16.6.18

लोहे का घर-44

ढल चुके हैं सुरुज नरायण, गर्म है लोहे का घर। प्यासे हैं यात्री। व्याकुल हैं बच्चे। रुक-रुक, छुक-छुक चल रही है एक्सप्रेस #ट्रेन। बिक रहा है पानी ठंडा, मैंगो जूस, चना, खीरा। एक्सप्रेस ट्रेन पैसिंजर की तरह चले तो यात्री भले गर्म डिब्बे में आलू की तरह भुनाते चलें, लोकल वेंडरों की चांदी होती है। बिक जाता है सारा माल।
यह मध्यम वर्गीय बोगी है। न एसी न जनरल। न अमीर न गरीब.. स्लीपर बोगी। मध्यम वर्ग की पीठ पर देश की और स्लीपर बोगी पर रेल की पूरी अर्थ व्यवस्था टिकी है। इसी मध्यम वर्गीय बोगी के सहारे जलते हैं वेंडरों के घर के चूल्हे। न जनरल वाले खरीद पाते हैं, न एसी में वेंडर घुस पाते हैं। मध्यम वर्गीय बोगी के यात्री हाड़तोड़ मेहनत की कमाई से टैक्स देने के बाद जो धन बचता है उसे देश के नौनिहालों के शिक्षा/स्वास्थ्य पर दिल खोल कर खर्च करते हैं ताकि पढ़ लिख कर बच्चे बड़ी-बड़ी कंपनियों की मजूरी कर सकें।
इस बोगी के यात्री अखबार पढ़ते हैं और पन्ने-पन्ने चपोत कर/सहेज कर रखते हैं ताकि भूख लगने पर भूज़ा खा सकें। स्टील का गिलास और बड़ा सा कटोरा भी रखते हैं। टेसन-टेसन भीड़ में कूद-कूद, रगड़-झगड़ प्लास्टिक के बोतल में पानी लाते हैं और इत्ते खुश होते हैं कि जग जीत लिया! अब तो इनके पास स्मार्ट फोन भी है। फोन में नेट भी है। राह चलते भी देख सकते हैं क्रिकेट, विज्ञापन और सनीमा। ऐसे ही नहीं कहती दुनियां भारत एक बिग बाज़ार है। मै भयभीत हूं कि कहीं यह बिग बाजार ध्वस्त न हो जाय।
........................

सुबह सात बजे की पैसिंजर ट्रेन चलते चलते पौने आठ तक चल ही दी। फुलवरिया, मिलिट्री छावनी के बबूल के जंगल और एक करिया नाला (जिसे सभी वरुणा नदी कहते हैं।) के बाद अब शिवपुर से चली है #ट्रेन। थोड़ी देर पहले वरुणा गई है जिसके कारण रोज की तुलना में भीड़ कम है। फर्श पर बिखरे मूंगफली के छिलके और यात्रियों के चेहरे पैसेंजर ट्रेन को अलग ही पहचान देते हैं। दूर से देखो या भीतर से इसका एक अलग ही लुक है।

हवा ठंडी नहीं तो अभी गर्म भी नहीं है। खेतों में धूप अपने रंग में है। उघाड़े बदन डडौंकी से बकरियों के झुंड को हांकते मेढ़ मेढ़ जा रहे ग्रामीण की नजर पैसेंजर पर पड़ी तो जल्दी जल्दी बढ़ाने लगा अपने कदम। शायद ट्रेन को देख उसे लगा हो कि आज बहुत देर हो गई। उसे क्या पता आज ट्रेन ही लेट है। अब वह जमाना गया जब ट्रेन को देख समय का अनुमान होता था। अब यह देखना पड़ता है कि इस समय कौन कौन ट्रेन है!
अमित भैया रोज टीवी में चीखते हैं.. 'दरवाजा बन्द' लेकिन ग्रामीण अभी भी खुले में ही शौच करते पाए जाते हैं। शायद इनके पास अभी न शौचालय है न दरवाजा। चुंधियाती धूप में काली बकरियां, भैंस ग़ज़ब का कंट्रास्ट पैदा करते हैं! इक लड़की पानी मांग रही है। एक मूंगफली वाला मूंगफली बेच रहा है। कुछ यात्री मौका पा कर सो रहे हैं।

एक घना वृक्ष और उसके छांव तले भेड़ों का झुंड दिखा। प्रथम दृष्टया दूर से देखने पर लगा मैले, बड़े से चबूतरेे के ऊपर तना है वृक्ष! ध्यान से देखा तो जाना अनगिन भेड़ों का एक विशाल झुंड है जो वृक्ष की झुकी शाखाओं के तले छांव पा रही हैं। जैसे धूप में खड़े पिता ने बच्चों के ऊपर ओढ़ा रखी हो छतरी।

जलाल गंज का पुल थरथराया है। जफराबाद अब नजदीक है। आ रही है अपनी कर्मभूमि। 
////////////////////////////////

