.....यादें उन स्वप्नों की जो अनदेखे दिख गए थे अपने शैशव काल में, यादें उन संकल्पों की जो मंदिर की घट्टियों की गूँज बनकर रह गईं, यादें उन दिवास्वप्नों की जो यथार्त की धरातल पर कभी खरी नहीं उतरीं। यादें उन मित्रों की जो बहुत करीब से होकर गुजर गए। यादें ..अनगिन यादें।
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.......गोधुली बेला है। बैलों के गले में बंधी घंट्टियों की धुन बच्चे के कानों में पड़ती है। वह दौड़ा-दौड़ा आता है । माँ उसे दहक कर गोदी में उठा लेती है। वह खुशी के मारे चीखता है। खुशी ! इससे बड़ी खुशी की कल्पना भी उसके जेहन में नहीं है। वह औरत माँ को उसकी शरारत हंसते और शिकायत भरे स्वरों में सुना रही है। वह माँ को वह जगह दिखाती है जहाँ बच्चे ने काटा था। बच्चा गौर से देखता है। नंगे-तने स्तन को... जिसके निप्पल के चारों ओर नीला घेरा सा बना है , कुछ याद कर माँ के स्तन को छूता है। कई प्रश्न उसके बाल मन में कौंध जाते हैं। माँ और इस औरत के स्तन में इतना अन्तर क्यों है ? माँ के स्तन से इतना मीठा दूध आता है और इसके स्तन से नहीं ! क्यों ? फिर सब कुछ भूल जाता है। उसे माँ का स्तन ही अधिक अच्छा लगता है क्योंकि इससे मीठा दूध आता है। वह उस औरत को देखकर दांत चिढ़ाता है, ईं ...s...s..s...s...s.. ...!
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.....आनंद अचम्भित था हर बात पर । उसके बाल मन के आंगन मे एक पल सुबह तो दूसरे ही पल, शाम का आलम होता। चह-चह चहका करतीं अनगिन प्रश्न गौरैया और अपने प्रश्नों के उत्तर न पा भूखी-प्यासी, फुर्र-फुर्र उड़ जाया करतीं। मासूम आनंद, खूद से ही प्रश्न पर प्रश्न करता और जवाब के अभाव में कुंठित हो बड़ा होता जा रहा था। अब वह कुछ और बड़ा हो गया था। स्कूल जाने लगा था। स्कूल से लौटता तो कंधे और भारी प्रतीत होते प्रश्नों के बोझ से। कोई नहीं दे पाता उसके प्रश्नों के हल। पिता या बड़े भाइयों से पूछने का साहस नहीं था. संग-साथियों से पूछता तो वे भी हंस पड़ते। धीरे-धीरे उसका ह्रदय एक विशाल घोंसले में परिवर्तित हो चुका था जिसमें फुदका करती ...अनगिन प्रश्न गौरैया।
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......निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों की आशा का केंद्र यह अर्द्द-सरकारी विद्यालय, जहाँ अपने सामर्थ्य के अनुसार, नौनिहालों को शिक्षित कर रहा था, वहीं आनंद, धीरे-धीरे यहां के वातावरण से परिचित हो रहा था। आजादी के पहले से ही हमारे देश में अपने सामर्थ्य के अनुसार बच्चों को शिक्षित करने और अपने सामर्थ्य के अनुसार शिक्षा लेने का प्रचलन है ! गरीब अपने ढंग से, अमीर अपने ढंग से और मध्यम वर्गीय परिवार अपने ढंग से अपने-अपने बच्चों को शिक्षित करते है। यह अलग बात है कि सभी माँ-बाप अपने बच्चों में अपना और अपने देश का सुनहरा भविष्य तलाशते हैं। आजादी से पहले 'देश' आगे, 'अपना' पीछे-पीछे चलता था, आजादी के बाद 'देश' और 'अपना' हमसफर हो गए लेकिन अचानक से कब 'अपना' आगे हुआ और 'देश' पीछे छूट गया यह तो विचारक ही तय कर सकते हैं मगर आजादी के बाद भी शिक्षा की दशा और दिशा दोनो ही पूर्व परम्परा की तरह नीयति बन हमारे सामने विद्यमान है । सभी के लिए शिक्षा और शिक्षा का समान अवसर अभी भी दूर की कौड़ी है।
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...........पिता के आदेश पर श्रीकांत 10 पैसे का बर्फ लेने घर से निकलता (उन दिनों 10 पैसे में गमछे में बांधे जा सकने वाले गट्ठर के बराबर बर्फ मिल जाया करता था) और आनंद के दरवाजे से होकर गुजरता। न केवल गुजरता बल्कि आवाज देता-"आनंद चलो बर्फ लेने।" आनंद को तो मानो इसी पल का इंतजार होता, "अभी आया", कहते हुए दौड़ पड़ता । गर्मियों में प्रायः लोग इमली के बीयें गलियों में फेंक दिया करते थे। "चलो यार, पहले चीयाँ बीनते हैं फिर बर्फ खरीदेंगे।" "चलो"- प्रस्ताव पास हो जाता। दोनो गली-गली घूम कर इमली के बीये बीनने में जुट जाते। दस मिनट का फासला घंटे-आध घंटे में तय कर वे दुकान तक पहुंचते। खूब मोलभाव कर बर्फ का टुकड़ा गमछे में बांधने के पश्चात चीखते, "घलुआ नहीं दोगे ?" दुकानदार बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़े दोनों के हाथों में रख देता जिसे मुंह में दबाए घर की ओर मुड़ जाते। कभी तो सीधे घर आ जाते और ठंडे शरबत का मजा लेते कभी घर पहुंचने से पहले पुनः गलियों का चक्कर लगाने लगते। इमली के बीयें का एक गट्ठर बना, घर की ओर लौटते। घर पहुँचने तक बर्फ गल चुका होता ! बर्फ के स्थान पर इमली के बीयों का गट्ठर !! होश तब आता जब श्रीकांत के पिता फागू महराज हाथों में पंखा लिए दौड़ाते..."पंखे चा डांडि दौं साड़े ला"
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याहं हो वहां हो कहीं भी हो बस यादों का तारतम्य टूटना नहीं है !
ReplyDeleteआप इतने विस्तार से लिखते हैं कि जैसे कल की बात हो। बहुत अच्छे से संजो कर रखी हैं यादें। आपको सपरिवार नये साल की हार्दिक शुभकामनायें।
ReplyDeleteअननद की यादें ....अच्छी पेशकश
ReplyDeleteयह शृंखला मुझे प्रिय है। पहला पैरा ही था जिसने मोह लिया और फिर मैं बँध गया।
ReplyDeleteदिलचस्प.........दूसरे ओर अंतिम पैरे में इतनी निश्चलता है .....जारी रखिये ....
ReplyDeleteबच्चों की उत्सुकता, उत्श्रंखलता और उद्दण्डता, तीनों ही है इसमें।
ReplyDeleteआनंदमयी यादें,आभार.
ReplyDeleteशानदार...बधाई
ReplyDeleteनए साल की हार्दिक शुभकामनाएं.
जय श्री कृष्ण...आपका लेखन वाकई काबिल-ए-तारीफ हैं....नव वर्ष आपके व आपके परिवार जनों, शुभ चिंतकों तथा मित्रों के जीवन को प्रगति पथ पर सफलता का सौपान करायें .....मेरी कविताओ पर टिप्पणी के लिए आपका आभार ...आगे भी इसी प्रकार प्रोत्साहित करते रहिएगा ..!!
ReplyDeleteरोचक , इमली के बीज वाला किस्सा गजब है !
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