21.3.10

एक हिंदी गज़ल



क्या तेरा क्या मेरा पगले
चार दिनों का फेरा पगले

छोरी-छोरा छुट जाएंगे
उठ जाएगा डेरा पगले

पत्थर का दिल क्यों रखता है
तन माटी का ढेरा पगले

बिन दीपक ना मिट पाएगा
अंधियारे का घेरा पगले

सूरज सा चमका है जग में
जिसने तन मन पेरा पगले

मूरख क्यों करता गुरुआई
एक गुरु सब चेरा पगले



14.3.10

तू है कौन, कौन हैं तेरे

आज रविवार है. कविता पोस्ट करने का दिन. मार्च ..वित्तीय वर्ष का अंतिम महिना, बच्चों की परीक्षा और उसपर चैत की मस्ती. अपने 'नववर्ष' के आगमन की आहट भी पुलकित कर दे रही है मन को. माँ दुर्गा की पूजा, नवरात्री का मेला और नव दिन का व्रत. गेहूँ की लहलहाती सुनहरी फसलें, आम के बौर में दिखते छोटे-छोटे टिकोरे और...और भी बहुत कुछ जो इस वक्त याद नहीं आ रहा. एक यह नववर्ष है और एक वो ...हाड़ कंपा देने वाली ठंड वाला...! अरे, अपने देश के लोगों ने अपने मौसम के खूबसूरत पलों को नववर्ष और त्योहारों के लिए चुना, अंग्रेजों ने अपने मौसम के अनुसार. हम उनकी नक़ल करने के चक्कर में अपनी अच्छाईयों, अपने आनंद और अपने नववर्ष को क्यों भूलें..!

आज मन कुछ आध्यात्मिक हो रहा है . मैंने भी नवगीत की तर्ज पर एक भजन लिखा है जिसे आज पोस्ट करता हूँ . आपकी प्रतिक्रिया मुझे राह दिखाती है . प्रस्तुत है भजन ......


तू है कौन, कौन हैं तेरे



ताल-तलैया पी कर जागा
नदी मिली सागर भी मांगा
इतनी प्यास कहाँ से पाई
हिम से क्यों मरूथल तक भागा

क्यों खुद को ही, रोज छले रे
तू है कौन, कौन हैं तेरे

सपनों को अपनों ने लूटा
एक खिलौना था जो टूटा
छोड़ यहीं सब झोला-झंखड़
चल निर्जन में यह जग झूठा

भज ले राम, राम हैं तेरे
तू है कौन कौन हैं तेरे

घट पानी का पनघट ढूँढ़े
भरे लबालब मद में डूबे
सर चढ़ कर जब लगे डोलने
ठोकर खाए खट से फूटे

जो संभले वो पार लगे रे
तू है कौन कौन हैं तेरे।

7.3.10

भवानी दीदी



एक थी भवानी दीदी
कहते थे जिसे सभी
पगली !

सुबह-सबेरे
बरामदे में बैठकर
बीनती थी कंकड़
फेंकती थी चावल
गाती थी गीत
"आ चरी आ.... फुर्र उड़ी जा"!

चीखते-चिल्लाते आती थी माँ....

"पगली, यह क्या कर रही है !
सारा चांवल चिड़ियों को ही खिला देगी क्या ?"

ताली पीट-पीट खिलखिलाती थी वह

वैसे ही जैसे
खुशी में पंख फड़फड़ाती है
गौरैया

देखो-देखो
सब मेरे पास बैठी थीं
वह भी...वह भी...वह भी
यहाँ....यहाँ...यहाँ

दिखाती थी वह
माँ को
घर का कोना-कोना
फिर पैर पटक
रूठ जाती सहसा
आपने सब भगा दिया !

उसकी रसीली आँखें
बुदबुदाते होंठ
बिखरे बाल
भूखे-प्यासे पंछी की तरह चहचहाने लगते.

माँ देखती तो बस देखती रह जाती....

दीदी की पुतलियों में 'चाँद'
गालों में 'सूरज'
होठों में 'गुलाब'
और कमर तक झूलते
'काले बादल'

देखते ही देखते
माँ के पलकों की कोरों में सिमटकर
सूप के शेष बचे चावंल में ढरक कर
विलीन हो जाती
'भवानी दीदी'.

