पिछली पोस्टों में गंगा के चित्र दिखाते-दिखाते राजा चेतसिंह के किले की कुछ तश्वीरें दिखाई । इन तश्वीरों को देखते हुए मुझे स्व0 शिवप्रसाद मिश्र 'रूद्र' की 'बहती गंगा' की याद हो आई। आप ने नहीं पढ़ी हो तो अवश्य पढ़ लें। राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, 731, दरियागंज, नई दिल्ली से प्रकाशित इस उपन्यास का परिचय इसी पुस्तक में बच्चन सिंह के माध्यम से इस प्रकार से दिया हैः इस उपन्यास में काशी के दो सौ वर्षों (1750-1950) के अविच्छिन्न जीवन-प्रवाह को अनेक तरंगों में प्रस्तुत किया गया है। प्रत्येक तरंग(कहानी) अपने- आप में पूर्ण तथा धारा-तरंग-न्याय से दूसरी से संबद्ध भी है। ....इसका धन्यार्थ यह भी है कि तमाम विसंगतियों में भी इतिहास की धारा निरन्तर आगे की ओर प्रवहमान है। गंगा के इस प्रवाह में तैरते हुए काशी की मस्ती, बेफिक्री, लापरवाही, अक्खड़ता, बोली-बानी का अपना रंग है।
इसी उपन्यास से एक तरंग (कहानी) पढ़ाने का मोह जगा तो इसे यहाँ टंकित किये दे रहा हूँ। यह कहानी आपको तत्कालीन राजनैतिक स्थिति का आभास देने के साथ-साथ काशी वासियों के जीवन में गहराई से घुले पिंगल वाणी (तीखे कटाक्ष) और इस पिंगल की वज़ह से उत्पन्न होने वाले हाहाकारी हास्य की प्राचीन परंपरा से भी अवगत कराती है। ध्यान से पढ़ें तो इस कहानी में बहुत आनंद है। प्रस्तुत है कहानी....
"का गुरू ! पालागी !" लोटन बहेलिये ने नागर गुरू को कबीर चौरा की ओर से आते देख हाथ जोड़कर कहा।
इसी उपन्यास से एक तरंग (कहानी) पढ़ाने का मोह जगा तो इसे यहाँ टंकित किये दे रहा हूँ। यह कहानी आपको तत्कालीन राजनैतिक स्थिति का आभास देने के साथ-साथ काशी वासियों के जीवन में गहराई से घुले पिंगल वाणी (तीखे कटाक्ष) और इस पिंगल की वज़ह से उत्पन्न होने वाले हाहाकारी हास्य की प्राचीन परंपरा से भी अवगत कराती है। ध्यान से पढ़ें तो इस कहानी में बहुत आनंद है। प्रस्तुत है कहानी....
घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन
"का गुरू ! पालागी !" लोटन बहेलिये ने नागर गुरू को कबीर चौरा की ओर से आते देख हाथ जोड़कर कहा।
"मस्त रहS!" नागर ने आशीर्वाद देते हुए लोटन के पीछे देखा कि पीठ पर हौदा लिए एक घोड़ा और ज़ीन-कसा एक हाथी खड़ा है। उन्हें राजा के पच्चीस-तीस सिपाहियों ने घेर रखा है। उसने लोटन से पूछा, "का हाल-चाल हौ? ई कैसन तमासा बनउले हौअS?"
लोटन नागर के समीप बढ़ आया और हँसकर धीरे से बोला, "राजमाता कS हुकुम हौ, अउर का? सुनलS कि नाहीं, कम्पनी बहादुर भाग गैल?
