्य कर्मों की आहुती दें। नव वर्ष की सुबह बलात्कार की किसी दूसरी घटना का समाचार न लाये। नव वर्ष में बलात्कार की घटनाओं का ग्राफ धड़ाम से गिर जाये। एक समय वह भी आये जब बलात्कार की हर घटना आम घटना नहीं, जन जन में आक्रोश का कारण बने। हम बलात्कार मुक्त समाज की स्थापना में सहयोगी बनें यही देश की बेटी के बलिदान के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। आइये, आने वाले नववर्ष के लिए हम सिर्फ अपने मित्रों के लिए यह दुआ न मांगे कि आने वाला वर्ष आपके और आपके परिवार के लिए मंगलकारी हो..बल्कि यह दुआ भी माँगे की आने वाला वर्ष जन जन के लिए मंगलकारी हो..बलात्कार मुक्त हो।

(जनसत्ता में प्रकाशित)

 ..................................................................................................................................................................

35 comments:

  1. ...बिलकुल सही फरमाए हैं ।

    ReplyDelete
  2. यह आत्मचिंतन का वक्त है! गरेबान में झांक कर देखने की

    ReplyDelete
  3. भारत की मनीषा तो सर्व-कल्याण का मंत्र सदा से ही उद्घोषित करती आयी है...पर न जाने कौन-सा संक्रमण हो गया है हमारे भीतर कि हम इस तरह संवेदनहीन हो गए हैं।
    आने वाला वर्ष जन-जन के लिए मंगलकारी हो, जन से तंत्र तक कल्याणकारी विचारों से भरे, उसे सद्बुद्धि आये---यही अशेष कामना है।

    ReplyDelete
  4. एकदम सही विश्लेषण किया है आपने
    अब जगाने नहीं जागने का समय आन पड़ा है ...
    ..जागरूकता भरी सार्थक प्रस्तुति के लिए आपका आभार!
    दामिनी के बलिदान को अश्रुपूरित श्रद्धा सुमन!

    ReplyDelete
  5. आपकी आशा अभिलाषा की नए साल की सुबह कोई ऐसा समाचार ना लाए हमारी भी है... ईश्वर करे ऐसा ही हो...

    ReplyDelete
  6. वाकई वक्त आत्म चिंतन का है. वहां का छोडिये कल एक चर्चा के दौरान यहाँ पाले बड़े एक भारतीय महोदय भी यही कहते पाए गए कि कुछ तो कसूर महिलाओं के रहन सहन और परिधान का भी है. हैरान थी मैं.क्या वाकई कभी भी, कहीं भी भारतीय पुरुष मानसिकता नहीं बदल सकती?

    ReplyDelete
    Replies
    1. यह हैरान करने वाली बात है!

