8.10.16

लोहे का घर-21

धुली-धुली धरती

पानी भरे खेत
उड़ते बगुले
खुला-खुला आकाश
लोहे के घर की खिड़की से
दूर-दूर
क्षितिज में दिखते
घने वृक्षों तक
जहाँ तक जाती है नज़र
आनंद ही आनंद
राधे-कृष्ण-राधे कृष्ण।
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लोहे का घर न होता तो जिंदगी कितनी विरान होती सुबह नाश्ता करके बैठो, साथियों से हाय-हलो करो, गांव की ताजी-ताजी हवा लो, हरी-भरी थरती को देखो और किस्मत हो तो और-और मजे भी लूट लो।
शाम दफ्तर से जितने भी थके-मादे छूटो, #ट्रेन में बैठते ही थकान गायब! अपने गोदी में लिटा कर झूला झुलाती, लोरी सुनाती ले जाती है ट्रेन। लोहे के घर के अलावा यह सुख क्या आपको अपने घर में मिल सकता है? कोई है जो आपको घर में इतना प्यार करे?
आप मजाक समझ रहे हैं और मैं सच्चाई बयान कर रहा हूँ। यकीन न आ रहा हो तो घर से 60 किमी दूर अपना ट्रांसफर करवा लो। और भी कई फायदे हैं दूर रहने के। कोई आफिस के काम के लिए आपको कभी तंग न करेगा। छुट्टी में जब घर में रहेंगे तो पूरे घर के रहेंगे।
सरकार को भी लाभ है। जब दफ्तर में होंगे, तो पूरे दफ्तर के बने रहेंगेे। दिन में आफिस से उठ कर न बच्चों की फीस जमा कराने जायेंगे न पत्नी के आदेश पर घर का समान पहुँचाने। पता चला घर में काम लगा है और जनाब भाग-भाग कर घर ही जा रहे हैं काम देखने।
आज अभी का हाल बताऊँ। सभी लेटे-लेटे झूल रहे हैं अलग-अलग बर्ध में। रूट डाइवर्टेड ट्रेन मिली है। पूरी बोगी खाली है। सामने लेटे आदमी की तोंद क्या मस्त हिल रही है! उधर बैठे सफेद दाढ़ी वाले की लम्बी दाढ़ी शांति का संदेश दे रही है। वीडियो देख आनंद विभोर हैं संजय जी। मिर्जा को छोड़ कोई और बेचैन नहीं दिखता पूरी ट्रेन में। जब से लेटा है जाने क्या लिख रहा है अपने मोबाइल में!
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क्यों लेटा वो आदमी? जैसे करेंट लग गया हो! मुझे लेटता देख दौड़ कर लेट गया!!! यह मेरी बर्थ है।
मैने कहा-आओ भाई लेटो। पूरी बर्थ तुम्हारी है, पूरा लेटो। उसके उठने से जो जगह खाली हुई वहाँ मैं बैठ गया। वो इतमिनान से लेट गया। लेटा है पर मुझे ही देख रहा है। लेटने के बाद भी उसे सुकून नहीं है। उसकी निगाहों में गहरी शंका है- बैठा आदमी इतना खुश क्यों है! मैं बैठा-बैठा लिख रहा हूँ, वो लेटा-लेटा मुझे देख रहा है। मेरे बैठने से पहले इसी स्थान पर वो बैठा था। शायद इतना खुश न था। अभी भी खुश नहीं दिखता! शायद सोच रहा है कि बैठ कर भी यह आदमी इतना खुश क्यों है?
अपनी #ट्रेन देर से रूकी है। भंडारी से चलने के बाद रुक गई। अभी एक स्टेशन भी नहीं चली और रुक गई। रुक गई तो रूक गई। अब किसकी ताकत है कि इसे चला दे? सरकारी है । कोई अरबारी-दरबारी तो है नहीं। जब मर्जी होगी तब रुकेगी, जब मर्जी होगी तब चलेगी। क्या मजाल कि आप प्रश्न करें! कोई यूरोपियन ट्रेन तो है नहीं कि लेट करने का कारण बतायेगी और हर्जाना भरेगी। भारतीय है। प्रभु जी की है। भक्तों को भगवान के निर्णय पर प्रश्न करने का क्या अधिकार?
अब चल रही है। चल क्या रही है, भाग रही है। लगता है झुंझलाकर चल रही है। पटरियाँ ऐसे बदल रही है कि पटरी छोड़ देगी! हे प्रभु! गुस्सा मत करो। आराम-आराम से चलो। न रुको न भागो। बनारस पहुँचा दो। हम क्या, पाकिस्तान भी घबड़ा गया है आपकी इस चाल पर।
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लोहे के घर को तपाना शुरू कर दिया सूर्य देव ने। धूप खिड़की से घुस कर पास बैठे यात्री को छू-छा कर आ/जा रही है। कोई शरारती लड़का शीशा चमका रहा हो जैसे! जहाँ बैठा हूँ वहाँ का माहौल बड़ा सभ्य टाइप का गुमसुम-गुमसुम, उदासी भरा है। 5 बुजुर्ग, 3 मजदूर और एक युवा हैं। युवा अखबार पढ़ने मे व्यस्त है, बुजुर्ग कुछ चिंतित दिखते हैं और मजदूर झपकी ले रहे हैं। कल शाम का माहौल कितना जुदा था!