नागर की उत्सुकुता बढ़ गई। उसने लोटन का हाथ थामकर, जहाँ आजकल ज्ञानमंडल-यन्त्रालय का भवन है, वहीं बने एक चबूतरे पर बिठा दिया। नगर में चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। दो दिन से तरह तरह की अफवाहें उड़ रही थीं। राजा चेतसिंह से जुरमाना वसूल करने के लिए वारेन हेस्टिंग्स स्वयं कल कलकत्ता से काशी आया था। राज्य की सेना अकर्मण्य होकर हाथ पर हाथ धरे बैठी थी और नगर-निवासी निरूत्साह थे।
चबूतरे पर बैठकर लोटन ने धीरे-धीरे धीमे स्वर में नागर को बताया कि सबके घबराए रहने पर भी राजमाता पन्ना ने अपना दिमाग कैसे ठीक रखा। ग़ली-ग़ली में लड़ाई के लिए उन्होने सब महाजनों को बुलाकर किस तरह अपने घरों में दस-दस, बीस-बीस सिपाही छिपा रखने के लिए राज़ी किया और किस तरह इन तैयारियों की खबर पाकर वारेन हेस्टिंग्स रातोंरात चुनार भाग गया ! हाथ की उँगली से सामने इशारा करते हुए उसने कहा, "अब न पता चलल, गुरू ! सहेबवा वही भूसा वाली कोठरी में लुकल रहल। जब हम ई खबर राजमाता के देहली त ऊ कहलिन कि बस यही मौका हौ। हाथी पर जीन कस दS अउर घोड़ा पर हउदा, जेम्में मालूम होय कि सहेबवा घबराय के भागल हौ। एतनै से बनारसिन के फेर जोस आय जाई। सुनSन गुरू, लड़िकवा का चिल्लात हौ अन ! अउर ओहर देखS लबदन सहुआ आपन बाल-बच्चा लेहले कहाँ जात हौ ! एसारे के हियाँ गइली त कहवाय देहलस कि घरे नाहीं हौअन। तनी पूछीं कि घरे नाहीं रहल तS अब आय कहाँ से गयल ?" लोटन चबूतरे से कूदा। नागर ने भी उसका अनुकरण किया।
इतने में बेलगाम घोड़े की तरह चंचल और गुलाब के फूल-सी रंगीन, छरहरी सहुआइन ने जेवरों की पिटारी और भी ज़ोर से बगल में दबाते हुए बिजली की तरह चमककर कहा, "मर किनौना !"
माँग और माथे पर सिन्दूर की मोटी-सी तह जमाए और सिर पर आवश्यक वस्त्रादि से भरी कम्बल की गठरी उठाए, हथिनि-सी भारी-भरकम बड़ी सहुआइन ने मेघगर्जन किया, "बज्जर परै !"
बड़ी सहुआइन के बीस-वर्षीय रोग-कातर पुत्र सुदीन और छोटी सहुआइन की नौ-वर्षीय पुत्री 'गौरा' ने क्षितिज के दो छोरों की तरह अपनी माताओं की प्रतिध्वनि की और 'तमाखू के पिंडा' उनके पिता लबदन साब 'रह तो जा, सारे' कहते हुए उन लड़कों पर बरस पड़े जो जुलूस बनाए जा रहे थे-
घोड़े पै हौदा औ हाथी पे ज़ीन
जल्दी से भाग गैल - !
सपरिवार सावजी इससे अधिक नहीं सुन सके। उन्होने समझा कि लड़के उन पर व्यंग्य कर रहे हैं, जेवर की पिटारी को हौदा और कम्बल को ज़ीन बताकर उनकी पत्नियों को घोड़ी और हथिनी कह रहे हैं। सावजी ने मन-ही-मन बिना सुने ही लड़कों के नारों की अधूरी पंक्ति भी पूरी कर ली थी। उन्हें विश्वास हो गया था कि 'जल्दी से भाग गैल' के बाद 'लबदन सुदीन' ही है। वह सचमुच घर छोड़ कर भाग भी रहे थे। व्यंग्य सोलह आने सही समझ कर उन्हें क्रोध हो आया। वह जुलूस में सबसे पासवाले एक छोटे-से लड़के पर हाथ का डंडा चला बैठे और एक हाथ चलाने के बाद चबूतरे पर टेक लेकर हाँफने लगे। लकड़ी आते देख लड़का छलका, फिर भी छोर छू जाने से छिलोर-सी लग गई। सावजी को पागल समझकर उधर लड़का हँसने लगा और इधर सावजी साँड की तरह डकराकर रो पड़े।
उनके गाल पर करारा तमाचा पड़ा था। हिलते हुए दो दाँत बाहर छिटक पड़े थे। मुँह से रक्त की क्षीण धारा-सी बह रही थी। उन्होने आँख उठाकर देखा कि नागर गूरू सामने खड़े पूछ रहे हैं, "लड़िका के काहे मरले ! बोल !"
