पिछले
सप्ताह फिर एक बार बंदरों की कृपा दृष्टि हुई। उस वक्त ब्लॉगवालियाँ शब्द पर
ब्लॉग जगत में बवाल मचा हुआ था। अचानक से नेट कनक्शेन टूटा और समस्या पूर्ति हुई। आज कई दिनो के बाद तार जुड़े
तो पढ़ने का नहीं, लिखने का मन हो रहा है। जानता हूँ अब तक नदी में बहुत पानी बह
चुका होगा। ब्लॉगरा ! ब्लॉग वालियाँ ! ब्लॉग जगत में आये ये शब्द मुझे अच्छे
नहीं लगते। व्यक्तिगत आक्षेप वाले पोस्ट भी अच्छे नहीं लगते। जिन्हें अच्छे लगते
हों लिखें, जिन्हें अच्छे लगते हों ऐसी पोस्टों पर कमेंट करें। मैं तो पढ़ना भी
नहीं चाहता कमेंट करने की बात तो दूर की है। कभी बिना संदर्भ जाने कमेंट कर बैठता
हूँ तो बाद में बड़ा अफसोस होता है। शायद यही कारण हो कि बहुत से ब्लॉगरों ने
कमेंट का विकल्प बंद कर दिया या कमेंट करना ही बंद कर दिया। सभी ज्ञानी हैं इसलिये
किसी को उपदेश देने का भी कोई मतलब नहीं। सिखाया, पढ़ाया, बनाया, मिट्टी के लोंदे
को जाता है। जो मूर्ति गढ़ी जा चुकी है उन्हें तराशने में और भी विद्रूपता हाथ
लगती है। आलोचना या प्रशंसा करने से वे और भी महिमा मंडित होते/होती हैं। मैं ऐसा प्रयास भीं नहीं करना चाहता। विचार हैं तो हैं। हो सकता
है वे ही सही हों, हम ही गलत हों ! हम यह कैसे कहें कि हम ही सही हैं ? अपनी बात बताना
इसलिए जरूरी लगा कि लोग हमसे अपेक्षा न बांध लें कि हम उनका समर्थन या विरोध
करेंगे। हम कुछ नहीं करने जा रहे। मुझे वाकई अपने छवि की चिंता सताती है। डरता हूँ
कि कल मेरे जाने के बाद मेरे बच्चे मेरे ब्लॉग को पढ़ें तो मेरे बारे में कोई गलत
छवि न बना लें। नई पीढ़ी को लेकर यह चिंता तो रहती ही है। मुझे लगता है यह चिंता
करनी चाहिए। हो सकता है आपको कुछ और लगता हो और आपका लगना ही सही हो लेकिन मुझे जो
लगता है वह बताना भी जरूरी है। मैं किसी का विरोध किये बिना अपनी बात रखना चाहता
हूँ।
पिछली
बार एक पोस्ट आई थी। जिसमे कहा गया था कि फलाने का विरोध दर्ज करें। मैने नहीं किया।
विरोध भी दर्ज नहीं किया, उनके ब्लॉग को पढ़ने भी नहीं गया। कौन वक्त जाया करे ? आप कह सकते हैं कि गलत का
विरोध न करने वाले कायर होते हैं। मैं कायर ही सही। मैं ऐसा ही हूँ। मुझे लगता है
ध्यान न देना भी विरोध दर्ज करना है। कमेंट न करना भी विरोध दर्ज करना है। आलोचना
न करना भी विरोध दर्ज करना है। हो सकता है आपको कुछ और लगता हो लेकिन मुझे लगता है
पढ़ने-लिखने वाले समुदाय में उपेक्षा करना भी कड़ा विरोध दर्ज करना है।
बगीचे
में कई पेड़ हैं। इनकी डालियों में पंछियों का आना जाना लगा रहता है। तेज धूप में
सभी आकुल-व्याकुल होते हैं, वर्षा में सभी हर्षित। हवा चलती है तब इनकी पत्तियाँ
अपने-अपने ढंग से खुशी का इजहार करती हैं। कोई बूढ़े दादा की तरह हौले-हौले सर
हिलाती हैं, कोई नवयौवना की तरह झूम-झूम कर गाती हैं और कोई छोटे बच्चों की तरह
जोर-जोर से तालियाँ पीटने लगती हैं। भांति-भांति के वृक्ष ! कोई छोटा, कोई बड़ा। कोई
बरगद की तरह मजबूत तो कोई लताओं की तरह कमजोर मगर मैने कभी किसी वृक्ष को एक दूसरे
का गला दबाते नहीं देखा ! इसलिए शहर की भीड़ भाड़ से भागकर
दो घड़ी के लिए बगीचे में आकर बैठना अच्छा लगता है। क्या हम ब्लॉग जगत को ऐसा ही
एक बगीचा नहीं बना सकते ? दिनभर के काम के बाद यहाँ आयें तो पोस्ट पढ़कर
एक सुखद एहसास हो ? नहीं ! तो भी मुझे
कोई फर्क नहीं पड़ता। बंदरों की कृपा तो मुझ पर बनी ही रहती है। J
...............................................................................................................................