सच है
यह मौसम
सृजन और संहार का है।
खूब बारिश होती है
इस मौसम में
लहलहाने लगते हैं
सूखे/बंजर खेत
धरती में
अवतरित होते हैं
झिंगुर/मेंढक/मच्छर और..
न जाने कितने
कीट,पतंगे!
आंवला या कदम्ब के नीचे
बैठ कर देखो
हवा चली नहीं कि
टप-टप
शाख से झरते हैं
नन्हे-मुन्ने
फल।
सब
तुम्हारी तरह
नहीं कर पाते
यमुना पार
डूब जाते हैं
बीच मझदार
सच है
असफल हो जाते हैं
सभी
मानवीय प्रयास
जब
फटते हैं बादल
आती है
बाढ़।
सच है
यह मौसम
सृजन और संहार का है।
फिर?
काहे को बने हो देवता?
कान्हा! जाओ!!
अभी पैदा हुए हो
अपनी जान बचाओ
खूब रासलीला करो
मारोगे कंस को?
जीवित रहे
तो हम भी
बजा देंगे
ताली।
........
यह मौसम
सृजन और संहार का है।
खूब बारिश होती है
इस मौसम में
लहलहाने लगते हैं
सूखे/बंजर खेत
धरती में
अवतरित होते हैं
झिंगुर/मेंढक/मच्छर और..
न जाने कितने
कीट,पतंगे!
आंवला या कदम्ब के नीचे
बैठ कर देखो
हवा चली नहीं कि
टप-टप
शाख से झरते हैं
नन्हे-मुन्ने
फल।
सब
तुम्हारी तरह
नहीं कर पाते
यमुना पार
डूब जाते हैं
बीच मझदार
सच है
असफल हो जाते हैं
सभी
मानवीय प्रयास
जब
फटते हैं बादल
आती है
बाढ़।
सच है
यह मौसम
सृजन और संहार का है।
फिर?
काहे को बने हो देवता?
कान्हा! जाओ!!
अभी पैदा हुए हो
अपनी जान बचाओ
खूब रासलीला करो
मारोगे कंस को?
जीवित रहे
तो हम भी
बजा देंगे
ताली।
........
bahut sundar !! aabhar
ReplyDeleteवाह।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17-08-17 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2699 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन सुभद्रा कुमारी चौहान और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबेहद मार्मिक रचना..
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