क्या पाण्डे जी! विश्व पुस्तक मेला लगा था दिल्ली में, गये नहीं?
हाँ मिर्जा, नहीं गये। टिकट नहीं था।
आप कहते तो टिकट कटा देता आपका। दिल्ली कौन दूर है?
ट्रेन के टिकट की बात नहीं कर रहा मिर्जा, मैं पुस्तक मेला के टिकट की बात कर रहा हूँ! पुस्तक मेले में वही लेखक जाता है जिसकी एकाध पुस्तक छप चुकी हो। बिना पुस्तक छपे मेले में जाना वइसे ही है जैसे बिना टिकट ट्रेन पर चढ़ना। तुम्हें क्या पता? बिना पुस्तक वाला कवि मेले में बिना पूँछ वाले बन्दर की तरह कितना शरमाता रहता है!
एक साल हम भी गये थे मिर्जा, मेले में। बहुत से बिछुड़े भाई एक साथ मिल गये। किसी के हाथ में पुस्तक, किसी के बैग में पुस्तक, किसी का झोला भरा हुआ तो किसी का बोरा बंधा हुआ और हम खाली हाथ! मारे शरम के जमीन पर गड़े जा रहे थे, कोई देख कर पहचान न ले।
तब! फिर का हुआ?
का होना था मिर्जा! वही हुआ जिसका डर था। हम सोच ही रहे थे कि फूट लें यहाँ से तभी एक मित्र ने पीछे से आ कर टी.टी. की तरह पीठ में धौल जमा ही दिया-कैसे हैं पाण्डे जी? आपकी कौन सी पुस्तक आई इस बार? फिर बिना उत्तर सुने पकड़ कर एक कोने में ले गया जहां कम भीड़ थी। वहाँ मेले में बिछुड़े सभी भाई मौजूद थे। सभी से मेऱा परिचय कराते हुए बोलने लगा-इनसे मिलिये! यही बेचैन आत्मा हैं। इत्तफाक की बात थी मिर्जा! सभी मुझसे तपाक से हँसते हुये मिले! किसी ने मुझे शर्मिंदा नहीं किया!! मुझे उसी पल विश्वास हो गया कि इंसानियत कहानियों में ही नहीं, लेखकों में भी पाई जाती है! सभी मुझे प्रोत्साहित करते रहे-अगली बार मेले में आपकी पुस्तक भी आ ही जानी चाहिये।
तब! इतने अच्छे मित्र हैं तब क्यों नहीं गये मेले में?
कहाँ कोई पुस्तक छपी मिर्जा! हर बार कोई प्रोत्साहित थोड़ी न करता है। इस बार जाता तो तंज कसता-पूरी जिंदगी फेसबुक में ही गुजार दोगे क्या!
तो क्या खाली लेखक ही जाते हैं पुस्तक मेले में! पाठक कोई नहीं जाता?
वही पाठक, वही लेखक मिर्जा! यूँ समझो सभी पाठक, सभी लेखक।
इनके अलावा?
लेखक को हरदम झाँसा देते रहने वाला प्रकाशक, देखा-देखी पढ़ाकू दिखने वाले नये लड़के, बड़े लेखकों के बीच घुसकर एल्फी-सेल्फी खिंचा कर फेसबुक में चस्पा करने वाले और इस तरह हमेशा आत्ममुग्ध रहने वाले नये लेखक और लेखकों को विद्वान समझ कर चाय-पानी कराते रहने वाले उनके मित्र। इन्ही सब की चौकड़ी दिन भर हुँकार-फुँकार करती रहती है मिर्जा।
मतलब गाँव के मेले की तरह कोई मजा नहीं होता मेले में?
देश-शहर-गाँव सब पुस्तक में घुस जाता है मिर्जा! तुमने देखा है न गाँव का मेला? जिस बच्चे की उमर गुब्बारा फुलाने की होती है, वही गुब्बारा बेच रहा होता है! कितनी सूनी रहती हैं हरी चूड़ी बेचने वाली गुलाबो की आँखें! यही हाल विद्वत समाज का है। जिसके पास पैसा है वह हर साल पुस्तक छपवा सकता है। प्रकाशक किसी गरीब की पुस्तक नहीं छापता। बड़े-बड़े लेखकों की तमाम उम्र फकीरी में कट गई। जब स्वर्गवासी हुए, लोगों ने तारीफ करी तभी प्रकाशक उनके घर गया। बुद्धिजीवियों की दुनियाँ और जालिम है मिर्जा, कत्ल करते हैं और खून का एक धब्बा नहीं दिखता।
सही बात है गुरु! एक बार हमने भी एक कवि समेलन कराया था। बड़े लिफ़ाफ़े के लिये सब कवि झगड़ने लगे थे आपस में! किसी तरह बीच-बचाव किया और अपनी जेब से पइसा लगा कर मामला रफा-दफा किया।
तब मेला एकदम बेकार चीज है?
नहीं मिर्जा! यह नहीं कह रहा। मेला तो मेला है, मजा ही मजा है। जइसे गरीब को मेले से ही रोटी मिलती है वइसे बुद्धिजीवी को मेले से ही खुराक मिलती है। जेब में पैसा हो, फालतू समय हो और लिखने-पढ़ने का शौक हो तो मेले से बढ़कर और दूसरी अच्छी जगह कौन है साहित्य के मनोरोगियों के लिये! सोने में सुहागा-अपनी तरह दूसरे और रोगी भी मिल जाते हैं ओने-कोने, शब्दों के चाट-पकौड़े चखते हुए! कवि को कवयित्री मिल जाती हैं, कवयित्री को कवि मिल जाते हैं। आलोचकों को कवि-कवयित्री के रूप में जुगाली करने के लिए आलू-चना दोनों मिल जाते हैं। प्रकाशकों के पुराने अंडे बिक जाते हैं, नये मुर्गे मिल जाते हैं। इससे अच्छा और क्या हो सकता है भला!
एक ताजा शेर सुनो मिर्जा-
मृत्यु लोक के लेखकों की उल्टी-पल्टी गई बहुत
अधिक बिकी इस बार भी स्वर्गीय की पुस्तक।
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मतबल कछु न कछु सबके लिए मिल ही जाता है मेले में ...
ReplyDeleteबढ़िया गुप्तगू
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (22-01-2017) को "क्या हम सब कुछ बांटेंगे" (चर्चा अंक-2583) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब।
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