पंछियों को पहचानता नहीं हूँ। इनको सुनता खूब हूँ, देखता भी हूँ मगर इनको इनके नाम से नहीं जानता। मोर की चीख, कोयल की कूक, कौए की काँव-काँव, बुलबुल का चहकना, तोते की टें, टें, कबूतरों की गुटर-गूँ और गौरैया की चहचहाहट तो समझता हूँ मगर इनके अलावा बहुत से पंछी हैं जिनके गीत तो सुनता हूँ, नाम नहीं जानता। नाम का न जानना मेरे आनंद लेने में कोई समस्या नहीं है। आनन्द लेने के मामले में मैं बहुत स्वार्थी रहा हूँ। कभी नाम जानने का प्रयास ही नहीं किया बस गुपचुप इन पंछियों के संगीत सुनता रहा। यही कारण है कि आज तक मैं इन पंछियों का नाम नहीं जान पाया। समस्या अभिव्यक्ति में है। आनंद देने में है।
शायद अपने पूर्वांचल में पंछियों के सबसे अधिक मुखर होने का यही मौसम है। भोर में...मतलब भोरिये में..लगभग 4 बजे के आस-पास..एक चिड़िया मेरे इकलौते आम की डाली पर बैठ कर सुरीले, तीखे स्वर में चीखती है। तब तक चीखती है जब तक मैं जाग न जाऊँ! जाग कर मैं उसी को सुनता रहता हूँ। कभी सोने का मन हो तो भगा कर फिर लेटा हूँ। वह फिर चीखी है..तब तक जब तक अजोर न हो जाय! मैं उसका नाम नहीं जानता। जानता तो बस एक वाक्य लिखता और आप समझ जाते कि मैं किस चिड़िया की बात कर रहा हूँ!
सारनाथ पार्क में मोर और कोयल के साथ संगत करती है एक चिड़िया। ऐसा लगता है जैसे जलतरंग बजा रहा है कोई! एक दूसरी प्रजाति वीणा की झंकार की तरह टुन टुनुन टुनुन ..की तान छेड़ती है। अब मुझे इन पंछियों के नाम मालूम होते तो आपको बताने में सरलता होती। फलाँ चिड़िया ने राग मल्हार गाया, फलाँ ने राग ...अरे! बाप रे!!! मुझे तो राग के नाम का भी ज्ञान नहीं।
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कई बार और मजेदार बात हुई है। मॉर्निंग वॉक के समय पंछियों को खूब बोलते हुये सुन मैंने राह चलते ग्रामीण से पूछा है-दद्दा बतावा! आज चिरई एतना काहे गात हइन ? दद्दा ने जवाब दिया है-गात ना हइन। पियासल हइन, चीखत हइन! अब आप बताइये, कवियों के कलरव गीत पर अकस्मात सन्देह होगा या नहीं?
मिर्जा कहते हैं -पण्डित जी मैं आपको फूलों, पत्तियों और वृक्षों के नाम बताता हूँ, बाकी आपका काम है। अधिक पूछने पर बनारसी संस्कार दिखाते हुये झल्लाने लगते हैं-देखा! ....मत चाटा। ई नाम में का रख्खल हौ? मजा ला। कवि क ..आंट मत बना।
बड़ी समस्या है। अब मान लीजिये मुझे सबका नाम पता होता और लिख भी देता तो क्या आप समझ पाते कि मैं किस पंछी की बात कर रहा हूँ?
छोड़िये! अभिव्यक्ति की यह बहुत बड़ी समस्या लगती है। ऐसा कीजिये, कल भोर में कान लगा कर सुनिए, बाग़ में जा कर सुनिए और तब बताइये कि मैं कहना क्या चाहता हूँ।
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इसे मोबाइल से लिखकर जब फेसबुक में पोस्ट किया तो इस पर श्री अरविन्द मिश्र जी का यह कमेंट आया...
DrArvind Mishra पूर्व और पश्चिम का फर्क है यह। यहां केवल रस विभोर होते हैं लोग जबकि पश्चिम में कौतूहल भाव प्रबल होता है। कौन चिड़िया है यह? नाम क्या है? प्रवासी तो नहीं। आदि आदि। बहरहाल आप फोटो तो खींच ही सकते हैं। बाकी मदद हम कर देंगे। अपनी अज्ञानता का भी महिमामंडन कोई आपसे सीखे 😛
इस कमेन्ट के बाद मुझे याद आया कि मिश्रा जी ने ब्लॉग में भोर में चीखने वाली चिड़िया दहगल पर एक बहुत ही बढ़िया पोस्ट लिखी थी. उनसे अनुरोध किया तो उन्होंने गूगल सर्च करने और अपने से ढूँढने की सलाह दी. गूगल ने पोस्ट का पता दे ही दिया. यह रहा लिंक ....यह ग्रीष्म गायन सुना आपने? यह पोस्ट वाकई बहुत बढ़िया है. और इस पर एक वीडियो है जिसमें दह्गल पंछी का मन्त्र मुग्ध करने वाला गायन तो क्या कहने !
श्री ज्ञान दत्त पाण्डेय जी का कमेन्ट तो और भी तीखा...
Gyan Dutt Pandey इतने कवि छाप हैं सोशल मीडिया पर। उनसे पूछें - खंजन या चातक के बारेमें। इनको कविता के प्रतीक में खूब ठेलते होंगे। पर सामने दिखने पर पहचान नहीं सकते होंगे।
मिश्र जी ने फिर पाण्डेय जी के कमेंट के बाद लिखा-
DrArvind Mishra कितने कवि चातक पपीहा चकई चकवा चकोर कुररी आदि को पहचान सकते हैं?
अब यह कवियों के लिए खुली चुनौती के सामान है. कुछ कहना है इस पर कवियों को ?
ब्लॉग युग बीत चला, अब कौन आयेगा यहां?
ReplyDeleteआना तो चाहिए...
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23 -04-2016) को "एक सर्वहारा की मौत" (चर्चा अंक-2321) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सही कहा आपने
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