"ए सारे से पूछS कि ई भागत काहे रहल ?" लोटन बहेलिये ने कहा।
लबदन साव विकट संकट में पड़े। आज उनकी सालगिरह क्या आई कि खासी 'गरह-दसा' आ गई। सवेरे से ही घर में जो किचकिच चली उसने साँझ होते-होते यह रंग दिखाया। उनका लड़का 'फिरंग रोग' से पीड़ित था। उसके मुँह में छाले पड़ गए थे। सावजी 'फिरंग रोग' का अर्थ नहीं जानते थे, परन्तु सन्देह करते थे कि यह रोग कैसा होता है और यह समझते थे कि है वह बहुत ही घृणित। इसलिए सवेरे आँख खुलते ही बेटे का मलिन मुख देख उनका जी खट्टा हो गया। उन्होने क्रोध से घूरते हुए बेटे को देखा। बेटे ने समझा कि पिता इशारे से उसका हाल पूछ रहे हैं। उसने विश्व की सारी करूणा अपनी मुख-मुद्रा में बटोरते हुए पिता की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए रूँधे हुए गले से कहा, "बाबू, थूकत नाहीं बनत; बड़ा कष्ट हौ।"
मन की सारी घृणा और क्रोध को पिघले सीसी-सी प्रतप्त वाणी में घोलते हुए बाप ने उत्तर दिया, "तोसे थूकत नाहीं बनत तS नाहीं सही। दुनियाँ तो तोरे मुँह पर थूकत हौ।"
बेटे ने जब यह जवाब सुना तो मुँह बनाकर वहाँ से हट गया। परन्तु उसकी जननी ने, जो पास ही बैठी मसाला पीस रही थी, इतनी ही बात पर महाभारत मचा दिया; ऐसे पैने-पैने वचन-बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी कि सावजी का कलेजा जर्जर हो उठा। उन्होने जलकर कहा, "कलमुँही, भैंस ! बिहाने-बिहाने काने के जड़ी चरचराए लगल।"
बड़ी सहुआइन ने भी उसी वज़न में जवाब दिया, "निगोड़ा, कुक्कुर, निरबसा, बिहाने-बिहाने लड़िका के कोसै लग गयल। जे बिहाने एकर नाँव ले ले, ओके दिन-भर अन्नकS दरसन न होय !"
बात कुछ अंश तक सही थी। साव के सूमपन के कारण वास्तव में लोग सवेरे उनका नाम नहीं लेते थे। इसीलिए सहुआइन की यह बात उनके कलेजे में बरछी की तरह चुभ गई। वर्षगाँठ का झमेला न होता तो वह कुछ उत्तम-मध्यम किए बिना कदापि न मानते । परन्तु पूजन के समय दोनों पत्नियों का साथ ग्रन्थि-बन्धन आवश्यक था। अतः बड़ी सहुआइन के मुँह फुलाने की आशंका से उनके हाथ-पैर फूल गए। उन्होंने कड़वे काढ़े-सा अपमान पीते हुए भी पत्नी को मनाना आरम्भ कर दिया। छोटी सहुआइन ने भी आकर सपत्नी को समझाया, "आखिर कहलन तS अपने बेटवा के न, कोई पराए के तो नाहीं ! जाए द !"
अन्ततः बड़ी सहुआइन शान्त हुई। घर का वातावरण पुनः साधारण हुआ। सावजी पूजा-पाठ के फेरे में पड़े। नगर में दो दिन से हड़ताल रहने के कारण बेचारे नवग्रह-पूजन और हवन सामग्री भी न मँगा पाए थे। पड़ोसियों से माँग-जाँचकर किसी तरह समान भी जुटाया तो पंडित ने पूजा करने आने से इन्कार कर दिया। कहला भेजा, "नगर की स्थिति ठीक नहीं है, राजा अपने ही महल में बंद हैं, मलिच्छों की सेना सड़क पर चक्कर लगा रही है। मैं ऐसा घनचक्कर नहीं कि चौखट के बाहर पैर रखूँ। यदि प्राण संकट में डालकर जाऊँ भी तो 'सीधा' तो डेढ़ दमड़ी का मिलेगा न !"
