10.5.21

फेसबुक के आने से पहले स्वर्गीय हो जाने वाली माएँ।

कितनी अभागन हैं!

फेसबुक के आने से पहले स्वर्गीय हो जाने वाली माएँ।

नहीं देख पाईं

'मदर्स डे' वाली एक भी पोस्ट।


काश! फेसबुक के जमाने मे भी जिंदा होंतीं

तो देखतीं

सब कितना प्यार करते हैं अपनी माँ को!


कसम से

पोस्ट पढ़-पढ़ कर

रो देतीं

मन ही मन कहतीं

मैने बेकार ही तुमको ताना दिया..

"खाली अपनी पत्नी की सुनता है नालायक।"


बेटे का आँखें तरेरना,

गुस्से से हाथ जोड़ क्षमा माँगना/कहना...

"अब बस भी करो अम्मा, अब हमें सुख से जीने दो"

धमकी देना...

"नहीं मानोगी तो छोड़ आएंगे तुम्हें वृद्धाश्रम!"


फेसबुक में अपनी और अपने बेटे की प्यारी तस्वीरें देख,

खुश हो जातीं, भूल जातीं

सभी गहरे जख्म।


कैसे याद रख पातीं

पिता के साथ किए गए जहरीले संवाद...

"जिनगी में

का देहला तू हमका?

खाली अपने सुख की खातिर

पइदा कइला,

तू हमका!"


माँ!

तुम्हें तो बस

पुत्रों की मुस्कान से मतलब था

जल्दी चली गई तुम,

हमे छोड़कर।


एक सुख भी नहीं दे सके,

नहीं दिखा सके, मदर्स डे वाली

एक भी पोस्ट।

....

22 comments:

  1. मार्मिक रचना

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  2. हृदयस्पर्शी सृजन ।

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  3. मर्मस्पर्शी सृजन

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  4. बहुत बढ़िया लिखा है आपने।

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  5. अति सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति

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  6. बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण प्रस्तुति देवेंद्र जी। आपके सबसे छद्म सत्य को उद्घाटित करती हुई। इसे साभार फेसबुक पर कुछ ग्रुपों में शेयर कर रही हूं। हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🙏

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  7. एक सुख भी नहीं दे सके,

    नहीं दिखा सके, मदर्स डे वाली

    एक भी पोस्ट।

    ....

    गहरा कटाक्ष ।

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  8. बहुत सुंदर

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  9. कटु सत्य आज का.....
    बहुत ही हृदयस्पर्शी.... लाजवाब सृजन।

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  10. दिल को दहलाती रचना।

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  11. गहन कटाक्ष! साथ ही वेदना भी, बहुरूपिया चरित्रों पर सीधा वार सार्थक सृजन।

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  12. भाई, आपकी लेखनी की ईमानदारी पर दंग हूँ। जब व्यंग्य लिखती हैं तो ऐसा कि चीर दें, हास्य लिखती है तो पेट में बल पड़ जाए, यात्रा वृत्तांत लिख्ती है तो सहयात्री होने का अनुभव होता है और जब करुणा बरसती है तो दिल रो पड़ता है। इस कविता के विषय में कुछ नहीं कहूँगा... नि:शब्द हूँ!!

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  13. आज हम बाजार के बीच हैं। अम्मा भी वहीं है हमारे साथ। लाजवाब।

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