      Delete
    2. शिखा जी! पूरे सम्मान और विनम्रता के साथ कहने की अनुमति चाहूँगा कि इसी प्रकरण में एक पब्लिक प्रोजेक्यूटर से मेरी चर्चा हुयी थी। उन्होंने भी आधुनिक परिधान और खुलेपन को यौनाचार को उकसाने वाला कारण बताया था। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है, कुछ बुज़ुर्ग महिलाओं ने भी उन्हीं के पक्ष में वकालत की। यह थोड़ा विवादास्पद किंतु संवेदनशील विषय है। आप उनकी अनुभूतियों/विचारों की उपेक्षा नहीं कर सकते। इनकी मनःस्थिति को समझना होगा, नारी शरीर की माप-तौल करती इनके दिल-ओ-दिमाग में फ़िट एक्स-रे मशीन की अहर्निश प्रणाली को समझना होगा। एक बात स्पष्ट है कि ऐसी विचारधारा के लोगों ने अपना एक्स्क्यूज सामने प्रकट कर दिया है कि यदि ऐसी कोई लड़की उनके सामने से गुज़रती है और उन्हें अवसर मिलता है तो वे अपने पर नियंत्रण नहीं रख सकेंगे। हम सब लोगों की सोच एक जैसी परिष्कृत नहीं बना सकते ...न ऐसा करने के लिये हठ कर सकते हैं। यौन सम्बन्धों के अतिक्रमण के लिये अति संवेदनशील एक पुरुष वर्ग हर समाज में हर वक़्त रहा है। ऐसे ही लोगों ने सोनागाछी और बहू बाज़ार की नींव डाली है। हम उनकी अनुभूतियों/विचारों और मानसिकता की निन्दा तो कर सकते हैं पर उपेक्षा नहीं। उपेक्षा करना कोल्ड एब्सेस को जन्म देना है, ...इसलिये सम्यक उपचार के लिये हमें समाज के रुग्ण वर्ग को भी ध्यान में रखते हुये कोई उन्मूलन व्यवस्था बनानी होगी। भारत में पहले घूँघट प्रथा नहीं थी, बाद में हो गयी। क्यों हुयी होगी ....यह विचारणीय है। पहले इतना खुलापन नहीं था ...आज है, तो यह भी विचारणीय है। मैंने सुना है कि यौन हिंसा के मामले में अमेरिका भारत से भी बहुत आगे है। वहाँ भी खुलापन है ...यह विचारणीय है। इस सब चर्चा के बीच हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि दक्षिण बस्तर के आदिवासी समाज की स्त्रियाँ आज भी अर्धनग्न रहती हैं किंतु वहाँ यौन हिंसा की ऐसी घटनायें कदचित ही सुनने में आती हों। मतलब साफ़ है कि नग्नता बलात्कारी पुरुष के मन में हर वक़्त रहती है। कपड़ों से आपादमस्तक ढकी लड़की भी उन्हें नग्न ही दिखायी देगी। वे मात्र अवसर की तलाश में रहते हैं। इस तलाश को कैसे ख़त्म किया जाय? अवसर को कैसे ख़त्म किया जाय ...यह हमें सोचना होगा। हम चोर से अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह निन्द्य कर्म होने से हमारे घर में चोरी न करे, चोरी रोकने का उपाय सारे समाज को मिलकर करना होगा।

      Delete
    3. पता नहीं कौशलेन्द्र जी ! कभी कभी मन करता है पूछूं उन लोगों से कि जिन ४-५ साल की बच्चियों के साथ यह होता है उन्होंने क्या गलत कपड़े पहने होते हैं?? ...या फिर जो ४५ साल की महिला के साथ हुआ उसने तो स्कर्ट नहीं पहनी होगी.
      मानती हूँ कि बुजुर्गों की अपनी सोच और विचारधारा है और उसका सम्मान भी करती हूँ .परिवेश के आधार पर ही विचारधाराएँ बनती हैं. पर ...यहाँ रह रहे लोगों का ऐसा दोगलापन हजम नहीं होता.
      खैर .. हम जैसे बच्चियों को शिक्षित करते हैं ,आत्म नियंत्रण सिखाते हैं .काश वैसे ही अपने लड़कों को भी सिखा पाते.

      Delete
  7. काश, कुछ सबक लिया जाये.

    रामराम

    ReplyDelete
  8. जितना बड़ा बदलाव उतना ही कठिन ... आपके दर्द में सब साथ हैं ...

    ReplyDelete
  9. सोच की यह सही दिशा है...

    ReplyDelete
  10. .
    .
    .
    सामाजिक परिवर्तन की यह लड़ाई बहुत कठिन है... आज तक तो हम लोगों ने इसे लड़ने का जिगरा नहीं दिखाया, शायद इस बार... :(



    ...

    ReplyDelete
  11. शानदार अभिव्यक्ति,
    जारी रहिये,
    बधाई।

    ReplyDelete
  12. अभी तक सदमे की हालत में हूँ.. सारा दिन बाहर रहा कार्यालय की मीटिंग में.. इतना लाचार नहीं हुआ कभी.. संवेदनाओं के मामले में!!