साव ने जो यह बात सुनी तो उनके भी छक्के छूट गए। वह स्वयं अनगढ़, अनवसर और बेहूदी वार्ता को ही खरी-खरी कहना समझते थे। उन्होंने जो पंडितजी का निखरा-निखरा सन्देश सुना तो खरा बोलने का हौसला पस्त हो गया। उधर छोटी सहुआइन को पंडित के उत्तर से अपना सौभाग्य-सूर्य अस्त हुआ प्रतीत हुआ। वह अस्त-व्यस्त हो उठीं। साव की तम्बाखू के पिंड-जैसी काली और स्थूल काया से आग की रेखा के समान सटते हुए उन्होंने गद्गद गले से कहा, "तोहई न रहबS तS धन रह के का करी ? दूसरा पंडित बोलावS।"
पाँच पैसे का 'सीधा' देने का वचन देने पर दूसरा पंडित आया। दोनों पत्नियों के साथ गाँठ बाँधकर साव ने सावधानी से मन्त्र पढ़ते, दक्षिणा के स्थान पर जल चढ़ाते, पूजा समाप्त की। हवन आरम्भ हुआ। घी की कमी से आग दहक नहीं रही थी। गौरा पंखे से आग सुलगा रही थी। सहसा चिनगारियाँ उसके हाथ और मुँह पर आ पड़ीं। सबके मुँह से सहानुभूतिसूचक ध्वनि हुई, परन्तु सावजी ने हँसते हुए छोह-भरी वाणी में कहा, "बिटिया, एक चिनगारी में तो तू धीरज छोड़ देहलू। जब सती होएके होई तब तू का करबू?"
पंडित हक्का-बक्का होकर साव का मुँह निहारने लगा। गौरा बिना कुछ समझे हँसने लगी, परन्तु उसकी माँ का जी जलने लगा। बाहरी आदमी के सामने लड़ तो नहीं सकती थी उसने झनककर साव के दुपट्टे से अपनी चादर की गाँठ खोल दी और चमककर खड़ी हो गई। साव भी अपनी भूल समझ गए, पर तीर हाथ से छूट चुका था। वह असहाय की तरह छोटी सहुआइन का मुँह निहारने लगे। बड़ी सहुआइन ने सौत का हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, "आखिर कहलन तS अपनै बिटिया के न ! कोई पराए के तS नाहीं जाए दS। और खुली गाँठ फिर से बाँध दी।
छोटी सहुआइन ने वक्र-दृष्टि से सौत को देखा, परन्तु कुछ बोली नहीं। हवन बिना और किसी दुर्घटना के समाप्त हो गया। परन्तु साव के सिर की गर्दिश अभी तक समाप्त न हुई थी। वह भोजन करने बैठे कि लोटन बहेलिये ने गली में से आवाज दी, "सावजी हो, हे लबदन साव !"
लबदन साव ने झरोखे से नीचे झाँका। देखा कि राजा चेतसिंह का अंगरक्षक लोटन बहेलिया ज़री की डोरी पड़ी और सोना-जड़ी कत्तीदार पगड़ी सिर पर रखे, हरा अंगरखा पहने, कमर में गुलाबी फेंटे से तलवार फँसाए, हाथ में फरसा लिए उन्हें आवाज़ दे रहा है। उन्होंने धीरे से गौरा को बुलाकर कहा, "बिटिया, कह दे, बाबू घरे नाहीं हौअन !" उसने सिर निकालकर पिता की बात दोहरा दी।
"लौटेंतS कह दिहे ड्योढ़ी पर आवैं। राजमाता कS हुक्म हौ।" बहेलिये ने कहा और पैर आगे बढ़ाया। राजमाता के इस सन्देश में साव को अनभ्र वज्रपात की ध्वनि सुनाई पड़ी। उन्हें आशंका हुई कि यह बुलाहट उनसे रूपया ऐंठने के लिए हुई है। वह चिन्ता में पड़ गए।
लबदन साव ने 'रामदाने कS लेडुआ पैसा में चार' की बानी बोलते हुए काशी की गलियों में घूम-घूमकर व्यापार आरम्भ किया था और कौड़ी-कौड़ी जोड़कर नखास पर हलवाई की दुकान खोली थी। ज्यों-ज्यों उनका उदर स्फीत होता गया त्यों-त्यों बाज़ार में उनकी दर चढ़ती गई और वह दमड़ी पर चमड़ी निछावर कर बैठे। उसी पैसे पर राजा की दृष्टि लगी देख वह बिलकुल ही घबड़ा उठे। छोटी सहुआइन ने उन्हें सन्त्वना दी, संकट से बचने का रास्ता बताया और कहा, "घबड़ैले काम न चली। रूपया-पैसा जमीन में गड़ल हौ, ओकर कउनो चिन्तै नाहीं। दूर चारठे गहना जउन उप्पर हौ ओके ले लS अऊर कुछ कपड़ा-लत्ता संघे बान्ह लS । चल् चलS हमरे नइहर। ई आफत पटाय जाई तS लउट आए।"
