19.4.16

लोहे का घर-१३


भंडारी स्टेशन में बाहर शांति भीतर गोदिया की बोगी में वेंडरों का कलरव गूँज रहा है। यात्री‪#‎ट्रेन‬ चलने की प्रतीक्षा में हैं। ठीक 8.15 बजे और गोदिया ने लम्बे हार्न के साथ प्लेटफॉर्म छोड़ दिया। स्पीड बढ़ रही है धीरे-धीरे। बाहर अँधेरा है और अपने कोच में हल्की रोशनी। इसी धुंधलकी रोशनी में एक युवक अखबार पढ़ रहा है, दूसरा मेरी तरह मोबाइल चला रहा है और एक प्रौढ़ महिला जो शायद इन युवकों की माँ हैं, बगल में बैठी इधर-उधर सतर्क नजरों से देख रही हैं।
गोमती के ऊपर से गाड़ी गुजर रही है। एक अलग ही शोर उठा और शांत हो गया। अजीब सी खामोशी है, अजीब सा सन्नाटा है। ट्रेन में प्राण नहीं है लेकिन कई प्राणियों को लिये चलती रहती है रात दिन। प्राणी न हों तो ट्रेन न चले। यात्री ही प्राण हैं ट्रेन के। यात्रियों की जान है ट्रेन। दोनों एक दुसरे के पूरक हैं। दोनों एक दूसरे के सहारे चल रहे हैं। पटरी पर चलती है ट्रेन तो पटरी पर चलती है लाखों की जिंदगी। लोग पति पत्नी को एक दूसरे का पूरक मानते हैं। यात्री और ट्रेन भी एक दूसरे के पूरक हैं। यात्रियों की तरह कितनी पत्नियाँ पति रूपी ट्रेन की गोदी में बैठकर पूरा जीवन काट देती हैं! जैसे लोहे का यह घर दौड़ते-भागते उफ़! नहीं करता वैसेे कितने ही पति हैं जो अपने जीवन साथी को लिए भागते रहते हैं! गरीब, मध्यम वर्गीय, अमीर सभी प्रकार के यात्री। जनरल, स्लीपर, एसी सभी प्रकार की बोगियां। लोहे के एक घर में कितने प्रकार के कमरे! मनुष्यों में कितने प्रकार के लोग! यह ट्रेन है या जीवन की कोई अबूझ पहेली। परत दर परत उधेड़ते जाओ पर कभी पूरी नहीं खुलती। एक ऐसी किताब जिसके पन्ने पलटते-पलटते पाठक थक जांय लेकिन किताब कभी पूरी न हो।

50 डाउन में भीड़ है। शाम का समय है। सूरज डूब चुका है मगर अँधेरा नहीं हुआ। खेतों में दिख रहे हैं गेहूँ के गठ्ठर। कहीं-कहीं चल रहे हैं थ्रेसर भी। जुगाली करते चौपाये भी दिख रहे हैं। कोई स्टेशन करीब आ रहा है। धीरे-धीरे रुक रही है ‪#‎ट्रेन‬। अमृतसर से काशी जा रहे यात्रियों में मंजिल तक पहुँचने की बेचैनी है। घड़ी देख एक दूसरे को दे रहे हैं आश्वासन। बच्चे पूछ रहे हैं-हम कब उतरेंगे? भीड़ भाड़ वाले स्लीपर डब्बे में बैठ पूरी दोपहरी काटने के बाद मंजिल पर पहुँचने की बेताबी समझी जा सकती है।
पश्चिम में फ़ैल रहे अँधेरे के पार दूर क्षितिज में बुझ रही सुनहरी रौशनी की आभा चमक रही है। घरों में जलने लगी हैं बत्तियाँ। रोशन हो चुका है लोहे का घर भी। धीरे-धीरे घने अँधेरे में खो रहे हैं खेत। सूर्योदय की लालिमा की तरह लम्बी नहीं होती गोधुली की बेला। पंछी-पंछी चहक-चहक कर मौन! गाँव के सीने को चीरती शहर-शहर रुकती भागती रहती है ट्रेन। प्लेटफॉर्म पास आते ही कितना चीखने लगती है ! गाँव की झोपड़ी झुग्गी को देखने के बाद शहर की रौशनी में चौंधिया जाती होंगी इसकी आँखे।
दस साल की एक बच्ची खड़ी हो गई है। पापा समझा रहे हैं-बस 10 मिनट में आ रहा है बनारस। फिर अपनी सीट पर बैठ गई। पापा फिर समझा रहे हैं-शिवपुर आ गया अब अगला स्टेशन बनारस ही है। पैक हो चुके हैं सामान। बस अब आ जाय मंजिल तो चैन मिले. लो! बज गया हारन, अब तो आ ही गया समझो बनारस। दूर के यात्रियों को मंजिल के करीब आ कर कितनी खुशी मिलती है! इसी स्टेशन पर हम रोज चढ़ते, रोज उतरते हैं मगर कोई खुशी नहीं!!! खुशी के लिए करनी पड़ती है लम्बी यात्रा, सहना पड़ता है बड़ा दुःख। जितनी छोटी यात्रा उतनी छोटी खुशी।

आज कोटा-पटना मिली भंडारी स्टेशन पर। फिफ्टी डाउन आगे है। बनारस तक नॉन स्टॉप है अपनी ‪#‎ट्रेन‬। फिफ्टी को रुक-रुक कर चलना है। मैं चाहता हूँ वो किसी स्टेशन पर खड़ी मिले और मैं हाथ हिला कर टा टा करूँ। वो मुझे देख कर जल भुन जाये और कहे-बड़े आये हैं‪#‎कोटापटना‬ वाले ऊँह!
तुम तो नहीं मिली किसी स्टेशन पर खड़ी, ट्रेन ही सही। जिंदगी में ऐसा होता नहीं है। जिस स्टेशन पर जो मिलती है उसी से अगले पड़ाव तक पहुंचता है यात्री। भाग्यशाली होते हैं वे जिनकी सीटें पहले से आरक्षित होती हैं। एक खूबसूरत लड़की बैठी है साइड अपर बर्थ पर। एक हाथ से पलट रही है पत्रिका के पन्ने दूसरे हाथ से सटाये हुए है दाहिने कान में मोबाइल। न पत्रिका पढ़ रही है न मोबाइल से बात ही कर रही है। मेरी इच्छा है कि उसके मोबाइल से यह गीत बजे-होठों पे हंसी, सीने में तूफ़ान सा क्यों है। इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूँ है! कुछ इच्छाएं ऐसी होती हैं जो पूरी नहीं होती। अब वो अपनी पलकें बन्द कर लेट गई है। उसके सीने से लग कर चैन से सो रही है पत्रिका।

1 comment:

  1. मंजिल पर पहुंचने की जल्दी हरेक को है पर यात्रा पूरी होगी तभी न आएगी मंजिल..

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