........................
मैं अक्सर सर्पों के झांसे में आ जाता हूँ
जब लिपटते हैं
समझता हूँ
बहुत प्यार करते है मुझसे
जब डंसते हैं
काठ हो जाता हूँ
और तुम्हें मेरे दर्द का जरा भी एहसास नहीं होता !
कितनी सहजता से मान लेते हो
सज्जन विष व्यापत नहीं.....!
सर्प से डरते हो
दूध पिलाते हो
मेरी तारीफ करते हो
घिसकर
ललाट पर सजाते हो !
कितनी चतुराई से जान लेते हो
चंदन शीतल लेप....!
और मैं
सह लेता हूँ चुपचाप
तुम्हें भी
वैसे ही
जैसे सहता आया हूँ
सर्पदंश ।
सच कहूँ
तो किसी भी विषधर से
भारी है
तुम्हारा यह
दोहरा चरित्र ।
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मैं अक्सर सर्पों के झांसे में आ जाता हूँ
जब लिपटते हैं
समझता हूँ
बहुत प्यार करते है मुझसे
जब डंसते हैं
काठ हो जाता हूँ
और तुम्हें मेरे दर्द का जरा भी एहसास नहीं होता !
कितनी सहजता से मान लेते हो
सज्जन विष व्यापत नहीं.....!
सर्प से डरते हो
दूध पिलाते हो
मेरी तारीफ करते हो
घिसकर
ललाट पर सजाते हो !
कितनी चतुराई से जान लेते हो
चंदन शीतल लेप....!
और मैं
सह लेता हूँ चुपचाप
तुम्हें भी
वैसे ही
जैसे सहता आया हूँ
सर्पदंश ।
सच कहूँ
तो किसी भी विषधर से
भारी है
तुम्हारा यह
दोहरा चरित्र ।
..........................................
.....सच कहूँ
ReplyDeleteतो किसी भी विषधर से
भारी है
तुम्हारा यह
दोहरा चरित्र ।
sampurn kavita ka saar shayad inhi chand panktiyon main simat aaya hai ,
sunder rachna hetu abhaar.
दोहरापना...बहुत खतरनाक होता है साहब...
ReplyDeleteउत्तम...
ReplyDeleteक्या कहूँ, इतनी गहरी कविता। बार बार पढ़ा उनको जो चिपके रहते हैं व्यक्तित्व में, ऐसे विचार भी।
ReplyDeleteझांसे में फँस जाता हूँ
ReplyDeleteजब लिपटते हैं
समझता हूँ
बहुत प्यार करते है मुझसे
आज तो आपने अज्ञेय जी की कविता
सांप
की याद ताजा कर दी .. कविता सार्थक है ....
.सच कहूँ
ReplyDeleteतो किसी भी विषधर से
भारी है
तुम्हारा यह
दोहरा चरित्र
क्या बात है !
बेहतरीन अंश है ये कविता का
पहली पंक्ति से अंतिम पंक्ति तक एक सशक्त कविता
ek shashakt rachna...:)
ReplyDeletedohre charitra ko shabdo me bandh diya..!
लेकिन सबकुछ जान कर भी चुपचाप यह दो मुहांपन सहते रहना चन्दन के बस की ही बात है .....इसीलिये वह चन्दन भी है .....
ReplyDeleteभावपूर्ण मर्मस्पर्शी रचना सदैव की भांति...
ReplyDeleteभावोद्गार के लिए सुन्दर बिम्ब प्रयोग किया है आपने...
बड़ी प्रभावशाली बन पडी है रचना...
एक निवेदन करना चाहूंगी...
"मैं अक्सर सर्पों के झांसे में फँस जाता हूँ"
इस पंक्ति में झांसे में फंसना,थोडा सा खटका..."झांसे में आना" प्रयोग ही आजतक सुना है न,हो सकता है इसलिए यह लग रहा हो...परन्तु यहाँ यदि
"मैं अक्सर सर्पों के झांसे में आ जाता हूँ " भी व्यवहृत हो ,तो संभवतया ठीक ही लगेगा..नहीं ???
देख लीजियेगा...कोई आवश्यक नहीं की सुझाव माना ही जाए...
दोहरा चरित्र वाकई में विष से ज्यादा खतरनाक होता है....
ReplyDeleteविषधर का चरित्र तो दोहरा नहीं होता है। वह तो जग जाहिर होता है कि उस में विष है। लेकिन यहां तो विषहीन नजर आने वाले अपने में इतना जहर भरे रहते हैं कि बस .......।
ReplyDeleteवाह क्या बात कही हे, वेसे आज कल ऎसा ही होता हे, धन्यवाद
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी,
ReplyDeleteसुभानाल्लाह......वाह.....बेहतरीन....बिम्बों के सहारे आप बहुत गहरी बात कह गयें हैं जनाब....जो दिख रहा है उससे तो बचने का उपाय भी है.....दोहरों का कोई इलाज भी तो नहीं....बहुत खूब|
क्या बात है! आज कल आप एक से बढ़कर एक मोती पेश कर रहे हैं !
ReplyDeleteबेहतर ख्याल , बेहतर कविता !
