रेल की दो पटरियों में ट्रेन नहीं, लोहे के कई घर लिये पूरा शहर दौड़ता है। पूरा शहर लोहे का बना होता है। लोहे के शहर में घर, कंकरीट के शहर में बने घरों की तरह कई प्रकार के होते हैं। एक ही शहर में महल, एक मंजिले, दो मंजिले, बहुमंजिले या कच्चे मकानों की तरह एक ही ट्रेन में ए.सी., स्लीपर और अनारक्षित डिब्बे होते हैं। किसी-किसी शहर में आज भी बाग-बगीचे, खेल के मैदान, सूखे तालाब, बहती नदी दिख जाती है! पटरियों पर भागता शहर अपनी इस कमी को खिड़कियों से बाहर झांककर पूरा कर लेता है। वैसे भी शहरों के बाग-बगीचे सब की नसीब में कहाँ होते हैं? अधिसंख्य देखते हैं मगर अखबार पढ़कर ही जान पाते हैं कि इन बगीचों में सुबह के समय ताजी हवा बहती है!
जैसे शहर कई प्रकार के होते हैं वैसे ही ट्रेनें भी कई प्रकार की होती हैं। राजधानी, महानगरी, सुपर फॉस्ट, पैंसिंजर..। पैंसिजर ट्रेनें रूक-रूक कर चलती हैं... छुक छुक छुक छुक, छुक छुक छुक छुक.. सुपर फॉस्ट.. धक-धक धक-धक, धक-धक धक-धक । जब कोई मसला फंसता है, पैंसिजर ट्रेन सेंटिंग में डाल दी जाती हैं। एक्सप्रेस ट्रेन चीखती-चिल्लाती धड़ल्ले से गुज़र जाती है। पैसिंजर ट्रेन के यात्री कम दाम के टिकट पर ही इतने प्रसन्न रहते हैं कि घंटो के अनावश्यक ठहराव का गम भी खुशी-खुशी सह लेते हैं। यह सुख गरीबी रेखा से नीचे वाले राशन कार्ड पर मिलने वाले लाभ जैसा है। भले ही रेंग कर चले, सरकार की कृपा से जिंदगी चलती तो है!
लोहे के सुंदर शहर में.. अच्छे घर में.. मेरा मतलब सुपर फास्ट ट्रेन की आरक्षित बोगी में चल रह रहे लोगों की जिंदगियाँ सिकुड़ी-सिकुड़ी, सहमी-सहमी होती है। अनजान यात्रियों से बातें करना मना होता है। अनारक्षित बोगी के यात्री आपस में खूब बातें करते हैं। ऐसा माहौल हमें अपने शहर में भी देखने को मिल जाता है। गलियों में बसे छोटे-छोटे घरों की खिड़कियाँ आपस में खूब आँख-मिचौली करती हैं। खूब बातें करती हैं। बिजली पानी के लिए आपस में झगड़ती हैं। एक-एक इंच का हिसाब-किताब होता है लेकिन बड़े घरों के दरवाजे पर चौकिदार होता है! दरवाजे पर रुके नहीं कि शेर जैसा कुत्ता झपटता है-भौं!
एक बड़ा ही रोचक पहलू है। कंकरीट के शहर में तो जिस घर में रहते हैं बस वैसा ही अनुभव होता है लेकिन लोहे के घर में हमें हर प्रकार का अनुभव मिल जाता है। ईंट-पत्थर के घरों में रहने वाले लोग ही, लोहे के घर में रहने के लिए बारी-बारी से आते-जाते रहते हैं। कभी सुपर फॉस्ट ट्रेन में ए.सी. का मजा लेते हैं, कभी अनाऱक्षित बोगी का तो कभी-कभी पैसिंजर ट्रेन की जिंदगी का भी अनुभव लेते हैं। घंटों ठहरे हुए पैसिंजर ट्रेन में बैठकर, धकधका कर गुजरते ‘सुपर फॉस्ट’ को कोसते हैं मगर सुपर फॉस्ट में चढ़ते ही, ए.सी. में बैठते ही, ‘पैंसिजर’ का दर्द भूल जाते हैं।
ए.सी. में खिड़कियाँ नहीं खुलतीं। ताजी हवा भीतर नहीं आती। न अधिक गर्मी लगती है न अधिक ठंड। धीरे से पर्दा हटाकर आप शीशे के बाहर झांक सकते हैं मगर बाहर वाले नहीं झांक सकते आपके भीतर। हम ऐसा ही जीवन पसंद करते हैं। सबके भीतर झांकने की क्षमता और अपने लिए तगड़ा सुरक्षा कवच! पैसिंजर ट्रेन में जितना आप बाहर देखते हैं, लोग उससे कहीं अधिक आपके भीतर झांक लेते हैं। ए.सी. में नहीं आता लठ्ठा-नमकीन बेचने वाला, मुंगफली या चाय बेचने वाला। यहाँ ऑर्डर लिये जाते हैं, समय पर मिल जाता है स्वादिष्ट भोजन। भोजनालय यहाँ साथ चलता है। पैसिंजर ट्रेन के यात्री कम्बल, गठरी, झोला, लकड़ी, खाने-बनाने का सामान, सब साथ लिये चलते हैं। कभी-कभी तो मोटर साइकिल भी लाद लेते हैं बोगी में! खिड़की के रॉड में सिर्फ एक पैडिल पर टंग जाती है पूरी साइकिल!
