देर शाम
जब हो रही थी तेज बारिश
लौट रहे थे घर
बाइक से
चिंता थी
भीग न जाये मोबाइल,
जेब में रखे जरूरी काग़जात
या फिर
नोट
ढूँढकर पॉलिथीन
रख लिये थे
सब समेटकर
डिक्की में।
चिंता थी
घर को भी
किस हाल में होगा
मेरा रखवाला!
बज रही थी
फोन की घंटी
बढ़ रही थी चिंता घर की
उठा क्यों नहीं रहे मोबाइल?
रिंग तो जा रही है पूरी!
सुबह जब निकले थे
तो कितने बीमार से लग रहे थे
कहीं कुछ....
भीगते हुए
जब पहुँचा था घर
तो मुझसे अधिक
भीगी हुई थीं
घर की आँखें।
जब कभी
नाराज होता हूँ
घर से
लगता है
बिला वज़ह
काटने को दौड़ता है यह !
फिर ठहरता हूँ
याद आती हैं
मेरी चिंता में
बार-बार भीगती
घर की आँखें।
.................
घर में थोड़ा उलझ गयें हों,
ReplyDeleteडोर न छोड़ें, जब बाहर हों।
ये एक अलग ही अनुभूति है, अपनी चंता में किसी की आँखें भीगी हुई देखना... जीवन के प्रति विश्वास बढ़ जाता है!
ReplyDeleteघर की भीगी आँखों ने कविता को विशिष्ट बना दिया है!
सुन्दर!
नम आँखों का इंतजार ।
ReplyDeleteआद्र मौसम में घर भी तो आद्र हो जाता है।
ReplyDeleteउनको घर कहते हो, नाम नहीं लेते मुन्नी के पापा ?
घर की सिर्फ दो आँखें नहीं होतीं।
Delete:)फोन की तरफ नजर थी, आंखे गिन नहीं पाया :)
Deleteघर की भी आत्मा होती है।
Deleteघर में ही घर की आत्मा बसती है। :)
Deleteबहुत ही भावमय रचना.
ReplyDeleteरामराम.
इन आँखों की झिडकियां प्यार भरी होती हैं
ReplyDeleteघर की दीवारों की भी रूह होती है !
ReplyDeleteघरवाले और घर दोनों ही करते हैं इन्तजार !
ईंट गारे से मकान बनता है और अपने
ReplyDeleteप्यारों से... घर!
खुबसूरत अहसास !
मेरी चिंता में बार बार भीगती हैं घर की आंखें
ReplyDeleteबहत ही सुंदर, भावपूर्ण, एक जनरेशन पहले के प्यार सी ।
"Gharkee aankhen"......bahut bhavmayi alfaaz!
ReplyDeleteघर जितना भी कभि-कभि काटने को दौड़े ,उसे छोड़ा नहीं जाता.कुछ लोग छोड़ भी देते हैं,मगर वे निर्दयी होते होंगे.श्रीमतीजी और बच्चों को रोते-बिलखते हुये येक सह्रदय ब्यक्ति घर कैसे छोड़ दे ! वैसे छोड़ देने की बात दिल में कभि-कभि आ ही जाती है.
ReplyDeleteवैसे सुबह चलते वक्त क्या हो गया था ,जो बीमार लग रहे थे ? सचमुच बीमार तो नहीं थे ?
इन्तेज़ार सभी को होता है. सुंदर एवं भावपूर्ण.
ReplyDeleteबधिय…… घर का मानवीयकरण …… घर के साथ वाली लगा के भी बढ़िया लगता :-))
ReplyDeleteधन्यवाद।
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