साव को बात पसंद आ गई। वह बोरिया-बँधना बाँध अपनी ससुराल कर्ण-घंटा की ओर चले। परन्तु रास्ते में यह कांड हो गया। उन्होंने समझ लिया कि अब जान किसी प्रकार नहीं बचती। इसलिए बहेलिए की बात सुनकर उन्होंने आँसू-भरी दृष्टि से एक बार नागर की ओर देखा और फिर लाठी की तरह सीधे उन दोनो के चरणों पर गिर पड़े।
नागर को दया आ गई। परन्तु कर्कश स्वर में पूछा, "बोल, बोल, लड़िका के काहे मरले ?" साव ने पड़े-पड़े ही हाथ जोड़कर उत्तर दिया, "हमारा तनिकौ दोष नाहीँ हौ, गुरू ? हमरे भागे पर लड़िकवा हमार हँसी उड़ावत रहलन।"
"तोहार हँसी उड़ावत रहलन ?" नागर ने आश्चर्य में पड़कर पूछा। वह समझ ही नहीं पा रहा था कि वारेन हेस्टिंग्स के पलायन की बात से साव की हँसी कैसे उड़ाई गई ! साव ने लज्जावश अपनी पत्नियों के सम्बन्ध में घोड़ी और हथिनि-विषयक अपनी कल्पना पर परदा डाल दिया। केवल इतना ही कहा, "तोहऊँ तS सुनत रहलS गुरू ! लड़िकवा का कहत रहलन ?"
"का कहत रहलन, तोहई कहS," नागर बोला।
झेंप-भरी दृष्टि से इधर-उधर देखते हुए साव ने इतना ही कहा, "ले अब का कहीं! लड़िकवा यही तS कहत रहलन-
'घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन
जल्दी से भाग गइल़ै लबदन सुदीन।' "
नागर और लोटन दोनों ठठाकर हँस पड़े। नागर ने कहा, "धत्तेरी की! साहु का समझSला कि जीनकS तुक सुदीन के सिवा अउर कुछ होई नाहीं सकत। जा भाग हियाँ से!" नागर ने साव को ठोकर लगाई और स्वयं आगे बढ़ा। लड़कों की भीड़ ने नारा लगाया-
"घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन
जल्दी से भाग गैल वारेन हेस्टीन।"
सावजी ने मुँह बनाकर कहा, "ऐं!"
............................................................
नोटः बहती गंगा पुस्तक से साभार।
मन की सारी घृणा और क्रोध को पिघले सीसी-सी प्रतप्त वाणी में घोलते हुए बाप ने उत्तर दिया, "तोसे थूकत नाहीं बनत तS नाहीं सही। दुनियाँ तो तोरे मुँह पर थूकत हौ।"
बेटे ने जब यह जवाब सुना तो मुँह बनाकर वहाँ से हट गया। परन्तु उसकी जननी ने, जो पास ही बैठी मसाला पीस रही थी, इतनी ही बात पर महाभारत मचा दिया; ऐसे पैने-पैने वचन-बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी कि सावजी का कलेजा जर्जर हो उठा। उन्होने जलकर कहा, "कलमुँही, भैंस ! बिहाने-बिहाने काने के जड़ी चरचराए लगल।"
बड़ी सहुआइन ने भी उसी वज़न में जवाब दिया, "निगोड़ा, कुक्कुर, निरबसा, बिहाने-बिहाने लड़िका के कोसै लग गयल। जे बिहाने एकर नाँव ले ले, ओके दिन-भर अन्नकS दरसन न होय !"
बात कुछ अंश तक सही थी। साव के सूमपन के कारण वास्तव में लोग सवेरे उनका नाम नहीं लेते थे। इसीलिए सहुआइन की यह बात उनके कलेजे में बरछी की तरह चुभ गई। वर्षगाँठ का झमेला न होता तो वह कुछ उत्तम-मध्यम किए बिना कदापि न मानते । परन्तु पूजन के समय दोनों पत्नियों का साथ ग्रन्थि-बन्धन आवश्यक था। अतः बड़ी सहुआइन के मुँह फुलाने की आशंका से उनके हाथ-पैर फूल गए। उन्होंने कड़वे काढ़े-सा अपमान पीते हुए भी पत्नी को मनाना आरम्भ कर दिया। छोटी सहुआइन ने भी आकर सपत्नी को समझाया, "आखिर कहलन तS अपने बेटवा के न, कोई पराए के तो नाहीं ! जाए द !"
