प्रस्तुत है विश्व पर्यावरण दिवस को समर्पित एक नवगीत जो वर्ष 2002 में उत्तर प्रदेश के नौ कवियों के काव्य संग्रह, काव्य स्वर में प्रकाशित है।
कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....
कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....
कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ
शहरों की आबादी जब बढ़ी
खेतों में पत्थर के घर उगे
कमरों में सरसों के फूल हैं
चिड़ियों को उड़ने से डर लगे।
कटने लगी आमों की डालियाँ
पिंजड़े में कोयल है मोर है।
[कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....]
प्लास्टिक के पौधे हैं लॉन हैं
अम्बर को छूते मकान हैं
मिटा दे हमें जो इक पल में
ऐसे भी बनते सामान हैं।
उड़ने लगी धरती की चीटियाँ
पंखों में सासों की डोर है।
[कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....]
सूरज पकड़ने की कोशिश ने
इंसाँ को पागल ही कर दिया
अपनी ही मुठ्ठी को बंद कर
कहता है धूप को पकड़ लिया।
दिखने लगीं जब अपनी झुर्रियाँ
कहता है ये कोई और है।
[कहने लगीं अब बूढ़ी दादियाँ.....]
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(चित्र गूगल से साभार)
(चित्र गूगल से साभार)
सुंदर कविता, मजा आ गया।
ReplyDelete---------
कौमार्य के प्रमाण पत्र की ज़रूरत किसे है?
ब्लॉग समीक्षा का 17वाँ एपीसोड।
प्लास्टिक के पौधे हैं लॉन हैं
ReplyDeleteअम्बर को छूते मकान हैं
मिटा दे हमें जो इक पल में
ऐसे भी बनते सामान हैं।sahi kaha dadi nani ne
प्लास्टिक के पौधे हैं लॉन हैं
ReplyDeleteअम्बर को छूते मकान हैं
बहुत सुंदर प्रस्तुति सच्चाई से कही गयी दिल की बात .....
प्रभावी अभिव्यक्ति .......
ReplyDeleteपर्यावरण चेतना के लिए बढियां गीत !
ReplyDeleteप्लास्टिक के पौधे हैं लॉन हैं
ReplyDeleteअम्बर को छूते मकान हैं
मिटा दे हमें जो इक पल में
ऐसे भी बनते सामान हैं।
क्या बात है. बहुत सुंदर कटाक्ष आजकी स्थिति पर.
शुभकामनायें.
प्लास्टिक के पौधे हैं लॉन हैं
ReplyDeleteअम्बर को छूते मकान हैं
मिटा दे हमें जो इक पल में
ऐसे भी बनते सामान हैं।
वर्तमान हालातों को आपने बखूबी अभिवयक्त किया है .....आज हम बिलकुल भी चिंतित नहीं है पर्यावरण के प्रति ...अगर आज हम पेड़ लगायेंगे तो कल आने वाली पीढ़ी को उसका लाभ होगा ...बस यह सोचकर हमें निरंतर पर्यावरण के प्रति सचेत रहना चाहिए ...आपका आभार
वाह ! बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteपर्यावरण के बदलते रूप पर सचेत करती सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteदिखने लगीं जब अपनी झुर्रियाँ
कहता है ये कोई और है।
कब तक झुठ्लायेंगे इस के दुष्प्रभाव को ।
जलवायु बहुत बदल गई है,इस बार पोखरा में अब तक उतनी गरमी नहीं हुई है,जितनी होती थी.तरकारी औए फल खाने से डर लगता है,न जाने कौन सा रसायन हो ? न जाने कितनी आपदाएं सहनी पड़ेंगी !
ReplyDeleteन जाने हमारे बाद की पीढ़ी कैसे जीवन गुजारेगी !
It should be our prime duty to save our environment.
ReplyDeleteDaadee sahee kah rahee hain.....kya karen becharee!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteप्लास्टिक के पौधे हैं लॉन हैं
ReplyDeleteअम्बर को छूते मकान हैं
मिटा दे हमें जो इक पल में
ऐसे भी बनते सामान हैं।
bahut sunder .
har jagah jhoot aur fareb hai ...
asliyat kahan gayi ...?
gahan abhivyakti ke liye badhai ...!!
दिखने लगीं जब अपनी झुर्रियाँ
ReplyDeleteकहता है ये कोई और है।
बहुत बढ़िया !
yathart batati hui saarthak rachanaa.
ReplyDeleteप्लास्टिक के पौधे हैं लॉन हैं
अम्बर को छूते मकान हैं
मिटा दे हमें जो इक पल में
ऐसे भी बनते सामान हैं।
badhaai sweekaren.
please visit my blog.thanks
no doubt , ek achhi prastuti!
ReplyDeletesandehs deti hui!
aaj ke is adhunik jivan shailly ki aur badhti hui ye mansikta!
ka sundar chitran!
बड़ा ही सुन्दर नवगीत।
ReplyDeleteप्लास्टिक के पौधे हैं लॉन हैं
ReplyDeleteअम्बर को छूते मकान हैं
बहुत सुन्दर .. यथार्थ