लोहे के घर की खिड़की से झाँक रहा हूँ मैं और घर में घुसने का प्रयास कर रहा है कोहरा। आजकल रोज के यात्रियों के समय से नहीं आती ट्रेन, ट्रेन के समय से चलना पड़ता है यात्रियों को। लेट है अपनी फोट्टीडाउन, दस बजे के बाद आयेगी। भोर में आने वाली किसान सुबह 7 बजे के आस-पास चली। कोई नहाकर आया है, कोई बिना नहाये। किसी को चाय मिल गई , कोई-कोई भाग्यशाली है जो नाश्ता भी कर चुका है। सभी के झोले में है टिफिन और पानी।
सभी के चेहरे पर ट्रेन पकड़ पाने की खुशी है। कोई अभागा भगा-भागा प्लेटफॉर्म से फोन कर रहा है। साथी संवेदना प्रकट कर रहे हैं-आप चूक गए, जाइये! बस से आइये। चौड़ी करण के कारण सड़क मार्ग धूल और जाम से भरा है, उप्पर से 61/. रूपये का अतिरिक्त खर्च। ट्रेन छूटने की पीड़ा वही समझ सकता है जिसकी ट्रेन कभी छुटी हो। जाके पैर न पड़ी बिवाई, ऊ का जाने पीर पराई!
जिसने ट्रेन पकड़ लिया वे अपने को परम् सौभाग्यशाली समझ रहे हैं। कोई अख़बार पढ़ रहा है, कोई मोबाइल चला रहा है और कोई खाली बर्थ ढूँढ कर अधूरी नींद पूरी कर रहा है। नोट बंदी पर चर्चा करते-करते बोर हो चुके लगता है। मोबाइल बैंकिंग के डाउनलोड किये गये नये-नये एप दिखाये जा रहे हैं एक दुसरे को। वेतन निकालने और खर्च करने के तरीके ढूंढे जा रहे हैं। वक्त के साथ खुद को अपडेट करने में लगे है लोग। एक दुसरे से पूछ कर सीख रहे हैं जीने के तरीके। सुबह-सुबह दाने-पानी की तलाश में भागते पंछियों की तरह चहक रहे हैं रोज के यात्री।
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ठंड बहुत बढ़ गई है। रोज के यात्री जैकेट, टोपी, मफ़लर पहने चहक रहे हैं। अंतरिक्ष यात्री लग रहे हैं सभी लोहे के घर में। आज कोहरा नहीं है लेकिन चल रही है शीतलहरी। रोज के यात्रियों के अपने-अपने ग्रुप हैं। कहीं चल रही है चर्चा, कहीं खुल गई है तास की गड्डी, कहीं खुल चुका है टिफिन, कोई पढ़ रहा है अखबार तो कोई मशगूल है मोबाइल में।
एक ने उछलकर सभी को वीडियो दिखया जिसमें जयमाल के समय खुल जाता है दूल्हे का पजामा और हँसने लगती है सबके साथ दुल्हन भी। हँसी या गम इसी को कहते हैं, जो फ़ूटकर निकल जाये। रोकना चाहो मगर रुके ही न। न माने कोई बंधन। वैसे ही दुःख छाती पीटने या संसद में कोहराम मचाने से व्यक्त नहीं होता। अच्छे दिन के नारों से नहीं आते अच्छे दिन। ये तो महसूस होता है खुद ब खुद। हल्ला मचाकर किसी को एहसास नहीं दिला सकते कि अच्छे या बुरे दिन आ गये।
लगभग सही समय से ही चल रही है अपनी #ट्रेन। धूप नहीं निकली है लेकिन कोहरा भी नहीं है। लोहे के घर की खिड़की से दिख रहे हैं हरे अरहर और पीले सरसों के खेत। आसमान के श्वेत रंग को मिलाकर देखो तो याद आता है अपना #तिरंगा । बीच-बीच में बरगद की लम्बी झूलती जड़ें, पगडंडियों पर चलते स्कूल जाते बच्चे, अलाव जला कर आग तापते लोग और खेतों में अपनी मिट्टी से प्यार करते ग्रामीण। कर्मशील मनुष्यों का दर्शन बड़ा शुभ होता है। अकर्मण्य नहीं दिखते, लोहे के घर से।
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ट्रेन लेट हो तो मुसीबत, राइट हो तो और भी मुसीबत! आज फोट्टीनाइन बहुत दिनों के बाद राइट टाइम आई और छूट भी गई। बहुत से रोज के यात्रियों की ट्रेन छूट गई। वे घर से ये मान कर चले थे कि नेट में भले राइट टाइम दिखा रहा हो पर आयेगी थोड़ी न!