अन्ततः बड़ी सहुआइन शान्त हुई। घर का वातावरण पुनः साधारण हुआ। सावजी पूजा-पाठ के फेरे में पड़े। नगर में दो दिन से हड़ताल रहने के कारण बेचारे नवग्रह-पूजन और हवन सामग्री भी न मँगा पाए थे। पड़ोसियों से माँग-जाँचकर किसी तरह समान भी जुटाया तो पंडित ने पूजा करने आने से इन्कार कर दिया। कहला भेजा, "नगर की स्थिति ठीक नहीं है, राजा अपने ही महल में बंद हैं, मलिच्छों की सेना सड़क पर चक्कर लगा रही है। मैं ऐसा घनचक्कर नहीं कि चौखट के बाहर पैर रखूँ। यदि प्राण संकट में डालकर जाऊँ भी तो 'सीधा' तो डेढ़ दमड़ी का मिलेगा न !"
साव ने जो यह बात सुनी तो उनके भी छक्के छूट गए। वह स्वयं अनगढ़, अनवसर और बेहूदी वार्ता को ही खरी-खरी कहना समझते थे। उन्होंने जो पंडितजी का निखरा-निखरा सन्देश सुना तो खरा बोलने का हौसला पस्त हो गया। उधर छोटी सहुआइन को पंडित के उत्तर से अपना सौभाग्य-सूर्य अस्त हुआ प्रतीत हुआ। वह अस्त-व्यस्त हो उठीं। साव की तम्बाखू के पिंड-जैसी काली और स्थूल काया से आग की रेखा के समान सटते हुए उन्होंने गद्गद गले से कहा, "तोहई न रहबS तS धन रह के का करी ? दूसरा पंडित बोलावS।"
पाँच पैसे का 'सीधा' देने का वचन देने पर दूसरा पंडित आया। दोनों पत्नियों के साथ गाँठ बाँधकर साव ने सावधानी से मन्त्र पढ़ते, दक्षिणा के स्थान पर जल चढ़ाते, पूजा समाप्त की। हवन आरम्भ हुआ। घी की कमी से आग दहक नहीं रही थी। गौरा पंखे से आग सुलगा रही थी। सहसा चिनगारियाँ उसके हाथ और मुँह पर आ पड़ीं। सबके मुँह से सहानुभूतिसूचक ध्वनि हुई, परन्तु सावजी ने हँसते हुए छोह-भरी वाणी में कहा, "बिटिया, एक चिनगारी में तो तू धीरज छोड़ देहलू। जब सती होएके होई तब तू का करबू?"
पंडित हक्का-बक्का होकर साव का मुँह निहारने लगा। गौरा बिना कुछ समझे हँसने लगी, परन्तु उसकी माँ का जी जलने लगा। बाहरी आदमी के सामने लड़ तो नहीं सकती थी उसने झनककर साव के दुपट्टे से अपनी चादर की गाँठ खोल दी और चमककर खड़ी हो गई। साव भी अपनी भूल समझ गए, पर तीर हाथ से छूट चुका था। वह असहाय की तरह छोटी सहुआइन का मुँह निहारने लगे। बड़ी सहुआइन ने सौत का हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, "आखिर कहलन तS अपनै बिटिया के न ! कोई पराए के तS नाहीं जाए दS। और खुली गाँठ फिर से बाँध दी।
छोटी सहुआइन ने वक्र-दृष्टि से सौत को देखा, परन्तु कुछ बोली नहीं। हवन बिना और किसी दुर्घटना के समाप्त हो गया। परन्तु साव के सिर की गर्दिश अभी तक समाप्त न हुई थी। वह भोजन करने बैठे कि लोटन बहेलिये ने गली में से आवाज दी, "सावजी हो, हे लबदन साव !"