तीस साल बाद....
माँ की इच्छा पर
जाते हुए उसके गाँव
उसकी ससुराल
उसके घर
कदम दर कदम
याद आती गयी
बचपन की याद
और भवानी दीदी.

वह दिखी
आँगन में बैठी
बच्चों के साथ खेलती
बुदबुदाती
बड़बड़ाती
वैसी ही
पगली की पगली.

मैं उसके समीप बैठ गया
पूछा...
पहचाना मुझे !
जोर-जोर से चीखा...
"आ चरी आ..फुर्र उड़ी जा.."

वह चिहुंक कर खड़ी हो गई !
घूरती रही देर तक
मैं भी देखता रहा उसे
अपलक!

पुतलियाँ
अंधियारी सुरंग
गालों में
मरुस्थली झुर्रियाँ
होंठ
सिगरेट की जली राख
बाल
जेठ की दुपहरिया में उड़ते छोटे-छोटे बादल

मैंने सिहर कर
ओढ़ा दिया उसपर
माँ का भेजा हुआ 'प्यार'

वह फुदकने लगी सहसा
आँगन-आँगन

वैसे ही जैसे
फुदकती थी कभी
बरामदे में गौरैया
और
भवानी दीदी.

( चित्र गूगल से साभार)

28.2.10

छाना राजा...

सभी को होली के शुभ अवसर पर भांग की ठंडाई, एक बीड़ा मस्त बनारसी मगही पान और ढेरों शुभकामनाएँ
मेरी कामना है कि आप सपरिवार होली की मस्ती में यूँ डूब जाएँ कि आस पास की लहरों को भी पता न चले.



छाना राजा...

काहे हौआ हक्का-बक्का !
छाना राजा भांग-मुनक्का !

पेट्रोल, डीजल, दाल, बढ़े दs
चीनी कs भी दाम बढ़े दs
आपन शेयर मस्त चढ़ल हौ
आपस में सबके झगड़े दs

देखा तेंदुलकर कs छक्का
काहे हौआ हक्का-बक्का !

रमुआं चीख रहल खोली में
आग लगे ऐसन होली में
कहाँ से लाई ओजिया-गोजिया
प्राण निकस गयल रोटी में

निर्धन कs नियति में धक्का
काहे हौआ हक्का-बक्का !

भ्रष्टाचार बढ़ल, बढ़े दs
शिष्टाचार मिटल, मिटे दs
बीच बजरिया नामी नेता
छमियाँ के रगड़े, रगड़े दs

घड़ा पाप कs फूटी पक्का
काहे हौआ हक्का-बक्का !

21.2.10

फागुन का त्यौहार

फागु का त्यौहा
जले होलिका भेदभाव की, आपस में हो प्यार
तब समझो आया है सच्चा, फागुन का त्यौहार
हो जाएँ सब प्रेम दीवाने
दिल में जागें गीत पुराने
गलियों में सतरंगी चेहरे
ढूँढ रहे हों मीत पुराने
अधरों में हो गीत फागुनी, वीणा की झंकार
तब समझो आया है सच्चा, फागुन का त्यौहार
बर्गर, पीजा, कोक के आगे
दूध, दही, मक्खन को खाये !
कान्हां की बंसी फीकी है
राधा को मोबाइल भाये !
इन्टरनेट में शादी हो पर, रहे उम्र भर प्यार
तब समझो आया है सच्चा, फागुन का त्यौहार
अपने सोए भाग जगाएँ
दुश्मन को भी गले लगाएँ
जहाँ भड़कती नफ़रत-ज्वाला
वहीं प्रेम का दीप जलाएँ
भंग-रंग पर कभी चढ़े ना, महंगाई की मार
तब समझो आया है सच्चा, फागुन का त्यौहार.

