कन्या भ्रूण हत्या पर खूब चिंतन हो
रहा है। भयावह आंकड़े प्रस्तुत किये जा रहे हैं। सभी यह मान रहे हैं कि यह जघन्य
अपराध है। इसके लिए स्त्री को या डाक्टर समुदाय
को दोषी ठहराया जा रहा है। जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। वह तो सीधे
गर्भ में प्रवेश कर कन्या की चित्कार सुन लेता है ! सुनता ही नहीं चित्कार को अपने दर्दनाक शब्दों में पिरोकर अभिव्यक्त
भी कर देता है... “कोखिये
में काहे देहलू मार?
काहे बनलू तू एतना लाचार?
कवन गलती बा हमार?”
जैसी मार्मिक पंक्तियों से माता को ही बच्ची की हत्या का आरोपी सिद्ध करता है!
सामाजिक संस्थाएं इस दिशा में अच्छा
कार्य कर रही हैं। जनता को नींद से जगा रही हैं। आंकड़े प्रस्तुत कर सचेत कर रही
हैं कि यह जारी रहा तो पुरूष-महिला अनुपात में गहरा असंतुलन हो जायेगा। भ्रूण का
लिंग परीक्षण कानूनन अपराध घोषित हो चुका है। लोगों को समझ में भी आ रहा है कन्या
भ्रूण हत्या गलत है। बावजूद इसके समस्या सुरसा के मुँह की तरह बड़ी और बड़ी होती
चली जा रही है। सुधार से उलट यह भी हो रहा है कि पिछड़े इलाके में रहने वाले लोग
जो जानते ही नहीं थे कि भ्रूण परीक्षण भी होता है वे शहरों में घूम कर अपने
रिश्तेदारों से पूछ रहे हैं...”ए
भाई जी! का सहिये में पता चल जाता है? हमार मेहरारू
तS बेटवा के चक्कर में चार गो बिटिया जन
चुकी है। फिरे बच्चा होने वाला है। तनि पता लगाइयेगा। लड़की होगी तो.....समझ रहे
हैं न।“ अब इसे क्या कहा जाय? ससुर के नाती, तू कुछो नाहीं कइला अउर चार गो
बिटिया पैदा होत चल गइलिन।
इसका मतलब यह नहीं कि लोगों की मूढ़ता
के चलते सामाजिक संस्थाएं जागरूकता अभियान बंद कर दें। लोग तो ऐसे ही होते हैं। उन्हें तो
सिर्फ अपना स्वार्थ, अपनी मजबूरी अपना फायदा दिखता है। लेकिन सामाजिक संस्थाओं में
चिंतकों के विचार पढ़ने/सुनने के बाद
मैं और भी चिंतित हो जाता हूँ ! यह प्रतीत
होता है कि उन्हें हत्या के पाप से अधिक भय इस बात से है कि पुरूष-महिला अनुपात
गड़बड़ा जायेगा। कहते तो नहीं लेकिन आभास मिलता है। लगता है कहना चाह रहे हैं,
अनुपात न गड़बड़ाये मतलब कुछ नुकसान न हो तो यह पाप किया जा सकता है। अधिक गलत
इसलिए है कि अनुपात गड़बड़ा जायेगा। गोया मानवीय संवेदना इस अनुपात के आंकड़े से
कम महत्वपूर्ण है!