अविश्वास लोगों में बढ़ता जा रहा है। शादी की पार्टी हो, समारोह हो या फिर लैला के वादे हों निर्धारित समय से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। इधर ट्रेन और नोट बंदी के बाद बन-बिगड़ रहे नये नियमों से भी लोग सशंकित हुए हैं। आम आदमी के पास 2000 का नया नोट आया नहीं कि जल्दी से भजाने की जुगत में लग जाता है। कहीं यह भी बंद न हो जाय! अब ऐसे माहौल में किसी का ईमानदार निकल जाना, किसी का वादा निभाना या किसी ट्रेन का सही समय पर छूट जाना सरासर धोखा है। आम आदमी पर यह ईमानदारी भी गाज बनकर गिर रही है।
इस ईमानदार धोखाधड़ी करने वालों में हमारे प्रधान मंत्री जी नोटबंदी करके सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हुए। समूचा विपक्ष नाराज है-ये तो बहुत बड़ा धोखा है! चुनाव सर पर है और इतना बड़ा धोखा!!! अब सबने मिलकर प्रचारित करना शुरू किया, यह तो गरीबों के साथ धोखा है। गरीबों को परेशानी हो भी रही है। बड़े लोगों की चोर-बाजारी पकड़ में भी आ रही है। चोर नये-नये पैतरे खोज रहे है, सरकार नये-नये नीयम बना रही है।
इस नूरा कुश्ती में जो सबसे ज्यादा परेशान है वो है आम आदमी। पहले उसे लगा कि डकैती डालकर जो धनवान बने थे उनके नोट बेकार हो गए। बहुत खुश हुए कि घंटों लाइन में लगे हैं तो क्या, चोरवे तो बरबाद हुए! अब नाराज है -हमारे लिए नोट नहीं लेकिन चोरों को लाखों के नए नोट! जइसे नोट बंद कर मोदी जी अपनी पीठ थपथपा कर, तालियाँ बजवाकर राजनीति करने लगे वइसे पूरा विपक्ष नोटबंदी की परेशानियां गिना कर उन्हें झूठा साबित करने में जुट गए। जइसे किसी दफ्तर में आ टपके किसी ईमानदार अधिकारी को उनके मातहत ही कोसने लगते हैं, वइसे जिनके बल पर नोटबंदी का फैसला किया, वे ही उनको गलत साबित करने में जुट गये!
