11.5.20

रोटी और नींद

औरंगाबाद की घटना सुनी तो पहले लगा, कहीं चलते-चलते हारकर सामूहिक आत्महत्या तो नहीं कर लिया मजदूरों ने! फिर पता चला नहीं, थककर चूर हो गए थे और सो गए थे रेलवे ट्रैक पर। इस घटना से नींद की गहराई का पता चलता है। कितनी गहरी हो सकती है नींद! रेलवे ट्रैक पर भी आ सकती है ! मालगाड़ी की आवाज से भी नहीं टूटती। ट्रैक पर रोटियाँ बिखरीं थीं मतलब उस दिन दुर्भाग्य से पेट भर गया होगा मजदूरों का। भूखे होते तो शायद नहीं आती इतनी गहरी नींद। किसे पता था कि पेट का भरा होना भी, मौत का कारण हो सकता है!

कभी हमको भी आती थी नींद। सोए रहते थे बरामदे में और आतिशबाजी करते हुए संकरी गली से गुजर जाती थी पूरी बारात लेकिन नहीं टूटती थी नींद। वो बचपन के दिन थे। वो दिनभर खेलते रहने के बाद की थकान थी। यह दिनभर रेलवे ट्रैक पर पैदल चलने की थकान है। बहुत फर्क है दोनो थकान में लेकिन नींद में कोई फर्क नहीं। घर में सोए हो तो गली से, गुजर जाती है पूरी बारात, ट्रैक पर सोए हो तो तुम्हें चीरकर, फाड़ते हुए, गुजर सकती है मालगाड़ी।

मजदूरों की नींद नहीं टूटी लेकिन उनके मरने के बाद जाग गई सरकारें। ऐसा पहली बार नहीं हुआ। अक्सर, हादसों के बाद ही, टूटती है, सरकारों की नींद। विशाखापत्तनम में जागी, औरंगाबाद में जागी और आगे न जाने कितनी बार हमको/आपको आएगी नींद और न जाने कितनी बार जागेंगी सरकारें! 

नींद बड़ी जालिम चीज है। हमारी हो, सरकारों की हो या दूसरे जिम्मेदारों की, जब-जब पेट भरेगा, आएगी जरूर। भूखे को नहीं आती। भूख, भोजन और नींद का आपस मे बड़ा गहरा गठजोड़ है। श्रमिक को थकान लगती है, भूख लगती है और रोटी मिल जाय तो नींद भी लगती है। जैसे रोटी जरूरी है, नींद भी जरूरी है। नींद न लगे तो श्रमिक नहीं कर पाता श्रम। अपने और अपने परिवार की रोटी और नींद से अधिक कुछ सोच भी नहीं पता श्रमिक। सोच ही नहीं पाता तो चाहेगा क्या! मालिक को श्रम चाहिए तो इतना तो करना पड़ेगा। श्रम के बदले, श्रमिकों के लिए रोटी और नींद की व्यवस्था तो करनी पड़ेगी।

रोटी और नींद की व्यवस्था होती तो वह घर नहीं जाता। वह अपने उसी गाँव में वापस जाना चाहता है जहाँ उसके पास काम नहीं है लेकिन उम्मीद है कि वहाँ अपने लोग हैं। आधी रोटी खा कर भी आधी रोटी खिलाएंगे। बहुत खुशी से नहीं जा रहा है घर। तुम्हारा धंधा बन्द हो गया, तुम्हें काम नहीं चाहिए तो छीन ली तुमने उसकी रोटी। दुखी होकर जा रहा है। पैदल जा रहा है। रेलवे ट्रैक पर जा रहा है। जब रोटी मिलती है तो इतनी ताकत भी नहीं बचती कि सोने के लिए कोई सुरक्षित ठिकाना ढूँढ सके। जहाँ है, वहीं सो जा रहा है। सड़क है तो सड़क पर, रेलवे ट्रैक है तो रेलवे ट्रैक पर। हम उनकी तरह थके नहीं हैं, हमारा पेट भरा है और हमको बुद्धि भी आती है कि उन्हें रेलवे ट्रैक पर नहीं सोना चाहिए था। वे थके हैं, भूखे हैं तो जहाँ रोटी मिलेगी, वहीं सो जाएंगे। वे नहीं जागे लेकिन हे मालिक! अब तुम जाग जाओ। रोटी नहीं दे सकते तो सुरक्षित घर तक पहुँचाओ। मत भूलो कि कल फिर सूरज निकलेगा, कल फिर खुलेंगे कारखाने और कल फिर तुम्हें इनकी आवश्यकता पड़ेगी।
...@देवेन्द्र पाण्डेय।

1 comment:

  1. बेहद अफ़सोसजनक हादसा, श्रमिकों का पलायन रुकने को नहीं आ रहा है, कोई पैदल, कोई ऑटो से कोई बस से जा रहा है, किसी भी आपदा का शिकार सबसे अधिक श्रमिक वर्ग ही होता है.जो सड़कें बनाते हैं, रेल की पटरियां बिछाते हैं, फैक्ट्रियों में काम करते हैं, ताकि हम जैसे लोग आराम का जीवन जी सकें उनके जीवन पर आ बनी है आज.

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