पूरूष भी कमाल का जीव होता है! तब तक नहीं घबड़ाया जब तक उसे असंतुलन का एहसास
नहीं हुआ। तब तक सब ठीक-ठाक चल रहा था। घबड़ाया तब जब उसे असंतुलन का एहसास हुआ।
पुरूष घबड़ाया मतलब बुद्धिजीवी घबड़ाया। बुद्धि पुरूषों की थाती रही है। जब बुद्धि
का बंटवारा हो रहा था तो पुरूषों ने वहाँ भी कोई कुचक्र चला होगा और बुद्धि का
पिटारा ले उड़े होंगे! महिलाओं ने
हाय-तौबा मचाया तो माँ सरस्वती की धूमधाम से पूजा आरती करने लगे, “अरे! काहे नाराज होती हैं..? सभी बुद्धि तो हमे माँ से ही मिली है। सब आप ही
की कृपा है देवी।“ महिलाएँ खुश, “जीयो मेरे
लाल..!” बुद्धिजीवी घबड़ाया तो घबड़ाये
पुरूष। घबड़ाये तो चिंतित होने लगे, “हांय! महिलाएं कम हो रही हैं!” अब क्या होगा? हमारे पुत्रों की शादियाँ कैसे होंगी? भविष्य तो बिगड़ जायेगा हमारे बच्चों का। प्रकृति का संतुलन ही नष्ट
हो जायेगा!” गंभीर परिणाम सामने नज़र आने लगे।
जेल में डालो डाक्टरों को...ऐसी स्त्रियों पर धिक्कार है जो अपना ही अस्तित्व
मिटाने पर तुली हैं। बच्चे की चीख भी उनके कानों में नहीं पहुँचती कैसी माँएं हैं?
लोभी मानसिकता बड़ी चालाकी से अपना अपराध दूसरों पर लादना
जानती है! लोभियों ने पहले तो स्त्री का जीना
दूभर किया। उसका लिखना-पढ़ना दुश्वार किया। उसे देवी की उपाधी से नवाजकर घर की
दासी बना लिया। दूसरे की पुत्रियों पर कुदृष्टि डाली। अपने ही घर में पुत्र और
पुत्रियों में भेद किया। पुत्रों को पढ़ाया तो पुत्रियों को चौका-बर्तन करना
सिखाया। पुत्रों को उनपर शासन करना सिखाया।
कन्याओं को पराया धन समझा। वस्तुओं की तरह दान करके कन्यादान महादान का ढोंग
रचाया। बहुओं पर घोर अत्याचार किये। उनसे वंश चलाने के लिए पुत्र की कामना करी।
पुत्र जन्म देने वाली बहू श्रेष्ठ तो कन्या को जन्म देने वाली को अपराधी ठहरा कर
उनके साथ उपेक्षा का व्यवहार किया। जब
विज्ञान ने इलाज के लिए मशीन ईजाद की, उन्हें पता चलने लगा कि हमारे
घर जिस बच्चे का जन्म होने वाला है वह एक कन्या है तो डाक्टर से साठ-गांठ करके उसे
गर्भ में ही मारना शुरू कर दिया। क्या है यह ? कौन दोषी है कन्या भ्रूण हत्या के लिए ? क्या स्त्री ? क्या डाक्टर ? बाकी सभी बड़े भले लोग हैं? शादी के वक्त अपने पुत्र के लिए लम्बी-चौड़ी
दहेज के समानो की लिस्ट थमाते जरा भी संकोच न करने वाले ये दहेज लोभी आज धर्मात्मा
बन उपदेश दिये जा रहे हैं कि महिलाएं ही इस पाप के लिए जम्मेदार हैं! कौन डाक्टर है जो बगैर आपके दबाव डाले बता देता
है कि भ्रूण में कन्या है ? कौन माँ ऐसी
है जो खुशी-खुशी अपने बच्चे को मारना चाहती है ? इसके लिए कोई
दोषी है तो वह है हमारा लोभ। लालची प्रवृत्ति सदवृत्ति को भी भ्रष्ट कर देती है।
विज्ञान का चमत्कार मानवता के हित में होता है लेकिन यदि यह लोभी हाथों में चला
गया तो मानवता को सबसे अधिक नुकसान भी यही पहुँचाता है।
लिंग भेद केवल महिला पुरूष अनुपात तक
ही सीमित नहीं है। मनुष्य के लोभ का जीता जागता उदाहरण हम दुधारू पशुओं में
प्रत्यक्ष देख सकते हैं। हम महिला-पुरूष के बिगड़ते अनुपात को तो देख पा रहे हैं
लेकिन पशुओं में बिगड़ रहे अनुपात का तो अनुमान भी नहीं लगा सकते! अब हमे अपने खेतों के लिए दो बैलों की जोड़ी
नहीं चाहिए। हमारे खेत अब ट्रैक्टर से जोते जाते हैं। बैल अब बेकार के जानवर हो
गये हैं। पैदा होते ही ऐसा वातावरण पैदा करो कि ये अपने आप मर जांय। हम गौ माता के
पुत्रों को बेशर्मी से मौत के घाट उतारते चले जा रहे हैं और गौ हत्या पर हो हल्ला
भी मचा रहे हैं ! क्या बछड़ों
के हत्यारों के पास यह नैतिक अधिकार शेष रह सकता है कि वे गौ माता की हत्या का
विरोध भी कर सकें ?