अब तो माहौल यह हो गया है कि जिसके साथ जो भी बुरा होता है इल्जाम झट से मोदी जी के सर फोड़ देता है। आर बी आई नीयम बदले, इल्जाम मोदी पर। कहीं कोई किसी अव्यवस्था का शिकार हो, इल्जाम मोदी पर। हद तो तब हो गई जब सही समय पर जाने से यात्रियों की ट्रेन छूटी, इल्जाम मोदी पर! कोई कह रहा था-मोदिया ट्रेन छुड़ा देहलस!!! सरकार, पार्टी सब हल्के, अच्छे-बुरे सभी के लिये जिम्मेदार-मोदी जी।
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इधर दून के आने का एनाउंसमेंट शुरू हुआ , उधर भण्डारी स्टेशन पर नशे में झूमते, सबका मालिक एक....नशेमन तेरे लिये...! गाते, नाचते अर्धविक्षिप्त शराबी के कदम ठिठके। यात्रियों का रेला एक प्लेटफॉर्म से दूसरे की ओर भागने लगा। शराबी के इर्द-गिर्द गोल गोलइया में बड़ी देर से मजमा लगाये हंस रहे रोज के यात्रियों ने नशेड़ी को छोड़ अपनी-अपनी पोजीशन ले ली।
बहुत भीड़ है आज ट्रेन में। इस बोगी से उस बोगी टहलते-टहलते आखिर ऊपर चढ़ कर बैठने भर की जगह मिल गई है। दून से आ रहे कोलकोता जाने वाले यात्रियों की भीड़ है। लगता है जैसे बंगाल के किसी घर में बैठे हैं। आज बंगाली हो गई है लोहे के घर की यह बोगी। गोरूम, एक्टो, चहार घण्टा लेट, एक टका जैसे शब्द सुनाई पड़ रहे हैं। नीचे बैठे परिवार ने झाल-मुड़ी बनाई। नाक की नोक पर चश्मा अटकाये सुफेद मूँछ वाले टकले प्रौढ़ ने बड़े सलीके से प्याज और टमाटर काटकर पॉलीथीन में रखे लाई- चने में मिलाया। सामने बैठी महिला ने मुझे छोड़ सबको अखबार के टुकड़ों पर निकाल-निकाल कर दिया। मैं भी उधर से मुँह मोड़ जेब से निकाल कर चीनिया बादाम फोड़ने और छिलकों को छोटी पॉलीथीन में रखने लगा।
कोहरे की वजह से धीमे चल रही हैं सभी ट्रेनें। 'सौ दिन चले अढ़ाई कोस' वाली हालत है। दोपहर में आने वाली ट्रेन शाम को मिल रही है, शाम वाली सुबह। नीचे बैठे मूंछों वाले टकले ने एक मोटी किताब खोल ली है। चश्मा नाक के नोक से पीछे आ गया है। पता नहीं कौन सी पुस्तक पढ़ रहे हैं! मेरे बैग में भी वेतन निर्धारण के शासनादेश वाली एक किताब है लेकिन मैं उसे पढ़ना नहीं चाहता। सिन्दबाद की साहसिक यात्राओं वाली पुस्तक के अलावा दूसरी पुस्तक पढ़ने का मन नहीं है। क्या जमाना था जब यात्रा में निकलने वाला युवा, बूढ़ा होने के बाद घर लौटता था! ऐसी पुस्तकें पढ़ी जांय तो ट्रेन का लेट होना कभी न खले। मैं तो कहता हूँ प्रभु जी को सभी यात्रियों में यह पुस्तक मुफ्त बंटवानी चाहिये और कान में तेल डाल कर सो जाना चाहिये।
पीछे बैठे यात्री बतियाने के मूड में हैं। राम मंदिर, आरक्षण, नोट बंदी सभी मुद्दों पर बहसियाने के बाद अब किसी फिल्म की चर्चा कर रहे हैं। फालतू मुद्दों में आम आदमी कितना उलझे! थक हार कर साहित्य, संगीत, भजन या प्रकृति की शरण में जाना ही पड़ता है। बच्चे अपने में मस्त हैं। उनका पेट भरा लगता है। कभी ऊपर चढ़ रहे हैं, कभी नीचे उतर रहे हैं। बंद हैं लोहे के घर की खिड़कियाँ। बाहर चल रही है शिमला से आयी बर्फिली हवा। नीचे बैठे सुफेद मूँछ वाले की मोबाइल घनघना रही है। टोपी हटाकर, अपने चाँद को पूरा हिलाते हुए उसने फोन उठाया और जोर से बोला..हैलो...!
