खिड़की के रास्ते
कमरे में
आ ही जाते हैं
कबूतर
मैने इन्हें कई बार कहा..
कहाँ तुम शांति के प्रतीक,
कहाँ यह सरकारी कार्यालय!
यहाँ मत आओ।
तुम चाहे
जितने भी निर्बल वर्ग के हो,
इसमें तुम्हारा
कोई स्थान नहीं!
प्राकृतिक संसाधनों पर
हम मनुष्यों का
हो चुका है
सम्पूर्ण कब्जा,
आरक्षण के साथ
हो चुका है
दाने-दाने का
बंटवारा,
तुम्हारा कोई बिल
बकाया हो ही नहीं सकता
यहाँ मत आओ।
यह सरकारी कार्यालय है
यहाँ
पर कतरने के
मौजूद हैं
सभी सामान
छत पर टँगा हुआ पँखा,
तुम्हें दिखाई नहीं देता?
आवाजें
तुम्हें
भयभीत नहीं करतीं?
जा सकती है जान भी,
यहाँ मत आओ।
इन फाइलों में
चोंच गड़ा-गड़ा कर
पस्त हो जाते हैं मनुष्य भी
तुम्हारी क्या औकात?
तुम्हारी तो
निकल जाती है बीट भी!
यहाँ मत आओ।
दाना चुगे बिना.
व्यर्थ में,
कितने मरे?
इसका कोई आंकड़ा
किसी फ़ाइल में
मौजूद नहीं है
बस इतना जानता हूँ
शायद
असहाय मनुष्यों को भी
कार्यालय की
सीढ़ियाँ चढ़ते देख
कबूतर
अपने पँखों पर इतराते/
ललच जाते हैं!
खिड़की के रास्ते
कमरे में
आ ही जाते हैं।
...............
बहुत सुंदर सूक्ष्म दृष्टि युक्त रचना
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteवाह ! प्रभावशाली रचना..
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteआभार आपका।
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteधन्यवाद अंजान जी।
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11.4.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3302 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
आभार आपका।
Deleteमैने इन्हें कई बार कहा..
ReplyDeleteकहाँ तुम शांति के प्रतीक,
कहाँ यह सरकारी कार्यालय!
यहाँ मत आओ।
वाह !!!
धन्यवाद।
Deleteरचना के माध्यम से बहुत कुछ कह रहे हैं आप ...
ReplyDeleteइस व्यवस्था पे चोट करती लाजवाब रचना है देवेन्द्र जी ...
आभार आपका।
Deleteआभार।
ReplyDeleteबहुत खूब.....
ReplyDeleteसरकारी कार्यालय में फिर भी आ ही जाते हैं ये
आखिर कबूतरखाने से जो हो चुके सरकारी कार्यालय...
वाह!!!
लाजवाब तंज...
धन्यवाद।
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteधन्यवाद।
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