इस संदर्भ में मैं अपना एक छोटा सा
संस्मरण बताता हूँ। पूरी ईमानदारी से सच लिखने का प्रयास करता हूँ। काशी हिंदू
विश्वविद्यालय में एक दिन मार्निंग वॉक कर रहा था। जाड़े का दिन था । दैव संजोग की
गोशाला से अच्छी खासी संख्या में गायों के झुण्ड के साथ गाय चरा रहा एक ग्वाला मेरे से कुछ ही आगे चल रहा था। तभी
मैने देखा, वृक्षों के नीचे एक गाय का चितकबरा, बेहद खूबसूरत बछड़ा, धीरे-धीरे
रेंग पा रहा है। मुश्किल से एक दिन पहले पैदा हुआ होगा। मुझे लगा यह ग्वाला इसे
छोड़े जा रहा है। मैने आवाज लगाई, “का मालिक!
एहके इहाँ मरे बदे छोड़े जात हउआ?
यहू के लेहले जा।“
वह मेरी बात सुनकर तड़पकर बोला, “एहके हम नाहीं इहाँ छोड़ले हई। ऐहके आप इहाँ मरे
बदे छोड़ले हौआ !
एक दिन कS
भी नाहीं हौ !
खाली बछिये पलबा मालिक?
बछड़ा होई तS
अइसेही मरे बदे छोड़ देबा ?
दुई घंटा बाद देखिया,
कुक्कुर चबा जैहें एहके। बड़का बुद्धिजीवी
हौआ। बडमनई हउआ। पचास हजार से कम तS नाहीं कमात होबा! गैया पाले कS शौक हौ, बछड़ा होई तS खियाये के मारे फेंक देबा ओहके सड़क में? अरे फेंक देता बाकि एकाध महीना तS जीया लेहले रहता।“ उसकी
बात सुनकर मैं बुरी तरह सकपका गया। फिर बोला, “अच्छा!
तS ई तोहार नाहीँ
हौ !! हम समझली की
यहू तोहरे हौ, ए बदे पूछ लेहली।” वह बोला, “नाहीं मालिक, ई बछड़ा हमार नाहीं हौ। हम पढ़ल लिखल नाहीं हई
लेकिन एतना तS
जानिला कि एक दिन कS
बच्चा के अइसे नाहीं मरे बदे छोड़ल जाला। ई बड़मनई कS काम हौ। आप आज देखला, हम तs बहुत देखल करीला। गाय पाले कS शौक हौ लेकिन गाय कS बछड़ा हो गयल तS एक दिन खियाये में नानी मर जाला। अरे एकाध दुई
महिना जिया लेहले होता फिर तS
ऊ अपने चर खा लेत। बुरा मत मान्या,
हमें पढ़ल लिखल मनई कS
ई बेशर्मी बर्दाश्त ना होत। आपो पढ़ल लिखल हउआ ! जै राम जी की।
सोचिए! उस ग्वाले ने कितनी बड़ी बात कह दी!! “आपो पढ़ल लिखल हउआ!” कहते चला गया। इससे बड़ा कटाक्ष कुछ हो सकता
है? यह लोभ, यह अमानवीयता निर्धन, अभावग्रस्त, या शोषित, दीन हीन लाचार व्यक्तियों की नहीं है। यह हमारे
आप जैसे खाये पीये अघाये लोगों की क्षुद्रता है। यह हमारा ही
लोभ है जो वक्त बेवक्त सर चढ़ कर बोलता है। उस ग्वाले ने तो ऐसी-ऐसी गालियाँ दीं
जिसे हम लिख नहीं सकते। लेख पर अश्लीलता की तोहमत जड़कर लोग सरक लेंगे। मुद्दा
पीछे छूट जायेगा। मेरी समझ से कन्या भ्रूण हत्या के लिए यह लोभ ही मूल कारक है जो
कभी कन्या तो कभी बछड़े की हत्या के रूप के रूप में सामने आता है। आप लाख इधर-उधर
की बातें करके अपने जुर्म पर पर्दा डालने का प्रयास करो लेकिन सच यही है। एक दोहे
से अपनी बात समाप्त करता हूँ.....