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आज पाटलीपुत्र में भीड़ नहीं है मगर एक बेंगाली परिवार आज भी है। दादी और पोती में खूब बातें हो रही हैं। इतने जल्दी-जल्दी बोल रहीं हैं दोनों कि बात समझ में नहीं आ रही।
मेरे न चाहने के बाद भी यादव जी ऊपर चले गये! मैंने कहा -इतनी जल्दी! तो चिढ़कर बोले-'तोहें साथे लेकर जाइब हो, अभहिन सूते जात हई।' यादव जी की पलकें बंद हैं। ऊपर के बर्थ पर लेटकर पटरियों की खटर-पटर सुनने में अधिक मजा आता होगा।
खाना-खाना चिल्लाते हुए चार आदमी खाने की ट्रंक पकड़े गुजर गये। वे खाना-खाना चीख रहे थे, मुझे 'राम नाम सत्य है' सुनाई दे रहा था। हरा मटर बेचने वाले पीछे-पीछे मसाले की दुर्गन्ध फैलाते हुए गुजर गये। जैसे 'राम नाम सत्य है' के पीछे अगरबत्ती सुलगाये लोग! अब माहौल में मरघटी सन्नाटा पसर गया है। यादव जी की पलकें पहले की तरह बंद हैं लेकिन अब उन्होंने दाहिने हाथ से पकड़ लिया है बर्थ की रेलिंग। ऊपर गये जरूर हैं मगर और ऊपर नहीं जाना चाहते। मुझे साथ लेकर जाने का संकल्प दृढ है शायद!
मरघटी माहौल के बीच अपने आप थोड़ी उठ गई है लोहे के घर की खिड़की। सुरसुर-सुरसुर मेरे जिस्म से छू छू जाती है बर्फिली हवा। मैं सिहर-सिहर मजा ले रहा हूँ ठंडी हवा का।
कहीं रुक गई है अपनी ट्रेन। यादव जी भूत की तरह मेरे सामने टपक कर पूछ रहे हैं-कहाँ पँहुचल पाँड़े? कुछ और जग कर बड़बड़ाने लगे-अभहिंन ले त बढ़िया लियायल, अब का हो गयल! अब बेचैनी से सुर्ती रगड़ रहे हैं। पता नहीं कहाँ जाने की जल्दी है! इस घर में इतने लोग, उस घर में एक अदद पत्नी और 1-2 बच्चे! वहाँ पहुँच कर वहीं रह पायें ऐसा भी नहीं। फिर सुबह उठकर आना है इसी घर में! क्या जाहिलाना प्रश्न है-कहाँ पहुँचल पाँड़े? हमको कहना पड़ा-चुप मारे रहा, हमें लिखे द। पहुँच जाई त तोहें साथे लेके चलब। तू भले उप्पर अकेले चला जा, हम तोहें बिना लेहले न उतरब।
एक ट्रेन सरसरा के गुजरी है अभी। एक ताजा हवा चली है अभी। चलकर शिवपुर के आउटर में खड़ी है अपनी भी #ट्रेन। मंजिल पास जान उठकर बड़बड़ाने लगे हैं सभी यात्री। उनके शोर से जाना, बहुत से बेंगाली हैं इस बोगी में! जब तक लोग बोलते नहीं तब तक समझ में नहीं आती उनकी भाषा। एक और ट्रेन गुजर गई। कुछ ज्यादा इतमिनान से खड़ी है अपनी ट्रेन। लिखना बंद कर बंगाली समझने का प्रयास करता हूँ। सुनने में बड़ी मीठी लगती है बंगाली।
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मोबाइल में गाना बजा रहा है-चार दिनों का खेल हो रब्बा लंबी..जुदाई..। बांसुरी में इसकी धुन खूब बजती है। जाड़े में लोहे के घर की शाम रंग-बिरंगी होती है। कहीं मनहूसियत से भरी तो कहीं आनंद दायक। एक ही बोगी में अलग-अलग ग्रुप। कोई अपने में सिकुड़े-सिकुड़े, गुमसुम तो कोई हँसी-मजाक, हल्ला-गुल्ला करते हुए। मेरे अगल-बगल गाल में हाथ रख कर कहाँ पहुँचे?, रुक गई, चल दी, पीछे वाली क्रास न कर जाए! ऐसी ही मनहूसियत की बातें करने वाले लोग हैं। बगल में शोर गुल है। लगातार गाना बज रहा है-चला जाता हूँ, किसी की धुन में, धड़कते दिल के तराने लिये...।
आज कितनो की फूटी किस्मत का लाभ हमें मिला। डाइवर्टेड ट्रेन समय से मिल गई और अब लगता है 9 बजे तक घर पहुँच जायेंगे। लोग बता रहे हैं-अभी शिवपुर में खड़ी है। यहॉं से चले तो बात बने। चल दी! पता नहीं जल्दी घर पहुँच कर ही क्या खजाना लूट लेंगे!
