सुबह उठा तो देखा-एक मच्छर मच्छरदानी के भीतर! मेरा खून पीकर मोटाया हुआ,करिया लाल। तुरत मारने के लिए हाथ उठाया तो ठहर गया। रात भर का साफ़ हाथ सुबह अपने ही खून से गन्दा हो, यह अच्छी बात नहीं। सोचा, उड़ा दूँ। मगर वो खून पीकर इतना भारी हो चूका था क़ि गिरकर बिस्तर पर बैठ गया! मैं जैसे चाहूँ वैसे मारूं। धीरे-धीरे मुझे उस पर दया आने लगी। आखिर इसके रगों में अपना ही खून था। मैंने उसे हौले से मुठ्ठी में बंद किया और बाहर उड़ा दिया। इस तरह वह लालची अतंकवादी और मैं सहिष्णु भारतीय बना रहा।
संडे की नींद मोबाइल के अलारम से नहीं, मित्र के फोन काल से खुलती है। मोबाइल में नाम पढ़ा तो चौंक गया..रावत जी! बहुत दिनों बाद किसी शतरंज के खिलाड़ी ने याद किया। शतरंज खेलना तो वर्षों से छूट ही चुका है। अब लगता है ये हमको हरा के ही मानेंगे! कोई जमाना था जब शतरंज खेलते सुबह से शाम हो जाती थीं। गुलाब पान वाले की अडी में जब हम लोगों की बाजी जमती तो लोग खड़े होकर, मोमबत्ती जला कर भी शतरंज देखते। लेकिन आज इतनी सुबह!
नमस्कार! सब ठीक तो है?
संडे को तो आप मार्निंग वॉक करने जाते हैं न? हम भी चलेंगे।
हां, सूर्योदय के बाद चलेंगे अभी तो अंधेरा है।
सूर्योदय हो चुका पण्डित जी! सुबह के सात बज रहे हैं। रजाई से मुंह बाहर निकालिएगा तब ना।
तब निकलिए! गुलाब की दुकान पर मिलते हैं।
साइकल चला कर जब पान की दुकान पर पहुंचे तो वे सड़क किनारे खड़े हो, एक टक ताकते हुए मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। न मेरा आना जान पाए न साइकिल खड़ी करना। मैंने हाथ हिलाया..
उधर क्या देख रहे हैं?
अरे! किधर से आ गए!
रावत जी को देखकर झटका लगा। जिस्म ठीक ठाक था लेकिन पूरे बाल झक सफेद हो चुके थे!
आप के बाल तो पूरे सफेद हो चके हैं? बूढ़े हो गए आप तो!
आपके काले हैं क्या? जब से रिटायर हुए हैं हेयर डाई लगाना छोड़ दिए। आप छोड़ दीजिए आपके भी सफेद हो जाएंगे।
अब यह दूसरा झटका था। मतलब डाई लगाना छोड़ दें तो अपने बाल भी ऐसे ही सफेद दिखेंगे! हम कितने भ्रम में जीते हैं!
डाई न लगाते होते तो इतनी जल्दी सफेद न होते। लेकिन अब मन नहीं करता। क्या फ़र्क पड़ता है! बेकूफी किए जो डाई लगाना शुरू किए।
शतरंज ?
शतरंज भी छूट गया।
आज कैसे याद किए?
लोहे के घर के अलावा आप की और भी दुनियां है पण्डित जी। आप सब भूल चुके हैं। आप ने नहीं याद किया तो हमने सोचा संडे को तो मिलेंगे ही, उसी समय आपको पकड़ते हैं। सुबह की सैर भी हो जाएगी, आप से भेंट भी। कैसी रही ये वाली चाल?
अरे! इसका तो कोई जवाब ही नहीं। बढ़िया आइडिया है।
खंडहर वाले लॉन में धमेख स्तूप के पीछे से निकलकर सूर्यदेव थोड़ा ऊपर आ चुके थे। खंडहरों के बीच एक अकेली विदेशी महिला सेल्फी लेते हुए अपना ही वीडियो बना रही थीं। इक्का दुक्का पर्यटक आने लगे थे। स्तूप पर कबूतर कम और कौए अधिक बैठे थे। अकेले घूमने में सिर्फ देखना और महसूस करना होता है, कोई मित्र साथ हो तो महसूस की हुई हर बात जुबां पे आ जाती है। मैंने रावत जी को छेड़ा..
धमेख स्तूप में भगवान बुद्ध की अस्थियां हैं क्या इसलिए स्तूप पर कबूतरों से अधिक कौए बैठे हैं?
रावत जी हंसने लगे...कौए कहां कम हैं पण्डित जी? हर जगह कबूतरों की तुलना में कौए अधिक पाए जाते हैं।
और गिद्ध? गिद्ध क्यों गायब हो गए?
गिद्ध जब जान गए कि आदमी के रहते मांस मिलना मुश्किल है तो कहीं मर/खप गए होंगे!
हमने एक दो चक्कर और लगाए। मौसमी फ़ूल खिल चुके थे। एक ग्रुप अब धर्मराजिका स्तूप के पास बैठकर पूजा अर्चना कर रहा था। अकेली विदेशी महिला अभी भी अपनी सेल्फी/वीडियो बनाने में मगन थी। मुझे लगा...
एक हम ही नहीं पागल, बेचैन हजारों हैं।
वाह ! रोचक अंदाज में कुछ जगबीती कुछ खुदबीती
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’काकोरी कांड के वीर बांकुरों को नमन - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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