लबदन साव ने झरोखे से नीचे झाँका। देखा कि राजा चेतसिंह का अंगरक्षक लोटन बहेलिया ज़री की डोरी पड़ी और सोना-जड़ी कत्तीदार पगड़ी सिर पर रखे, हरा अंगरखा पहने, कमर में गुलाबी फेंटे से तलवार फँसाए, हाथ में फरसा लिए उन्हें आवाज़ दे रहा है। उन्होंने धीरे से गौरा को बुलाकर कहा, "बिटिया, कह दे, बाबू घरे नाहीं हौअन !" उसने सिर निकालकर पिता की बात दोहरा दी।
"लौटेंतS कह दिहे ड्योढ़ी पर आवैं। राजमाता कS हुक्म हौ।" बहेलिये ने कहा और पैर आगे बढ़ाया। राजमाता के इस सन्देश में साव को अनभ्र वज्रपात की ध्वनि सुनाई पड़ी। उन्हें आशंका हुई कि यह बुलाहट उनसे रूपया ऐंठने के लिए हुई है। वह चिन्ता में पड़ गए।
लबदन साव ने 'रामदाने कS लेडुआ पैसा में चार' की बानी बोलते हुए काशी की गलियों में घूम-घूमकर व्यापार आरम्भ किया था और कौड़ी-कौड़ी जोड़कर नखास पर हलवाई की दुकान खोली थी। ज्यों-ज्यों उनका उदर स्फीत होता गया त्यों-त्यों बाज़ार में उनकी दर चढ़ती गई और वह दमड़ी पर चमड़ी निछावर कर बैठे। उसी पैसे पर राजा की दृष्टि लगी देख वह बिलकुल ही घबड़ा उठे। छोटी सहुआइन ने उन्हें सन्त्वना दी, संकट से बचने का रास्ता बताया और कहा, "घबड़ैले काम न चली। रूपया-पैसा जमीन में गड़ल हौ, ओकर कउनो चिन्तै नाहीं। दूर चारठे गहना जउन उप्पर हौ ओके ले लS अऊर कुछ कपड़ा-लत्ता संघे बान्ह लS । चल् चलS हमरे नइहर। ई आफत पटाय जाई तS लउट आए।"
साव को बात पसंद आ गई। वह बोरिया-बँधना बाँध अपनी ससुराल कर्ण-घंटा की ओर चले। परन्तु रास्ते में यह कांड हो गया। उन्होंने समझ लिया कि अब जान किसी प्रकार नहीं बचती। इसलिए बहेलिए की बात सुनकर उन्होंने आँसू-भरी दृष्टि से एक बार नागर की ओर देखा और फिर लाठी की तरह सीधे उन दोनो के चरणों पर गिर पड़े।
नागर को दया आ गई। परन्तु कर्कश स्वर में पूछा, "बोल, बोल, लड़िका के काहे मरले ?" साव ने पड़े-पड़े ही हाथ जोड़कर उत्तर दिया, "हमारा तनिकौ दोष नाहीँ हौ, गुरू ? हमरे भागे पर लड़िकवा हमार हँसी उड़ावत रहलन।"
"तोहार हँसी उड़ावत रहलन ?" नागर ने आश्चर्य में पड़कर पूछा। वह समझ ही नहीं पा रहा था कि वारेन हेस्टिंग्स के पलायन की बात से साव की हँसी कैसे उड़ाई गई ! साव ने लज्जावश अपनी पत्नियों के सम्बन्ध में घोड़ी और हथिनि-विषयक अपनी कल्पना पर परदा डाल दिया। केवल इतना ही कहा, "तोहऊँ तS सुनत रहलS गुरू ! लड़िकवा का कहत रहलन ?"
"का कहत रहलन, तोहई कहS," नागर बोला।
झेंप-भरी दृष्टि से इधर-उधर देखते हुए साव ने इतना ही कहा, "ले अब का कहीं! लड़िकवा यही तS कहत रहलन-
'घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन
जल्दी से भाग गइल़ै लबदन सुदीन।' "
नागर और लोटन दोनों ठठाकर हँस पड़े। नागर ने कहा, "धत्तेरी की! साहु का समझSला कि जीनकS तुक सुदीन के सिवा अउर कुछ होई नाहीं सकत। जा भाग हियाँ से!" नागर ने साव को ठोकर लगाई और स्वयं आगे बढ़ा। लड़कों की भीड़ ने नारा लगाया-
"घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन
जल्दी से भाग गैल वारेन हेस्टीन।"
सावजी ने मुँह बनाकर कहा, "ऐं!"
............................................................
नोटः बहती गंगा पुस्तक से साभार।
सुन्दर कथा |
ReplyDeleteमनोयोग से पढ़ी -
कुछ अलग सा ||
सादर |
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में रची गई कहानी आंचलिक सुंदरता को समेटे है। कुछ अलग-सा इसका आनंद है।
ReplyDeleteरोचक कथा।
ReplyDeleteपाण्डेय जी,
ReplyDeleteएक घटना के चारों ओर बुनी हुई एक मनोरंजक कथा जिसकी सबसे खूबसूरत बात है इसके संवाद.. बनारसी बोली की मिठास. यह बोली हमेशा मुझे मेरी माँ की तरह लगती है.. हालांकि अब तो मेरी माँ भी नहीं बोल पातीं.