कंकरीट के शहर में आप किस घर में रहते हैं यह आपकी आर्थिक क्षमता पर निर्भर करता है। लोहे के शहर में आप किस घर में रहते हैं यह हमेशा आपकी आर्थिक क्षमता पर निर्भर नहीं करता। आप अच्छे, सुरक्षित घर में रहना चाहते हैं, पैसा भी जेब में है मगर आरक्षण नहीं मिलता। मजबूरी में वहाँ रहना पड़ता है जहाँ रहने की आपको आदत नहीं है। किस ट्रेन में सफर करते हैं? यह मंजिल की दूरी पर निर्भर करता है। महलों में रहने वाले जैसे हर किसी से बात नहीं करते वैसे ही रजधानी या सुपर फॉस्ट ट्रेनें हर प्लेटफॉर्म पर नहीं रूकतीं। मंजिल का स्टेशन आपकी आवश्यकता तय करती है। यात्रा तय करता है।
सुपर फॉस्ट ट्रेन के यात्रियों को बदकिस्मती से कभी-कभी अपने गाँव भी जाना पड़ता है। पैसिंजर ट्रेनों का सहारा भी लेना पड़ता है। पैंसिजर ट्रेन ही गाँव के स्टेशन पर रूकती है। ऐसे यात्री पूरे सफ़र में नाक-भौं सिकोड़ते रहते हैं। मंजिल से इतर किसी दूसरे स्टेशन पर देर तक रूकना उन्हें गहरा आघात पहुँचाता है। यह वैसा ही है जैसे किसी राजकुमार को अपनी कार दो पल रोककर किसी रिक्शे वाले से मार्ग पूछना पड़े। वे रिक्शेवाले को ‘थैंक्यू’ कहते हैं रिक्शेवाल खुश हो जाता है। राजकुमार दुखी कि आज यह दिन भी देखना पड़ा कि एक मामूली रिक्शेवाले से मंजिल का पता पूछना पड़ा..!
आनंद आप पर निर्भर करता है। आप मंजिल पर पहुँचकर आनंद लेते हैं या सफर को ही आनंद दायक बनाते हैं। ए.सी. में बैठकर ही आनंद ले पाते हैं या पैसिंजर ट्रेन में भी आनंद ढूँढ लेते हैं ? यदि आपको सफ़र में कष्ट और मंजिल पहुँचकर ही आनंद आता है तो यकीन मानिए कि आपको पता ही नहीं, आनंद किस चिड़िया का नाम है! क्योंकि सफ़र तो अभी भी अधूरा है..! कभी हम लोहे के घर को अपना समझ बैठते हैं, कभी पत्थर के घर को मगर ज्ञानी कहते हैं हमारा जिस्म ही मिट्टी का बना है! हम मिट्टी के घर में रहते हैं!!!
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वाह रेल के सफ़र को हम भी पूरी एक जिंदगी मानते हैं , हर सफ़र एक नई जिंदगी के शुरू और खत्म होने की तरह लगता है हमें भी , आप भी रेल सफ़र के मुहब्बती प्रेमी स्नेही निकले जी ;) ;) एकदम लिल्लन टॉप लिखे हैं
ReplyDeleteशुक्रिया।
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ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन १२ फरवरी और २ खास शख़्स - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जिन्दगी और रेल के सफ़र में काफी समानता है .!
ReplyDeleteRECENT POST -: पिता
रेल का सफर हमेशा ही सुहाता है , वह भी सहयात्रियों से बतलाते !
ReplyDeleteबहुत सुंदर :)
ReplyDeleteहर बार नया घर
ReplyDeleteबदलता घर
सुहाना घर
हमारे स्वर्गीय पिताजी ने सारी उम्र इसी लोहे के घर में गुज़ार दी. मगर कितने तरह के लोगों से मिलना और कितने किस्से. आज भी हम रेलगाड़ी को पापा जी का ऑफिस ही कहते हैं!!
ReplyDeleteजीवंत लेखन सदा की तरह!!
बहुत रोचक और सशक्त लेखन..मिट्टी का घर भी असली नहीं है..आकाश यानि शून्य ही अपना असली घर है..जहाँ कोई सीमा नहीं...कोई भेद नहीं..
ReplyDeleteमंज़िल में आनन्द ढूँढ़ने वाले, मंज़िल ढूंढ़ते रहते हैं। हमने तो पंथ को ही आनन्द मान लिया है।
ReplyDeleteबहुत उम्दा। सच कहे हमें तो सफ़र का मज़ा ही तब आता है जब खिड़की से हवा आये।AC के बंद शीशो में बाहर भी ठीक से नहीं दीखता।
ReplyDeleteसटीक तुलना, रेल और रहन सहन की!!
ReplyDeleteaaj bhi mujhe train ka safar bahut pasand .aap ne khoob tulna ki hai sunder likha hai
ReplyDeletebadhai
rachana
वाह । लोहे के घर का बडा रोचक विवरण । मुझे इस घर से काफी लगाव है ।
ReplyDeleteवाह ! कमाल का अवलोकन किया है आपने तरह-तरह के घरों का !
ReplyDeleteहम्म, लगता है लंबी प्रतीक्षा के बाद रेलयात्रा वाली डायरी शुरू हो गई।
ReplyDeleteरेलयात्रा वाली पुरानी पूरी डायरी गुम हो गई..मिल ही नहीं रही है। :( फिर यात्रा शुरू हुई है तो अभी यही लिख पाया।
Deleteक्या बात है देव बाबु एक पोर दर्शन समेटे है ये पोस्ट | रेलगाड़ी की तुलना शहर से क्या खूब की है आपने | रोचकता लिए एक लाजवाब पोस्ट लगी ये |
ReplyDeleteबड़ा ढ़ांसू कम्पैरिजन है .....लेकिन इस ब्लाग से कविताएं कहां गायब हो गयी ?? :(
ReplyDeleteआपकी शिकायत सही है। नई कविता लिखने का मूड ही नहीं बन रहा। जो मन कर रहा है वही लिख रहा हूँ।
Deleteबहुत सटीक और गहन चिंतन...
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