14.2.10

भांग में बहुत मजा हौ



महाशिवरात्रि के दिन 'बाबा' का दर्शन कर लौट रहा था. सुबह से बारिश हो रही थी और पूरी तरह भींग चुका था. गोदौलिया चौराहे पर एक मित्र मिल गया. वह जानता था कि मैं कविता लिखता हूँ और शतरंज भी खेलता हूँ. वह मुझसे भांग और ठंडाई पीने का अनुरोध करने लगा. मैं घबड़ा गया. बोला, " यह तो संभव ही नहीं है. भांग मुझे सूट नहीं करता." वह नहीं माना, मुझे जबरदस्ती ठंडाई की दुकान पर ले गया. भांग खिलाई, ठंडाई पिलाया और जो कहा वह हू-ब-हू यहाँ लिख रहा हूँ. आशा है आपको मजा आयेगा, बनारस की मस्ती और काशिका बोली से रू-ब-रू होने का अवसर मिलेगा. प्रस्तुत है कविता - भांग में बहुत मजा हौ. आप चाहें तो भांग छानकर भी 'वेलेंटाइन' का मजा ले सकते हैं.


भांग में बहुत मजा हौ




भांग छान के जब लिखबा तs लिखबा ऊँची चीज

जबरी खिलाइब भांग रजा तू हौवा ऊँची चीज

सुतबा तs सुतले रह जइबा उठबा तs नचबा राजा

उड़बा नील गगन में जा के परियन से मिलबा राजा



भांग में बहुत मजा हौ.



खेलबा जब शतरंज तs चलबा घोड़ा साढ़े तीन

हार के पाकिस्तानी भगलन अब पटकाई चीन

तोहरे मन शहनाई बाजी भौजी के लागी बीन

देर रात तक खेलबा तs पटकाई खाली टीन



भांग में बहुत मजा हौ.



लइकन के महतारी तोड़ी तू उनके पुचकरबs

उठा के गोदी बहुत प्यार से उनसे जब ई पुछबs

केकर बेतवा हौवा बोला पापा क कि अम्मा कs

तोहार नाम केहू ना लेई बोलिहैं खाली अम्मा कs



भांग में बहुत मजा हौ. ..

7.2.10

वेलेन टाइन


आज दिल्ल्ली के प्रगति मैदान में लगे पुस्तक मेले में घूम रहा हूँ। यहाँ कोई साथी हों तो मुझसे हिंद-युग्म के बुक स्टाल नंबर -२८५ में संपर्क कर सकते हैं। प्रस्तुत है आज की कविता 'वेलेंटाइन' जो हिंद-युग्म में प्रकाशित है और जिसे मैंने कल संपन्न हुए 'संभावना डाट काम' पुस्तक के लोकार्पण समारोह में सुनाया था। प्रस्तुत कविता काशिका बोली में हास्य-व्यंग शैली में लिखी गयी है। काशी क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली 'काशिका बोली' के नाम से जानी जाती है। काशिका बोली 'भोजपुरी' का ही एक रूप है।


वेलेन टाइन

बिसरल बंसत अब तs राजा

आयल वेलेन टाइन ।

राह चलत के हाथ पकड़ के

बोला यू आर माइन ।

फागुन कs का बात करी
झटके में चल जाला
ई त राजा प्रेम क बूटी
चौचक में हरियाला

आन क लागे सोन चिरैया
आपन लागे डाइन
बिसरल बसंत अब तs राजा
आयल वेलेन टाइन।

काहे लइका गयल हाथ से
बापू समझ न पावे
तेज धूप मा छत मा ससुरा
ईलू--ईलू गावे

पूछा त सिर झटक के बोली
आयम वेरी फाइन।
बिसरल बंसत अब तs राजा
आयल वेलेन टाइन।

बाप मतारी मम्मी-डैडी
पा लागी अब टा टा
पलट के तोहें गारी दी हैं
जिन लइकन के डांटा

भांग-धतूरा छोड़ के पंडित
पीये लगलन वाइन।
बिसरल बंसत अब तs राजा
आयल वेलेन टाइन ।

दिन में छत्तिस संझा तिरसठ
रात में नौ दू ग्यारह
वेलेन टाइन डे हो जाला
जब बज जाला बारह

निन्हकू का इनके पार्टी मा
बड़कू कइलन ज्वाइन।
बिसरल बसंत अब त राजा
आयल वेलेन टाइन।