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सफ़र में ख़ुद को झोंक कर देखो, रास्ते और सवारियाँ दोनों मिल ही जाती हैं। किसी की लेट, किसी की राइट टाइम हो जाती है। किसी की राइट भी छूट जाती है।
आज शाम जौनपुर में फरक्का मिली। जफराबाद में छूटे/छठे रोज के यात्रियों को अपने बोगी में बिठाकर कुछ देर आराम करने के बाद पटरी पर दौड़ने लगी। अब हवा से बातें कर रह रही है।
जहाँ-जहाँ से यह गुजरती होगी, पूस की शाम चैन से सो रही ठंडी पटरियों में ग़ज़ब की गर्मी आ जाती होगी! #ट्रेन हवा से कहती होगी-देखा! कितना गरम कर दिया न! पटरियों को। हवा कहती होगी-चुप रह लालमुँही! इंजन के बल पर इतना न अकड़! पटरियाँ न होतीं तो तू एक कदम चल न पाती। पटरियों से उतर कर दिखा! ट्रेन हँसते-हँसते धीमी हो रही है। कह रही शायद-अकेले किसी का कभी कोई वजूद नहीं होता। अकेले किसी का होना या न होना बेमानी है। पटरियाँ न होतीं तो हम ही क्यों होते? हम न होते तो पटरियाँ ही क्यों होती? तू भी तो धरती के दम पर इतना इतरा रही है हवा! चाँद पर क्यों नहीं बहती? सूरज से क्यों नहीं बतियाती?
लोहे के घर में मैं जहाँ बैठा हूँ कोई किसी से बात नहीं कर रहा। सभी मेरी तरह मोबाइल में भिड़े हुए हैं। मैं लिख रहा हूँ, वे देख/सुन रहे हैं। दोनों कानों में तार फंसाकर, गरदन झुका कर तल्लीन हैं, भीडियो/ फिल्म देखने या गाना सुनने में। मेरे बगल में एक बेंगाली वृद्धा का तकिया, ओढ़ना पड़ा है। वृद्धा अपने बुढऊ और दूसरे बेंगाली परिचितों के साथ पीछे वाली सीट पर बैठ कर बतिया रही हैं और लाई खाने के लिए सीमेंट के पुरानी बोरी से बरतन-भांडा निकाल रही है। उसने एक भगोना निकाला, बुढऊ ने बुढ़िया के हाथ से पकड़ कर बगोने में दाने भरे और अब बुढ़िया स्टील की थाली निकाल रही हैं। साथ बैठे बेंगाली लगातार कुछ न कुछ चपड़-चपड़ बतियाते जा रहे हैं। यादव जी ऊपर से टपक कर, कहाँ पहुँचल पाण्डे? पूछ चुके हैं। मैं उनसे कह चुका हूँ-चुप मारे रहा! तोहें साथे ले के उतरब।
शायद शिवपुर आ रहा है। यहां से उनका घर पास पड़ता है। ट्रेन हवा से बातें करने के बाद अब अब धीमे-धीमे सरक रही है। अंडा चावल बेचने वाला "बोलिये! खाना-खाना" चीखते हुये गुजरा है। अब रुक ही गई शिवपुर स्टेशन पर। कुछ लोग अब ट्रेन के लेट होने का समय गिना-गिना कर इसे कोसना शुरू कर चुके हैं। यहॉं तो स्टापेज नहीं है! यहाँ क्यों रुक गई! कोई बता रहा है कि फलाँ ट्रेन इतने घण्टे लेट है और फलाँ इतने घण्टे। फरक्का के लेट होने पर हक्का-बक्का होने वाले यह जानकर संतोष कर रहे हैं कि सभी ट्रेनें लेट चल रही है।
ट्रेन इतमिनान से खड़ी हो लम्बी साँसें ले रही है-कोसो-कोसो और गाली दो नाशुक्रों! यह कभी नहीं कहेंगे कि सकुशल यहां तक ले आई और किसी को एक खरोंच तक नहीं लगी इस जाड़े/कोहरे में! दूसरे का लेट होना खूब दिखता है, अपने क्या सही रहते हो हमेशा? साढ़े चार घण्टे लेट हुई तो क्या अधिक पैसे ले लिये तुमसे?