    ReplyDelete
  13. thos bate he, par samaj ko hi aage barkar larna hoga khud se aur samaj se vi

    ReplyDelete
  14. स्त्री की ना को ना समझिये ,
    मानसिकता बदलीये
    समझिये की स्त्री पुरुष एक दुसरे के पूरक नहीं हैं बस पति पत्नी एक दुसरे के पूरक होते हैं यानी
    स्त्री का जनम / शरीर पुरुष की काम वासना की पूर्ति के लिये ही नहीं हुआ हैं
    बंद करिये स्त्री को नथ पहनाना , उसका कन्या दान करना
    बंद करिये पुरुष को परमेश्वर मानना , स्त्री का संरक्षक मानना


    और बहिष्कार करिये अपने हर उस मित्र सम्बन्धी का जो स्त्री के प्रति सेक्सिस्ट रविया रखता हैं बहस के दौरान उसको छिनाल , रांड कहता हैं

    ReplyDelete
  15. वर्तमान परिस्थितियों पर पुनर्विचार की ज़रुरत है।
    सार्थक चिंतन।

    ReplyDelete
  16. बलिदान व्यर्थ ना जाये अब हमें यही सुनिश्चित करना है. यही श्रधांजली होगी हम सब की तरफ से.

    ReplyDelete
  17. नव वर्ष में आज परिवार के स्तर पर संकल्प लेने की जरूरत है ...
    १. लड़कियों लड़कों को सही ओर बराबर की शिक्षा देंगे
    २. लड़कों को नारी की इज्ज़त, सम्मान करना सिखाएंगे, उकने चरित्र निर्माण के लिए रोज १०-१५ मिनट प्रयास करेंगे
    ३. लड़कों को नारी की रक्षा करना सिखाएंगे
    ४. कड़े क़ानून बनें ऐसा प्रयास करेंगे
    ५. नारी सम्बंधित माँ बहन की गालियों का प्रयोग वर्जित करेंगे

    ये लिस्ट ओर भी बढ़ सकती है ... पर अगर किसी एक बात से भी शुरुआत हो गयी तो २०१३ सफल है ...

    ReplyDelete
  18. समाज में बदलाव की शुरूआत घर से होगी

    ReplyDelete
  19. 01/01/2013 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही है .... !!

    आपके सुझावों का स्वागत है .... !!
    धन्यवाद .... !

    ReplyDelete
  20. यह मुद्दा समूची मानवता से जुड़ा है इसे नारी या पुरुष के चश्में से देखा जाना उचित नहीं लगता !

    ReplyDelete
  21. ab samaj ke sabhi vargon ko dayiton ke bandhan se badhana hi hoga .....balatkari ke sikshak ...abhibhavak...pradhan...gavn ke samast sambandhit padadhikarion ko dandit karane ka kanoon banana hoga ......samaj ko jb tk uttardayee nahi banaya jayega tb tk sudhar ki gunjais km hi hai .

    ReplyDelete
  22. यह आहुति भी यदि हमारी मानसिकता न बदल पाये तो भगवान ही मालिक है..

    ReplyDelete
  23. shikshit yuva varg kee soch aur anushasit ho chalae gaye aandolan ne aashvast kar diya ki ab bhavishy ujwal hee hai

    acchee post ke liye aabhar !

    ReplyDelete
  24. शत प्रतिशत सहमत हूँ आपसे.........बदलाव खुद से शुरू होता है ।

    ReplyDelete
  25. बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
    नब बर्ष (2013) की हार्दिक शुभकामना.

    मंगलमय हो आपको नब बर्ष का त्यौहार
    जीवन में आती रहे पल पल नयी बहार
    ईश्वर से हम कर रहे हर पल यही पुकार
    इश्वर की कृपा रहे भरा रहे घर द्वार.


    ReplyDelete
  26. दोष कहीं न कहीं सबका है , सुधरना पहले आवाम को ही होगा और इसकी शुरुआत हमसे होगी , मुझसे होगी |

    सादर

    ReplyDelete
  27. विस्तृत विश्लेषण ... सुधार हर क्षेत्र में आवश्यक है ... खाली पुलिस को नहीं कोसा जा सकता ।

    ReplyDelete
  28. सटीक लेख लिखा है आपने.ये किसी राष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित होनी चाहिये.

    ReplyDelete