पड़वा मारें खेत में, बिटिया मारें
पेट
मानवता की आँख में, भौतिकता की रेत।
.................................................................................................
नमन आपके विचारों को.
ReplyDeleteऔर बधाई इस सशक्त अभिव्यक्ति के लिए........
सादर.
अनु
बधाई के लिए धन्यवाद।
Deleteअब से पांच साल पहले तक घर में हमेशा गाय भी रही है, और इस बात का इत्मीनान है कि इस पोस्ट को पढकर फख्र से कह सकते हैं कि अभी भौतिकता की रेत से बचे हुए हैं(दोनों श्रेणियों में|
ReplyDeleteइस फख्र का कोई मोल नहीं। आप धनी हैं। काश सभी के पास यह हो।
Deleteपूरी ईमानदारी एवम निष्ठा से आपने ये आलेख लिखा है |हमरा ही लोभ हमें भौतिकता की ओर खींच रहा है |आज कल तो ऐसा लगता है ....बस पैसा ही सब कुछ है ...!बाकी सब बकवास !बुद्धिजीवी ...कोई अगर ज्ञान की बात करे तो ...बुद्धूजीवी कह लाया जाता है ...!!
ReplyDeleteआज इसी तरह के आलेखों की ज्यदा ज़रूरत है जो कम से कम कुछ तो जागरूकता लायें....!!
शुभकामनायें.
Behtareen aalekh!
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteपाण्डेय जी,
ReplyDeleteसबसे पहले पोस्ट के विषय में... इस विषय पर अब तक जितने भी संवेदनशील वक्तव्य, विचार, परिचर्चाएं, टीवी कार्यक्रम, कवितायें, ब्लॉग-पोस्ट, प्रचार, कथाएँ आदि दिखीं, उनमें यह आलेख सबसे अधिक संतुलित और विचारोत्तेजक लगा.. दो विभिन्न परिस्थितियों, मानव और पशु, के मध्य तथाकथित "बड़मनई" की भूमिका.. बहुत ही अच्छी प्रस्तुति.. व्यर्थ की सम्वेदादाना से इतर एक सार्थक चिंतन..
अब बात बछड़े की.. पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे घर पर गायें पलती रहीं.. बछड़े खेतों पर काम करते थे और गायें घरों में माता की तरह सम्मान पाती थीं... बछड़ों को भी हमने भाइयों/चाचा/ताऊ की तरह ही सम्मान दिया.. शायद गंवार ही रहे होंगे हम लोग.. मगर वैसे "बड़मनई" होने से तो अच्छे थे!!
आभार आपका..!!
उत्साह बढ़ाने के लिए आपका आभारी हुआ।
Deleteसच कह रहे हैं. जब तक बात अनुपात की नहीं थी सरकार ने ही गा गा कर भ्रूण ह्त्या का प्रचार किया जनसंख्या पर नियंत्रण हेतु (पिछले दिनों सत्यमेव जयते से ही पता चला यह ) और अब अनुपात की बात आई तो ठीकरा फोड दो स्त्री, डॉ और बाकी सब पर. कन्या, या पशु का ही क्या कहिये , पेड़, खेत आदि प्रकृति के अनुपात का भी कहाँ भान हैं किसी को.