ढल रहा है सूरज। धीरे धीरे ठंडा हो रहा है लोहे का घर। अभी तो नींबू की तरह निचुड़ रहे हैं यात्री। पंक्ति बद्ध जौनपुर-वाराणसी के हर स्टेशन पर खड़ी हैं एक्सप्रेस ट्रेनें। एक आगे बढ़ती है तो उसके पीछे वाली आगे बढ़ती है। बीच बीच में सभी के तन बदन में आग लगाती, मुंह चिढ़ाती बाय बाय करती छूट जाती है मालगाड़ी। जाड़ा होता तो कोई बात नहीं, इस भयानक गर्मी में ठहरी हुई ट्रेन की बोगियों से बाहर निकल प्लेटफार्म पर आकुल व्याकुल टहल रहे हैं पुरुष। बोगी में ही चुपचाप बैठ कर पसीना बहाने के लिए अभिशप्त हैं महिलाएं और बच्चे। बीच बीच में आ रही हैं आवाजें.. पानी पानी।
जौनपुर से १४० मिनट में तय हुई है ४० किमी की दूरी! अभी बाबतपुर में खड़ी है ट्रेन। लगभग तीस मिनट हो चुके हैं। नेट पर अगली गाड़ी की पोजिशन देख रहे हैं यात्री। जब आगे वाली बढ़ती है तब खुश होते हैं। उम्मीद जगती है कि चलेगी अपनी वाली भी।


ढल रही है शाम, ठंडा हो चुका लोहे का घर और ठंडे हो चुके हैं इसके यात्री भी। भारतीयों में सहनशीलता का गुण शायद रेल में सफ़र करने से ही आया है। जो एसी में सफ़र करते हैं वे तो फिर भी ठीक हैं लेकिन जो इस गर्मी में स्लीपर और जनरल बोगी में सफर करने के लिए मजबूर हैं, उनकी दसा ठहरे हुए ट्रेन की भीड़ भरी बोगियों में अत्यन्त दुखदाई है। ट्रेन चलती रहती है तो खिड़कियों के रास्ते भीतर आती है हवा, सूखते हैं स्वेद कन। ट्रेन खड़ी हो जाती है तो सारा शरीर रोम रोम रोता है।

चली है ट्रेन। आ रही है हवा। दम घुट रहे मरीजों को मिल रहा है आक्सीजन। ले पा रहे हैं सांस और कुछ तो पिछला गम भुलाकर हंस भी रहे हैं! 

///////////////////////////////////////////////////////

सुबह ७ बजे वाली पैसिंजर ठीक समय से छूटी। आज मैं २ मिनट लेट हो गया। प्लेटफार्म पर पहुंचा तो उसकी पूंछ दिखाई दी। पूंछ मतलब गार्ड वाला आखिरी डिब्बा। मैंने टाटा किया, उसने बिना कुछ बोले स्पीड बढ़ा दिया। एक युवा साथी उसके पीछे पीछे दौड़ा और दौड़ा कर पकड़ लिया। चढ़ने के बाद गर्व से हाथ भी हिलाया। नहीं पकड़ पाता तो खीसिया कर लौटता। पकड़ लिया तो अकड़ दिखा रहा था। गिर जाता तो रो रहा होता। चलो अच्छा है उसकी दौड़ सफल हुई। कल मैं दस मिनट पहले आया था तब पूरे चालीस मिनट खड़ी थी। आज दो मिनट देर से आया तो चल दी! बेईमान कहीं की! अपनी गलती पर कोई क्षमा नहीं, मेरी गलती पर सजा। बड़ी अधिकारी बनती है!

ऐसा ही होता है। ट्रेन किसी की प्रतीक्षा नहीं करती। प्रतीक्षा हमेशा यात्री को करनी पड़ती है। जिस दिन ट्रेन लेट होगी यह मानकर थोड़ी सुस्ती दिखाई, वह राइट हो जाती है। यह तो अच्छा रहा कि सुबह पांच बजे वाली किसान अभी पीछे थी। पैसिंजर के छूटने के बाद उसके आने की घोषणा हो गई।

किसान की बोगियां खाली खाली हैं। इसमें नए डिब्बे लगे हैं। रंगाई पुताई भी अच्छी है। पंखे टंगे हैं, चल रहे हैं और हवा भी लग रही है। आराम से खाली बर्थ पर लेटे हैं। अब मन कह रहा है.. जो होता है, अच्छा होता है। पैसिज़र छूटी तो एक्सप्रेस मिल गई। दौड़कर पैसिंजर पकड़ने वाला मेरा लिखा पढ़ेगा तो अफसोस करेगा। नाहक दौड़ा! न दौड़ता तो एक्सप्रेस मिल जाती। एक्सप्रेस पैसिंजर को क्रास करके आगे बढ़ गई तो और भी दुखी होगा।

रेल यात्रा में ही नहीं, जीवन यात्रा में भी यही होता है। एक अवसर चूक जाने पर हम दुखी हो जाते हैं जबकि जीवन में कई अवसर और भी मिलते हैं। नौकरी खोजने वाले बेरोजगार कठिन तैयारी के बाद जो पहला अवसर मिलता है उसी को लपक लेते हैं फिर जीवन भर उसी में चिपके उलझे इस अफसोस के साथ पूरा जीवन बिता देते हैं कि थोड़ा रुक जाते तो शायद एक्सप्रेस मिल जाती। कितने तो पैसिंजर को न पकड़ पाने के गम में इतने निराश हो जाते हैं कि दूसरे अवसर का प्रयास ही नहीं कर पाते। जबकि ये जो जीवन रूपी प्लेटफार्म है उसमें अवसर रूपी कई ट्रेने गुजरती हैं। आवश्यकता है सतर्क हो प्लेटफॉर्म पर टिके रहने की। सफ़र कठिन हुआ है मगर समाप्त नहीं हुआ। आगे और भी अवसर आएंगे। हो सकता है और अच्छे अवसर मिलें। पैसिंजर छूट जाए तो एक्सप्रेस मिले। सरकार की मेहरबानी हो तो क्या जाने बुलेट ही मिल जाय! स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन जी ने काफी अनुभव के बाद लिखा होगा..मन का हो तो अच्छा और न हो तो और भी अच्छा।
////////////////////////////////////////////



No comments:

Post a Comment