7.5.11

पंछी प्रश्न


आधियों ने गिराये
किचन गार्डेन में लगे
अकेले आम के वृक्ष से
ढेर सारे टिकोरे

मैने हंसकर कहा...
कुदरती खेल।

चिड़ियाँ
कुतर रही हैं
पक रहे
कुछ आम

ये वही हैं
जिन्हें
रोज देता हूँ दाना-पानी !

अब नहीं कह पाता
कुदरती खेल
क्रोध आता है इन पर
उड़ा देता हूँ

दूर जाकर
जोर-शोर से चीखती हैं....

दाना-पानी देकर
हम पर एहसान करते हो ?
आँधियों का दंश
क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
पक रहे फलों पर
क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?

.........................

41 comments:

  1. दाना-पानी देकर
    हम पर एहसान करते हो ?
    आँधियों का दंश
    क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
    पक रहे फलों पर
    क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?
    सोचने को मजबूर करती बहुत भावपूर्ण रचना...

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  2. दाना-पानी देकर
    हम पर एहसान करते हो ?
    आँधियों का दंश
    क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
    पक रहे फलों पर
    क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?
    sach hi to kahti hai...

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  3. YE TO SACH HAI KI PARKRTI PAR HAR EK JEEV KAP ADHIKAR HAI. . . . . . . JAI HIND JAI BHARAT

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  4. बिल्‍कुल सच कहा है हर एक पंक्ति में ..

    बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  5. सोचने को मजबूर करती बहुत भावपूर्ण अभिव्‍यक्ति|

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  6. कमाल की कल्पना ....
    चिड़ियों की भाषा आज पहली बार समझ पाया और वाकई यह सच कह रही हैं ! हार्दिक शुभकामनायें देवेन्द्र भाई !

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  7. वाह क्या खूब ? मनुष्य को इतना तो दान पुन्य कर ही देना चाहिए !
    भला चिड़ियों के कुतरने से फलदारी वृक्ष का बोझ कभी कम हुआ है भला?
    कीचन =किचन

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  8. बेहद गहन …………सोचने को मजबूर करती है।

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  9. प्रकृति के फलों पर प्रकृति का अधिकार है, सबको सब मिले, समुचित।

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  10. बहुत ही सुन्दर .......सच है प्रकृति किसी में भेद नहीं करती.....शानदार |

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  11. दाना-पानी देकर
    हम पर एहसान करते हो ?
    आँधियों का दंश
    क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
    पक रहे फलों पर
    क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?


    एक गहन विचारणीय प्रश्न उठाती बहुत सुन्दर और सार्थक रचना..

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  12. सहज ही उस प्रश्न को आपने छुआ है जिसे मानव द्वारा प्रकृति पर विजय अभियान के प्रश्नचिह्न के रूप में देखा जाता है। संवेदना की बुहार में एक जरूरी बात!! शुक्रिया, कवि जी!!

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  13. पाण्डेय जी, आज तो आपने हमारी ऑंखें खोल दी हम तो पके फलों पर अपना अधिकार मानते थे .....

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  14. Sach...prakruti sabhee jeevon ke liye apna astitv bikhertee hai!

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  15. बहुत सही कहा है आपने....मनुष्य समझता है कुदरत का सब कुछ तेरे लिए ही है. यही उसकी भारी भूल है.

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  16. कुदरत को घर की लौंडी समझाने वाले मनुष्यों से "कुदरत" का वाजिब सवाल!!

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  17. संवेदनशील पोस्ट. नाज़ुक एहसासों में रची बसी पोस्ट...
    चिड़ियों के मार्फ़त आंधी-पानी झेलने के अधिकार का सही प्रश्न उठाया है आपने.....
    दाना-पानी देकर
    हम पर एहसान करते हो ?
    आँधियों का दंश
    क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
    पक रहे फलों पर
    क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?

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  18. आँधियों का दंश
    क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
    पक रहे फलों पर
    क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?

    बहुत ही सुन्दर एवं सार्थक लेखन के साथ विचारणीय भी ....

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  19. बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने लाजवाब रचना लिखा है जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!

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  20. सुंदर भाव से सजी आप की यह अति सुंदर रचना, धन्यवाद

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  21. दाना-पानी देकर
    हम पर एहसान करते हो ?
    आँधियों का दंश
    क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
    पक रहे फलों पर
    क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?
    संवेदनशील रचना ..गहन विचार

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  22. आप तो चिड़ियों की बातें भी समझ जाते हैं,बधाई है.