कल शाम बड़ी भीड़ थी ट्रेन में। बमुश्किल जहाँ बैठ पाया था उसके ऊपर की द़ोनो बर्थ पर लड़कों का झुण्ड बैठा था। देख कर अंदाज लगाना मुश्किल था कि पढ़ने वाले लड़के हैं या कोई वानरी सेना! जूता पहने, इस बर्थ से उस बर्थ पर टांगे फेंके मोबाइल में गाना बजा रहे थे मगर कोई गाना सुन नहीं रहा था, सभी बोले जा रहे थे। नीचे से किसी ने हल्के से टोका-जूता तो उतार दो! तो झट उतार कर पंखे के ऊपर रख दिया। अब हवा के साथ धूल भी नीचे झरती रही और वे हा-हा, ही-ही करते रहे।
अपनी बर्थ से कुछ आगे चिड़ियों का झुण्ड बैठा था! जब चहचहाहट कान में गई तो बात साफ हुई। वे भी लगातार बोलते रहने वाली लड़कियाँ थीं। उनकी चहचहाहट लड़कों के ठहाकों से टकरातीं और प्रफुल्ल हो, लौटकर कानों में मिश्री घोलतीं। वे किसी कालेज की स्पोर्ट टीम के बच्चे थे जो किसी कम्पटीशन में भाग ले कर लौट रहे थे। वास्तविकता जान उनकी शरारतों पर गुस्से की जगह प्यार आने लगा था।
यह उम्र ही ऐसी है। इस उम्र में कुत्ते की टेढ़ी पूँछ देख कर भी हँसी आती है। पढ़ लिख कर भाग्य से नौकरी लग गयी तो फिर इनको हमारी तरह पटरी पर दौड़ना ही है। अभी बेपटरी हैं, ठीक हैं। झोला भर हँसी लिए घूम रहे हैं रस्ते में
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भंडारी स्टेशन जौनपुर में भोले बाबा की आरती खतम हुई । अब भजन शुरू हुआ...'सुखी रहे संसार, दुखी रहे न कोय' तक पहुँचते-पहुँचते गोदिया का एनाउंस शुरू हो गया। भक्त पाठ के बाद परसादी भी खा चुके। #गोदिया नहीं आई. अभी समय नहीं हुआ आने का। लगता है आज ठीक समय पर ही आयेगी। वरना 20 मिनट बिफोर रहती थी। इधर 'सुखी रहे संसार' खतम उधर गोदिया प्लेटफार्म पर। मगर हाय! अभी तक इंजन दिखा भी नहीं। इस #ट्रेन की प्रतीक्षा में पूरी टीम है जो कल की फिफ्टी में थे जिसमें चोरी हुई थी। अब दिख रहा है इंजन। हारन भी सुनाई पड़ रहा है। आ रही है गोदिया।
गोदिया आई तो हम सब मूंगफली खाने लगे। कोई खाता और छिलके सहेज कर रखता, कोई बार-बार खिड़की से बाहर फेंकने के लिए उठता। #मोदी जी ने मूंगफली खाने का मजा किरकिरा कर दिया! वो भी क्या दिन थे जब हम पूरी बोगी में छिलके उड़ाया करते थे! अब वे सीन देखने हों तो पैसिंजर की यात्रा करनी पड़ेगी। एक्सप्रेस में तो साफ-सफाई का इतना बवेला मचा है कि लोग छिलके फेंकने से लजाने लगे हैं। एक महिला मेरी बात सुन कर हँसने लगी-अच्छेे त हौ कि साफ-सफाई हौ। केतना अच्छा लगत हौ!
इस ट्रेन में शांति का माहौल रहता है, फिफ्टी में त्योहार का असर दिखता है। बिहार और पश्चिम बंगाल जाने वाले यात्री खूब होते हैं फिफ्टी में। बैठने भर की जगह भी नहीं मिलती। इसमें खूब जगह है। ताव से चल रही है पटरी पर। रोज के यात्री खुश हैं कि 5 दिनों की छुट्टी मिली है। हम सोच रहे हैं कि पूरे 5 दिन लोहे के घर से जुदा रहना पड़ेगा, क्यों न लम्वी यात्रा का प्रोग्राम बनाया जाये! आखिर 5 दिन कटेगा कैसे? क्यों न #आलूफैक्टरी की संभावनाओं पर शोध किया जाय इन छुट्टियों में?
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8 comments:

  1. इस लोहे के घर में स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ हैं

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  2. लोहे का घर... एक पूरी दुनिया या फिर पूरी की दुनिया लोहे के घर में... और आप जैसी नज़र हो तो फिर कहना ही क्या!!

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  3. लोहे के इस जंगल में बिखरी यादों को समेटने का सिलसिला भी कमाल है ... कसमसा रही होंगी न जाने कितनी यादें अभी ....

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