ReplyDeleteसमस्या का सार्थक विश्लेषण करती पोस्ट.
मैने वह एपीसोड अभी तक देखा नहीं। सुना है कि बहुत बढ़िया था। लेख लिखने का मूड बनाया तो सोचा लिखकर ही देखूंगा..कहीं उससे प्रभावित न हो जाऊँ। सरकार ने ही प्रचार किया यह बात मेरे लिए नई है।
Deleteईमानदार पोस्ट
ReplyDeleteएक समय था जब बछड़ा जन्मने पर लोग खुश होते थे. आज बछड़ा अनाहूत हो गया है. स्वार्थसिद्धि में हमें महारथ हासिल है.
मनुष्य मनुष्यता से परे क्यों है?
स्वार्थ के लिए लोग मानवता को बिलकुल भूल चुके हैं, सचमुच उस ग्वाले बहुत बड़ी बात कह दी जो बुद्धिजीवियों को अब तक ना समझ सकी, ट्रेक्टर के आने से बैल की उपयोगिता को नकारने लगे. ज्ञान, गुण और कमाई में बराबरी करने के बाद भी समाज कन्याघाती बना हुआ है, कानून क्या कर लेगा जब लोगों की भावना ही ऐसी है, बदलाव समाज में आना जरुरी है। सार्थक आलेख के लिए आपका आभार
ReplyDeleteपसंद करने और ब्लाग वार्ता में शामिल करने के लिए धन्यवाद।
Deleteसंस्मरण पढना तो मुश्किल हो रहा था...ह्रदयविदारक
ReplyDeleteजीने का अधिकार तो हर जीव को है....पर ये अधिकार भी तभी मिलता है गर संतुलन बना रहे...
जी..ह्रदयविदारक घटना थी वह मेरे लिए भी।
Deleteलोमहर्षक वृत्तांत पढने के बाद एक ही सवाल बार बार मेरे मन में कौंध रहा है -क्या हुआ होगा उस बछड़े का ?
ReplyDeleteहम्म!
Deleteठीक कहते हैं आप, सलिल जी से अक्षरशः सहमत हूँ, वाकई सही और संतुलित बात कही है आपने। और ऐसा तो रुइया के सामने अपनी आँखों से देखा है, एक दोस्त थे वय में बड़े, वो तो घर लिवा लाये थे कुत्तों से बचा।
दो-तीन दिन का रहा होगा।
हम्म...पुराने पापी हैं।
Delete...गोया मानवीय संवेदना इस अनुपात के आंकड़े से कम हैं !
ReplyDeleteइसी बात में सार-तत्व छिपा है.अब विचार से ज्यदा प्रचार हो रहा है !
बहुत ही गहन विषय पर पूरी बेबाकी और ईमानदारी से लिखा है आपने.....सहमत हूँ आपसे.....बात सिर्फ आंकड़ों की नहीं है मानवता भी कोई चीज़ है....लोभ का सटीक विश्लेषण किया है दहेज़ भी एक बहुत बड़ी वजह है कन्या भ्रूण हत्या की वही गाय का बछड़ा अब किसी काम का नहीं रहा तो वो उसे भी बेकार समझ कर फेंक दिया जाता है.....बिलकुल सही और सटीक लेख है.....हैट्स ऑफ इसके लिए।
ReplyDeleteआपने हैट्स ऑफ किया। हम नतमस्तक हुये।:)
Deleteसंतुलन का मूल्य है, संतुलन अमूल्य है..
ReplyDeleteसंवेदना के हाथ में तराजू नहीं होता।
Deleteभ्रूण हत्या और कन्या भ्रूण हत्या --दोनों अलग मुद्दे हैं .
ReplyDeleteएम् टी पी सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त प्रक्रिया है .
लेकिन लिंग भेद नहीं . जब तक समाज में लिंग भेद रहेगा , तब तक यह समस्या ख़त्म होने वाली नहीं .