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  23. हम एक दूसरे की पीड़ा समझने लगें तो कितनी समस्‍याएं हल हो जाएं।

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  24. @पक रहे फलों पर
    क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?

    हम नहीं समझें तो
    मानवता पर धिक्कार है!

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  25. अद्भुद!... सटीक...

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  26. बहुत कुछ कहती हुई कविता आगे बढ़ती है..इस अद्भुत रचना के लिए जितनी तारीफ़ करे कम है..एक नई ढंग की कविता वाकई सच कहती हुई....मानव को सोचना होगा...कविता के लिए हार्दिक बधाई..मातृदिवस की शुभकामना

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  27. बहुत खूब ... इंसान अपने आपको महान समझता है ... पेड़ पाल कर सोचता है वो उसकी जागीर है ...

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  28. सच बात है, हम सुनते तो और भला था वरना प्रश्न तो वहीँ रहा है युगों से।

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  29. प्रभावी अभिव्यक्ति......
    सच चिड़ियों को दाना दे कर कोई अहसान नहीं करते अपितु उनकी चहचहाट से मन प्रसन्न कर लेते हैं ....सादर!

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  30. अंतिम पंक्तियों में आपने जो परिस्थितियां और प्रश्न रखे...मेरा मन उससे एक कदम आगे बढ़ इस बात पर चीत्कार उठता है जब निरीह पशु,पक्षियों या किसी भी जीव के मनुष्य द्वारा अकारण ( खाने के लिए) प्राण हारते देखती हूँ...

    यही प्रश्न व्यथित करता है कि क्या यह संसार केवल मनुष्यों के लिए है..यहाँ रहने और जीने ,सुखी होने का अधिकार अन्य प्राणियों का नहीं है....

    मन को झकझोर गयी आपकी रचना....

    साधुवाद विषय को सार्थक ढंग से उठाने के लिए...

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  31. सच ही तो कहती है बेचारी चिडियां और सच ही कहती है बेचारी जनता। सारे फलों पर चंद लोगों का अधिकार

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  32. देवेन्द्र जी, आपकी रचनाएँ अनुभव के बेहद करीब होती है .सजीव अच्छा लगता है पढ़ना

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  33. पके हुए फलों पर क्या तुम्हारा ही अधिकार है .सुन्दर प्रस्तुति ,सूक्ष्म का अन्वेषण करती पारखी दृष्टि .

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  34. शायद पहली बार आया हूँ, लेकिन आ कर अच्छा ही लगा. प्रकृति को हम बचा सकें तो हम भी बचेंगे ही. मगर लोग समझे तब तो.. बहरहाल;, कविता ने अपना काम किया है. जगाने का.

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  35. आँधियों का दंश
    क्या मनुष्य ही झेलते हैं ?
    पक रहे फलों पर
    क्या तुम्हारा ही अधिकार है ?
    कविता के माध्यम से वाज़िब प्रश्न उठाया। शुभकामनायें।

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  36. दर-असल आजकल हम अपना माल कम पराया ज़्यादा उड़ाने के आदी जो हो गए हैं.दूध,शहद,फल और न जाने क्या-क्या हम उपभोग कर रहे हैं,पर कुछ सीमा तो बांधनी होगी !

    भाई,अब तो चिड़िया का ही अस्तित्व संकट में है,उसके राशन की तो बात छोडो !

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  37. हर जीव [पशु ,पक्षी अथवा मनुष्य ] जिसका अधिकार मारा जाता है वो यूँ ही चीख चीख कर कुछ कहना चाहता है ...लेकिन अब लोग बहरेपन से ग्रस्त हैं शायद।

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  38. संवेदनशील मन के कोमल भावों और कमाल की कल्पना की उपज है ...आपकी सुन्दर रचना
    चिड़ियों का पूरे अधिकार से झगड़ना...........वाह , क्या कहना !

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  39. और क्या आशा कर सकते है इन इंसानों से आजकल तो इससे भी बुरा कर रहे है लोग

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  40. अच्छा लिखा है।

    राहत इन्दौरी की एक गजल याद आ गयी:

    सभी का खून शामिल है यहां की मिट्टी में
    किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है।

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