एक बनारसी कवि ने दो बनारसी कवियों का एक मजेदार किंतु सत्य किस्सा सुनाया। जिसे मैं अपने शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूँ। दोनो कवि मुफलिसी में जीवन गुजारते लेकिन कविता के लिए जान देते। एक दिन एक कवि ने रात्रि में 10 बजे दूसरे कवि का दरवाजा खटखटाया...
कवि जी हैं? कवि जी छंद रच रहे थे, अचकचा कर द्वार खोला तो सामने दर्पण में अपनी छवि की तरह दूसरे मित्र कवि को खड़ा पाया। चौंक कर बोले...इस समय ! यहाँ!!! आइए, आइए, भीतर आइए, बाहर क्यों खड़े हैं?
कवि जी कमरे में घुसते ही बोले..एक नई कविता लिखी थी, सोचा सुना ही दूँ। गलत समय आ गया, आपको कोई एतराज तो नहीं?
आतिथेय ने अतिथि से कहा..नहीं, नहीं, एतराज कैसा! आपने तो मेरी मुश्किल आसान कर दी। मैं अभी छंद पूरा करते-करते सोच रहा था.. श्रीमती जी तो कविता के नाम से चिढ़ती हैं, किसे सुनाऊँ? तभी किस्मत से आप आ गए। शीतल जल पिलाता हूँ, आप अपनी कविता प्रारम्भ कीजिए।
अतिथि कवि प्रसन्न हो कविता सुनाने लगे और आतिथेय वाह! वाह! करने लगे। इधर कविता समाप्त हुई, उधर कवि जी के सब्र का बांध टूटा...आपने बहुत अच्छी कविता सुनाई अब मेरा छंद सुनिए। प्रशंसा से मुग्ध मेहमान जी ने कहा..हां, हां, सुनाइए। मेजबान कवि जी ने अपना ताजा छंद सुनाया और मेहमान कवि जी ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करी।
कविता सुनने सुनाने का यह दौर लम्बा चला। रात्रि के डेढ़ बजे गए। दूसरे कमरे से रह-रह कर श्रीमती जी के गुर्राने और बाउजी के नींद में खर्राने की आवाजें साफ सुनाई पड़ रही थीं। तभी मेहमान कवि जी ने डरते-डरते फरमाइश की...एक कप चाय मिल जाती तो....मजा आ जाता, नहीं? मेजबान मांग सुन, मन ही मन थर्राए..घर में न दूध न चायपत्ती। होती भी तो सर फोड़ देतीं श्रीमती जी। प्रत्यक्ष में हकलाए...हां, हां, क्यों नहीं, लेकिन श्रीमती जी तो सो चुकी लगती हैं। चलिए, बाहर चाय पिलाते हैं आपको।
मेहमान जी बोले..रहने दीजिए, जब घर मे नहीं मिल रही तो इतनी रात में बाहर कहाँ मिलेगी?
मेजबान कवि जी ताव खा गए..मिलेगी कैसे नहीं! आपने चाय पीने की इच्छा प्रकट की तो हम आपको चाय पिलाए बिना जाने कैसे दे सकते हैं! चलिए, घर से बाहर निकलिए तो सही।
दोनो कवि मित्र रात्रि के टेढ़ बजे सड़क की खाक छानते, चाय की दुकान ढूँढते, सुनते/सुनाते चले जा रहे थे। कहीं दुकान खुली होती तब न चाय मिलती। रथयात्रा से साजन सिनेमा हॉल तक (लगभग 2 किमी) चले आये, चाय नहीं मिली। मेहमान निराश हो बोले..मैं तो पहिले ही कह रहा था, चाय नहीं मिलेगी। मेजबान बोले..कैसे नहीं मिलेगी? चलिए, कैंट रेलवे स्टेशन तक चलते हैं, वहाँ तो रात भर दुकानें खुली रहती हैं।
रेलवे स्टेशन लगभग 4 किमी दूर था लेकिन वे चलते रहे। आगे चौराहे पर पुलिस की जीप रात्रि गश्त में निकली थी। दरोगा जी ने देखा..दो दुबले-पतले सात जनम के भूखे युवक, बिखरे बाल, बढ़ी दाढ़ी-मूँछें, लहराते, गाते चले जा रहे हैं! रोककर पूछा...शराब पी रखी है? कहाँ जा रहे हो इतनी रात को? कवियों को गुस्सा आ गया। राष्ट्र चिंतकों का यह अपमान! घोर कलियुग है। गुर्राकर बोले..हम कवि हैं। कविता सुनाकर थक गए तो चाय पीने स्टेशन जा रहे हैं। आपको हमसे तमीज से बात करनी चाहिए। दरोगा जी को गुस्सा आ गया। सिपाहियों से कहा..पकड़कर गाड़ी में बिठाओ, दोनो को। एक रात बन्द रहेंगे हवालात में तो रात में घूमना भूल जाएंगे।
कवि विरोध करते रहे लेकिन भारत मे पुलिस से बड़ा कौन है? दोनो को गाड़ी में बिठाया और 10 किमी दूर मडुआडीह स्टेशन के पास उतारते हुए दरोगा जी बोले..कवि हो इसलिए छोड़े दे रहे हैं, कवि न होते तो जेल में बन्द कर देते। जाओ! सुबह तक चाय जरूर मिल जाएगी। पी कर ही घर जाना।
दोनो खिसियाए, मुँह लटकाए, दरोगा जी को कोसते, घर की ओर पैदल ही चलने लगे। दोनो मित्रों को घर पहुँचने में भोर हो गया लेकिन मानना पड़ेगा कि चाय पीकर ही एक दूसरे को गुडबाय कहा।
नशा है ये भी एक प्रकार का, जो आसानी से नहीं उतरता
ReplyDeleteबहुत खूब
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १५ मई २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
हाँ भाई.... यह नशा ही होता है।
ReplyDeleteआप सभी का आभार।
ReplyDeleteदो बातों को उन्होंने सिद्ध कर दिया। एक तो वे पक्के कवि और दूसरे उससे भी पक्के बनारसी।
ReplyDeleteवाह!!बहुत खूब👌
ReplyDeleteमजेदार किस्सा
ReplyDeletewah! Ise kehte hain kavi man!
ReplyDeleteआप सभी का आभार।
ReplyDeleteबहुत खूब।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
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