देवेन्द्र भाई, कविता पढ़कर वाह-वाह निकल रही है मुंह से, बरबस ही। बहुत अच्छी कविता लगी।
ReplyDeleteसुन्दर रचना.आदमी बेहद खतरनाक जानवर है,डरकर दूध पिलाता है और जिससे डर नहीं उसको चाहे जैसे भी उपयोग करता है.
ReplyDeleteसच कहूँ
ReplyDeleteतो किसी भी विषधर से
भारी है
तुम्हारा यह
दोहरा चरित्र...
.दुमुहें चरित्र का सुन्दर बिम्ब ... सर्प दंश से भी घातक है यह ......
..बहुत अच्छी रचना..
@रंजना जी..
ReplyDeleteआपकी बात सोलह आने सही है। झांसे में आना भी झांसे में फंसना ही है । बेहतर है मुहावरे का सही प्रयोग किया जाय। कविता लिखते वक्त मुहावरे पर तनिक भी ध्यान नहीं गया। मन से पढ़ने और सुझाव देने के लिए आपका आभारी हूँ।
@प्रेम बल्लभ पाण्डेय जी....
आपने एकदम सही लिखा। इसी सामाजिक परिदृष्य ने इस कविता को
जन्म दिया। एक ओर हम डरकर दुष्टों का सम्मान करते हैं दूसरी ओर सज्जन का मनचाहा दोहन करने में तनिक भी संकोच नहीं करते।
"किसी भी विषधर से
ReplyDeleteभारी है
तुम्हारा यह
दोहरा चरित्र । "
सुन्दर अभिव्यक्ति.
दोहरे चरित्र को रेखांकित करती यह कविता काफ़ी प्रभावशाली है।
ReplyDeleteवाह देवेन्द्र जी ,
ReplyDeleteआपमें अब आशु कवि प्रखरता प्रगट है
आप दुहरे चरित्र के साथ अब दुहरी राष्ट्रीयता को भी अपने काव्य से संस्पर्शित करें !
सच कहूँ
ReplyDeleteतो किसी भी विषधर से
भारी है
तुम्हारा यह
दोहरा चरित्र ।..
...वाह क्या कहनें हैं.
बहुत ही महीन व्यंग्य, अच्छा लगा।
ReplyDeleteBahut,bahut gahan rachana hai!
ReplyDeleteGantantr diwas kee hardik badhayi!
सच कहूँ
ReplyDeleteतो किसी भी विषधर से
भारी है
तुम्हारा यह
दोहरा चरित्र ।..
...वाह क्या बात कही हैं..सुन्दर अभिव्यक्ति...
सज्जन विष व्यापत नहीं
ReplyDeleteचंदन शीतल लेप
इन दो अभिव्यक्तियों के माध्यम से बहुत ही सशक्त प्रस्तुति दी है देवेन्द्र भाई| बधाई|
सच कहूँ
ReplyDeleteतो किसी भी विषधर से
भारी है
तुम्हारा यह
दोहरा चरित्र ।
बहुत सटीक टिप्पणी..बहुत सुन्दर प्रस्तुति.
वाह ... कमाल की रचना ... चंदन के माध्यम से यथार्थ को लिख दिया है देवेन्द्र जी ... बहुत बधाई ..
ReplyDeleteऐसे कितने ही दोहरे और दोगले चरित्र वालों के दंश सहते हुये जी रहे हैं हम!! पाण्डे जी चमत्कार है शब्दों का.
ReplyDeleteटंकण त्रुटिः
घीसकर = धिसकर
कितनी चतुराई जान लेते हो = कितनी चतुराई से जान लेते हो
सम्वेदना के स्वर...
ReplyDeleteधन्यवाद । इतनी बार पढ़ा लेकिन ध्यान नहीं गया। कमाल है!
दोहरा चरित्र वाकई में विष से ज्यादा खतरनाक होता है|
ReplyDeleteचीज़ों को देखने का आपका नजरिया नायाब है. बहुत गहरी कविता.
ReplyDeleteवाह ! वाह ! वाह !.... लाजवाब .बहुत सटीक टिप्पणी
ReplyDeletemein mukti ji se bilkul sehmat hoon devendra ji.
ReplyDeleteapka nazariya sachmuch behad nayab hai.
badhai.
काफी संशोधन हो चुके हैं , सुन्दर बनाते हुए !
ReplyDeleteदोहरे चरित्र पर , उसके आश्रय पर , बढ़िया सोचा है आपने !
ReplyDeleteवाकई यह विष दन्त बड़े मीठे दिखते हैं ....
मगर वे अपना कार्य कर रहे हैं और करते भी रहेंगे देवेन्द्र !
आपकी नियति है इनका जहर झेलते जाना और उसके बावजूद जीने का प्रयत्न करना उनके लिए , जो आपको प्यार करते हैं और जिन्हें आपकी जरूरत है !
शुभकामनायें !
कितनी सहजता से मान लेते हो
ReplyDeleteसज्जन विष व्यापत नहीं.....!
सच कहा आज आदमी का चरित्र किसी विशधर से कम नही। बेहतरीन रचना के लिये बधाई।
यथार्थ कों चित्रित करती इस बेहतरीन कविता के लिए बधाई।
ReplyDeletedono apani aadat se lachhar.....badhai ho.
ReplyDeleteसत्य वचन, बहुत अच्छी लगी कविता
ReplyDeleteसुन्दर! अच्छा लिखा।
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