एक बहुत ही जीवंत कथा.. अगर यह पुस्तक मिली तो पढता हूँ!!
मजे की बात यह है कि हम बचपन से ही यहाँ की गलियों में अपने से बड़े साथियों के मुँह से इसको सुनते, गाते हुए बड़े हुए....
Deleteघोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन
जल्दी से भाग गैल वारेन हेस्टीन।
....लेकिन इसका असली आनंद तो तब आया जब इस कहानी को पढ़ा।:)
आपको और सलिल जी को चाहे जितना मज़ा आया हो पर हमें मज़ा आना बाकी है क्योंकि इस कथा के सारे पात्र ब्लागजगत में फिट नहीं हो पाये हैं अभी तक :)
Deleteलोटन कौन ?
नगर कौन ?
लबदन कौन ?
बड़ी सहुवाइन कौन ?
छोटी सहुवाइन कौन ?
पिटने वाले लड़का कौन ?
और तो और वारेन हेस्टीन कौन ?
राजमाता कौन ?
चेत सिंह कौन ?
लबदन के बेटा बेटी कौन ?
स्वर्गीय शिव प्रसाद मिश्र 'रूद्र' के पुनर्जन्म की भूमिका में :)
हा.. हा.. हा..
Delete'इस कथा के सारे पात्र ब्लॉग जगत में नहीं फिट हो पाये अभी तक।' मतलब यह कि कुछ हो गये हैं! जल्दी से सभी को फिट करके बताइये। उन्हें लेकर दूसरी कथा लिखी जाय। :) लेकिन लबदन जिसको बनायेंगे वह तो लाठी लेकर वैसे ही दौड़ायेगा। :)
पहले आप ये अनुमान लगाइए कि दो सहुवाइने कौन :)
Deleteतब तो लबदन की बात करूं :)
नहीं.. नहीं... यही तीन नाम तो आपको बताने हैं।
Deleteलबदन कौन?
दो सहुवाइने कौन?
शेष नामों के लिए दूसरे प्रयास किये जायेंगे।:)
दो सहुवाइने तय होना है बस :)
Deleteबाकी की चिंता छोड़ दीजिए :)
:) जो बोले वही दरवाज़ा खोले।
Deleteबात का बतंगड बने मा देर ना लगी,शुक्र रहा कि बाद में स्थिति संभल गई !.....
ReplyDeleteबेहद मनोरंजक कथा .......
ReplyDeleteरोचक कहानी ....
ReplyDeleteक्या बात है!!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 07-05-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-872 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
ई सौआ त सचमुचै लतखोर रहा हो -अपनी बिटिऐ क सती होयिके भाख देहेस ससुरा ..उहौ पंडित क सामने ....
ReplyDeleteआप त बिल्कुलऐ खाटी बनारसी मनई हय आर :)
बहुत सही कहला, कुभाखी ससुरा सच्चो सुमड़हा रहल। :)
Deleteबनारसी संवाद सुनकर आनंद आ गया.
ReplyDeleteआप भी तो ढूंढ कर लाते हैं मोती
बेहद रोचक कथा. पुस्तक अगर मिल गयी तो जरूर पूरा आनन्द लेंगे.
ReplyDeleteयह प्रस्तुति भी रोचक रही।
ReplyDeleteबेहद मजेदार कहानी। बनारसी शब्दों का लुत्फ़ कुछ हटकर होता है।
ReplyDeleteलाजवाब है, काशिकेय जी का लेखन, उनके व्यक्तित्व की भी रोचक चर्चा सुनने को मिलती है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना, बहुत २ बधाई |
ReplyDeleteबनारसी संवाद पढ़ के मजा आ गया ... रोचक घटना क्रम से निकली ...
ReplyDeleteबाकी जब सारे पात्र फिट हो जाएँ तो जरूर लिखियेगा ... असल के सजीव पात्रों के साथ कहानी का मज़ा दुगना हो जाएगा ... हा हा ...
सुन्दर कथा है...आंचलिकता की खुशबू लिए संवादों ने इसे और भी रोचक बना दिया है...
ReplyDeleteचकाचक कहानी बांचकर आनन्दित हो लिये। धन्यवाद!
ReplyDeleteरोचक कथा !
ReplyDeleteमस्त मस्त सावजी कथा, उपन्यास पढने की लालसा जगा दी है आपने|
ReplyDeletebadiya hai ji kahani
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