यह तो अच्छा है कि ट्रेन की बातें सिर्फ मैं ही सुन पाता हूँ वरना बवाल हो जाता।
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लोहे के घर में बैठ कर बंद खिड़कियों के शीशे से कोहरे में डूबे वृक्षों, कंकरीट के मकानों, झुग्गी-झोपड़ियों और सरसों-अरहर के खेतों को तेजी से नाचते हुए पीछे भागते देखना भी अलग किसिम का आनंद है। पटरी पर हवा से बातें कर रही है वरूणा और इसकी बोगी में बैठ कर मन से बातें कर रहा हूँ मैं।
हमारे आदरणीय प्रधान मंत्री जी भी मन की बात करते हैं। वे राष्ट्र के प्रधान मंत्री हैं तो उन्हें अपने मन की नहीं जन- जन के मन की बात करनी पड़ती है। हम इस मामले में खुशनसीब हैं कि अपने मन की बात खुल कर कर सकते हैं। वे नहीं बैठ सकते मेरी तरह अकेले लोहे के घर में। नहीं सोच सकते अपना दुःख दर्द। मुझे तो लगता है कि उनका मन कहीं गुम हो चुका होगा अब तक। रूठ गया होगा-जाओ! कभी उतरोगे कुर्सी से और लोगे सामाजिक जीवन से सन्यास तो आएंगे फिर तुम्हारे पास। अभी तो उन्हें वही करना है जिससे राष्ट्र का भला हो, वही उपाय सोचना है जिससे विरोड़ियों को जवाब दिया जा सके और वही करना है जो देश हित में जन सेवक कार्यक्रम तय करें।
मन की बात बताना और मन की करना दोनों में बड़ा फर्क होता है। बताते समय हम अच्छा-अच्छा बताते हैं लेकिन करते समय गन्दा-गन्दा भी कर जाते हैं। बताते समय जो गंदा किया उसे गोल कर जाते हैं, जो अच्छा किया वही बताते हैं।
समाज के सभ्य होने की पहली शर्त ही गन्दा छुपाना और अच्छा दिखाना से हुई! जैसे ही मानव को सभ्य होने का थोड़ा ज्ञान हुआ उसने सबसे पहले अपने अंगों को गुप्त रखना शुरू कर दिया। कपड़े पहनना शुरू किया। नँगा रहना शर्म की बात हो गई। धीरे-धीरे सभ्य और सभ्य होता गया। अब तो खुले में शौच करना भी असभ्यता की निशानी है। गन्दगी छुपाना और स्वच्छ दिखना सभ्य समाज की शर्त है। यही कारण है कि हम जब किसी से मन की बात करते हैं तो अच्छा-अच्छा, साफ-सुथरा ही दिखने और बताने का प्रयास करते हैं। गन्दा करने में संकोच नहीं करते मगर जब कोई आपकी गन्दगी दिखा कर आपको नँगा कर देता है तो मारे शर्म के पानी-पानी हो जाते हैं।
सन्नाटा है लोहे के घर में। मेरे सामने बैठे मेरे मित्र के अलावा इस बोगी में दूर-दूर तक कोई नहीं दिखता। मैं मन की बात लिख रहा हूं, मित्र मन का करते हुए मोबाइल में भीडियो देख रहे हैं। करने को तो मैं भी मन का ही कर रहा हूँ लेकिन मन की बात लिखकर सार्वजनिक भी कर रहा हूँ। बड़ा महीन अंतर है मन की इस बात में।
#ट्रेन अब जौनपुर पहुँच रही है। लिखना बंद करना पड़ेगा और सबको शुभ प्रभात बोलना पड़ेगा। मैंने आज की सुबह का भरपूर आनंद लिया। वो सब आनंद आप तक पहुंचे। सुबह के साथ आपका दिन भी शुभ हो।
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