हम प्रकृति को असंतुलित कर रहे हैं एक दिन प्रकृति हमें संतुलित कर देगी।
Deleteअंतिम दोहे में ऊपर की सारी बात का दर्द ब्यक्त हुआ है.वाह ! क्या दोहा लिखा है आपने,मानवता की आँखें भौतिकता की रेत के कारण रो रही हैं.
ReplyDeleteदोहे को आपका प्यार मिला...आभार।
Deleteस्तब्ध रह गये हैं आपकी इस शानदार वैचारिक / चिंतनपरक प्रविष्टि को पढ़कर ! अब ये भी दुआ नहीं कर सकते कि वानर आपके ब्राडबैंड के साथ हमेशा यही सुलूक करें ताकि ...
ReplyDeleteसही पकड़ा आपने। वानरों के कृपा का परिणाम ही है यह आलेख। एक सप्ताह ब्राडबैंड न होने के कारण कई बार पढ़ने का अवसर मिला। :)
Deleteगंभीर समस्या पर सामयिक सटीक आलेख...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDelete..धन्यवाद।
Deleteचर्चा मंच पर स्थान दे कर उत्साह बढ़ाने के लिए आभार।
ReplyDeleteफणीश्वर नाथ रेणु की एक कहानी में ऐसा कुछ था - हे देवी माँ, भैस को पाड़ी दो, इंसान को पाड़ा !
ReplyDeleteक्या कहें... अब इंसान समर्थ है.. और सच में भौतिकता की रेत है उसके आँखों में.
इस विषय पर इससे ज्यादा संतुलित और विचारोत्तेजक आलेख मैंने नहीं पढ़ा..
ReplyDeleteआपकी बातों से बिलकुल सहमत हूँ मैं!!
इस लेख के माध्यम से बहुत कुछ कह गए आप ... घूम घूम के वापस मूल मुद्दे पे आते रहे .. बहुत ही प्रभावी लिखा है ... सच है की जो भी काम करे इस मुद्दे पे पर काम जरूर होना चाहिए ... पुरुष समाज चलो इस बात पे भी चेत जाए की असंतुलन हो रहा है तो भी ठीक ...
ReplyDeleteNice post abhar.
ReplyDeleteपढ़े इस लिक पर
दूसरा ब्रम्हाजी मंदिर आसोतरा में जिला बाडमेर राजस्थान में बना हुआ है!
....
बहुत ही सार्थक शब्द एवं भाव लिए उत्कृष्ट लेखन ...आभार ।
ReplyDeleteजब पोस्ट किया था तब पढ़ा था इसे। आज दुबारा पढ़ा! न जाने कित्ती चीजों का घालमेल है महिलाओं की इस स्थिति के लिये। न जाने कब हालात बेहतर हो सकेंगे!
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील लेख। :)
बिलकुल बजा फ़रमा रहें हैं हुजूर....आज भौतिकता ही नैतिकता का पैमाना है!
ReplyDeleteबहुत सार्थक मनो -सामाजिक धत कर्म को उजागर करता लोभ लाच अपराध की जड़ .. .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteशगस डिजीज (Chagas Disease)आखिर है क्या ?
शगस डिजीज (Chagas Disease)आखिर है क्या ?
माहिरों ने इस अल्पज्ञात संक्रामक बीमारी को इस छुतहा रोग को जो एक व्यक्ति से दूसरे तक पहुँच सकता है न्यू एच आई वी एड्स ऑफ़ अमेरिका कह दिया है .
http://veerubhai1947.blogspot.in/
गत साठ सालों में छ: इंच बढ़ गया है महिलाओं का कटि प्रदेश (waistline),कमर का घेरा
साधन भी प्रस्तुत कर रहा है बाज़ार जीरो साइज़ हो जाने के .
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
marna aur kanyaa ko marna asaan haen
ReplyDeletemarna aur kanyaa bhund ko maarna aur bhi aasan haen
bas aatmaa veehantaa ki aur chalraehy haen
aur gaa rahey haen kadam kadam milaayaejaa
kanya ko maarey jaa
कटु सत्य तो यही है।
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