आवा राजा चला उड़ाई पतंग ।
एक कन्ना हम साधी
एक कन्ना तू साधा
पेंचा-पेंची लड़ी अकाश में
अब तs ठंडी गयल
धूप चौचक भयल
फुलवा खिलबे करी पलाश में
काहे के हौवा तू अपने से तंग । [आवा राजा चला...]
ढीला धीरे-धीरे
खींचा धीरे-धीरे
हम तs जानीला मंझा पुरान बा
पेंचा लड़बे करी
केहू कबले डरी
काल बिछुड़ी जे अबले जुड़ान बा
भक्काटा हो जाई जिनगी कs जंग । [आवा राजा चला...]
केहू सांझी कs डोर
केहू लागेला अजोर
कलुआ चँदा से मांगे छुड़ैया
सबके मनवाँ मा चोर
कुछो चले नाहीं जोर
गुरू बूझा तनि प्रेम कs अढ़ैया
संझा के बौराई काशी कs भंग। [आवा राजा चला...]
एक कन्ना हम साधी
एक कन्ना तू साधा
पेंचा-पेंची लड़ी अकाश में
अब तs ठंडी गयल
धूप चौचक भयल
फुलवा खिलबे करी पलाश में
काहे के हौवा तू अपने से तंग । [आवा राजा चला...]
ढीला धीरे-धीरे
खींचा धीरे-धीरे
हम तs जानीला मंझा पुरान बा
पेंचा लड़बे करी
केहू कबले डरी
काल बिछुड़ी जे अबले जुड़ान बा
भक्काटा हो जाई जिनगी कs जंग । [आवा राजा चला...]
केहू सांझी कs डोर
केहू लागेला अजोर
कलुआ चँदा से मांगे छुड़ैया
सबके मनवाँ मा चोर
कुछो चले नाहीं जोर
गुरू बूझा तनि प्रेम कs अढ़ैया
संझा के बौराई काशी कs भंग। [आवा राजा चला...]
बचपन की याद दिला दी जब गाँव में कुछ इसी तरह से हमलोग भी खेला करते थे . अच्छी रचना
ReplyDeleteवाह भइया वाह,गजब, आज त असली मज़ा आय गय इ कविता में.
ReplyDeleteजिया हो राजा देवेंदर पाँड़े!! कमाल के पेंच लगवले हऊआ!! एक दम ईर, बीर,फत्ते वाला मजा आए गईल!!
ReplyDeleteक्या बात है देवेंद्र जी
ReplyDeleteमज़ा आ गया , ये ज़बान पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ,बहुत दिनों बाद इस के दर्शन हुए
काल बिछुड़ी जे अबले जुड़ान बा
भक्काटा हो जाई जिनगी कs जंग । [आवा राजा चला...]
वाह !
भईया वाह का बात बा हो, गजब लिखे है भईया जी , बधाई ।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर,बहुत ही देशज,एकदम चकाचक बनारसी कवित्व.....
ReplyDeleteमजा आय गयल ....."संझा के बौराई काशी कs भंग।".
ReplyDeleteपतंग उड़ाते समय यह गाना, माहौल इससे अच्छा हो ही नहीं सकता है।
ReplyDeleteढीला धीरे-धीरे
ReplyDeleteखींचा धीरे-धीरे
.....हम तs जानीला मंझा पुरान बा
पेंचा लड़बे करी
केहू कबले डरी
काल बिछुड़ी जे अबले जुड़ान बा...............
बहुत ही सुंदर,
बधाई ।
देवेन्द्र जी,
ReplyDeleteठेठ देशी इस्टाइल में यह पोस्ट.....मजा आ गईल.....बहुता बढ़िया.....जे बवस्था हुई जाये तो का बात है...कन्कौव्वा का मजा दुगुना हुई जाये.....
बनारस की बोली.....बनारसी पान की तरह है ....और क्या कहूँ.....बढ़िया
kya baat hai sir...ek dum se bachpan ka drishya aankho ke samne aa gaya...:)
ReplyDeletebahut khub!!
एही के देर रहल, मजा आय गयल...
ReplyDeleteबहुत दिना के बाद सुनली, 'छुड़ैया'
आप मुझे वापस घर ले गए कुछ देर के लिए, अच्छा लगा ये पढना, आभार।
कुछ बुझात ना.
ReplyDeleteपेंचा लड़बे करी
ReplyDeleteकेहू कबले डरी
काल बिछुड़ी जे अबले जुड़ान बा
भक्काटा हो जाई जिनगी कs जंग
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..
देवेन्द्र भाई, बडा मस्त गीत है, मजा आ गया।
ReplyDelete---------
ज्योतिष,अंकविद्या,हस्तरेख,टोना-टोटका।
सांपों को दूध पिलाना पुण्य का काम है ?
आपने पढते हुए मैंने खुद को कन्ना बांधते हुए महसूस किया :)
ReplyDeleteआपने = आपको
ReplyDeleteएक कन्ना हम साधी
ReplyDeleteएक कन्ना तू साधा
अनगिनत अर्थ लिए हुए हैं यह साधारण सी लगने वाली पंक्तियाँ । इस गीत को पढ़ते हुए इसकी भाषा की खनक सुनाई दे रही है ।
जिय राजा गुलजारगंज -काहों पाण्डे जी फगुनहट का शंखिया फूक दिहा काहो !
ReplyDeleteढीला धीरे-धीरे
ReplyDeleteखींचा धीरे-धीरे
हम तs जानीला मंझा पुरान बा
पेंचा लड़बे करी
केहू कबले डरी
काल बिछुड़ी जे अबले जुड़ान बा...
वाह देवेन्द्र जी वाह ... क्या गज़ब की रचना है ... लोक गीत की याद आ गयी ... बहुत बढ़िया .....
खूबे पतंग उडवल राजा
ReplyDeleteदिल के आज जुड्वल राजा
जीव ब्रह्मके जोड़ देखवल।
भक्काटे के छोड़ दिखवल॥
इहे सत्य ह सब जानेला ।
माया में मन कब मानेला ॥
मंझा के चमकाव राजा ।
तब्बे बाजी यश के बाजा ॥
बाक़ी -
घाल मेल तू कइले बाट।
कवन राह तू धइले बाट ॥
भोजपुरी में भिडल काशिका ।
बचा के रख्खा सजग नासिका ॥
बाक़ी भाव अनूठा लागल ।
कविताई कई दिहलस पागल ॥
कंचन जी..
ReplyDeleteवाह! आखिर तौआ गइला न !मजा आ गयल । लेकिन एक बात बतावा..
आपस में तालमेल न होई त चली का ?
काशिका भोजपुरी से न सटी त चली का ?
काशिका भोजपुरी कs एक विधा हौ
ऐहसे एकर कौनो मान घटी का ?
भाषा प्यारी है भाई.
ReplyDeleteye kun si bhaashaa hai? pooree samajh nahee aayee . shubhakaamanaayen.
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