चित्र राष्ट्रीय सहारा के वाराणसी संस्करण से साभार। पूरा समाचार यहाँ पढ़ सकते हैं।
यह वाराणसी के तुलसी घाट पर 400 वर्षों से भी अधिक समय से प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला लख्खा मेला है। इसकी शुरूवात गोस्वामी तुलसी दास जी ने की और जिसे आज भी प्रदूषण रूपी कालिया नाग से मुक्ति हेतु चलाये जाने वाले अभियान के रूप में प्रतिवर्ष पूरे मनोयोग से मनाया जाता है। यह अलग बात है कि इतने प्रयासों के बाद भी गंगा में गंदी नालियों को बहना रूक नहीं रहा है। जल राशि निरंतर कम होती जा रही है। किनारे सिमटते जा रहे हैं। हर वर्ष वर्षा के बाद जब गंगा का पानी उतरता है तो घाट पर जमा हो जाता है मिट्टी का अंबार। किनारे नजदीक से नजदीक होते जा रहे हैं...सूखती जा रही हैं माँ गंगे।
रविवार, 30 अक्टूबर, ठीक शाम 4.40 बजे कान्हां कंदब की डार से गंगा में गेंद निकालने के लिए कूदते हैं और निकलते हैं कालिया नाग के मान मर्दन के साथ। अपार भीड़ के सम्मुख कान्हां तैयार हैं नदी में कूदने के लिए। भीड़ में शामिल हैं वेदेशी यात्रियों के साथ एक बेचैन आत्मा भी..सपरिवार। बजड़े में ढूँढिये विदेशी महिला के पीछे हल्का सा चेहरा देख सकते हैं। मैने अपने कैमरे से भी कुछ तश्वीरें खीची लेकिन उनमें वह मजा नहीं है जो आज राष्ट्रीय सहारा के वाराणसी अंक में प्रकाशित इस चित्र में है। पास ही खड़े मेरे मित्र गुप्ता जी ने भी अपने मोबाइल से खींची कुछ तश्वीरें मेल से भेजी हैं जिन्हें नीचे लगाता हूँ।
नाग को नथते हुए प्रकट हुए भगवान श्री कृष्ण
हम घाट के सामने बजरे पर बैठे हुए थे। कान्हां का चित्र पीछे सें खीचा हुआ है। मजे की बात यह कि श्री कृष्ण के निकलते ही काशी वासी जै श्री कृष्ण के साथ-साथ खुशी और उल्लास के अवसर पर लगाया जाने वाला अपना पारंपरिक जय घोष हर हर महादेव का नारा लगाना नहीं भूल रहे थे।
चारों ओर घूमने के पश्चात घाट की ओर जाते श्री कृष्ण।
घाट किनारे खड़े हजारों भक्त बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं अपने कान्हां का। डमरू की डिम डिम और घंटे घड़ियाल के बीच आरती उतारने के लिए बेकल ।
इन्हें तो आप पहचान ही चुके हैं।
कौन कहता है कि बाबा तुलसी दास केवल राम भक्त थे ! वे तो कान्हां के भी भक्त थे। तभी तो उन्होने गंगा तट को यमुना तट में बदल दिया था। धन्य हो काशी वासियों का प्रेम कि वे आज भी पूरे मनोयोग से इस लीला को मनाते हैं।
जै श्री कृष्ण।
हमें भी सूचना दे दिए होते महराज -आज तक इस दृश्य का आप सरीखा चाक्षुस आनंद नहीं उठाया !
ReplyDeleteअच्छी जानकारी मिली ....पोस्ट के माध्यम से
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रेरणादायक रचना|
ReplyDeleteबाबा तुलसीदास ने सांस्कृतिक- प्रदूषण के साथ-साथ प्राकृतिक-प्रदूषण के विरुद्ध भी काम किया,यह जानकारी अच्छी लगी !
ReplyDeleteनीचे वाली फोटू तो 'इंटरनेशनल' हो चुकी है !
अद्भुत!
ReplyDeleteब्लॉग जगत न होता तो कितनी जानकारियों से हम वंचित रह जाते।
आभार!
एक तरफ हम कालिया रूपी प्रदूषण को मिटाने के लिए मेले भरते है दूसरी तरफ इन्हीं मेलों व पर्वो की आड़ में नदियों को प्रदूषण से भर डालते है|
ReplyDeleteGyan Darpan
RajputsParinay
जानकारीपरक, सार्थक पोस्ट आभार
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteसुन्दर तस्वीरों के साथ साथ बढ़िया जानकारी मिली! शानदार प्रस्तुती!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
अच्छी जानकारी का आभार .............हाँ ये चेहरा तो पहचाना हुआ है देव बाबू का और भाभी जी को प्रणाम|
ReplyDeleteफुर्सत मिले तो जज़्बात की नयी पोस्ट ज़रूर देखें|
परम्पराओं के रंग में रंगा आधुनिक जीवन।
ReplyDeleteअच्छी जानकारी मिली ..
ReplyDeleteआपका चेहरा तो दिखा नहीं . विदेशी महिला का भी नहीं दिख रहा . कुछ तो संतोष होता . :)
ReplyDeleteलेकिन लास्ट वाली-- जाने पहचाने से लग रहे हैं . शुक्रिया .
हम भी अंतिम फोटो मे ही पहचान पा रहे हैं...गंगे को तो हम लोग पंगु बनाते जा रहे हैं। न जाने कितने कान्हा चाहिए प्रदूषण के मान मर्दन के लिए!
ReplyDeleteबेहतरीन रिपोर्ट,आभार.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और बेहतरीन जानकारी से भरी पोस्ट बधाई
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और बेहतरीन जानकारी से भरी पोस्ट बधाई
ReplyDeleteइस नविन और अद्भुत जानकारी को हमारे सम्मुख रखने के लिए आभार
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteछठपूजा की शुभकामनाएँ!
Bahut achhee jaankaaree milee. Tasveeren bhee badee sundar hain!
ReplyDeleteइस बहाने ही कुछ प्रदूषण दूर हो सके , नंदियों , प्रकृति और मन का भी !
ReplyDeleteऐसा भी कोई उत्सव होता है , इससे पहले पता नहीं था ...
आभार !
बहुत अच्छा लगा
ReplyDeleteआपको सपरिवार उस भीड-भाड मे मजे ले-लेकर फोटो खिचवाते देखकर अछ्छा लगा.बनारसी सस्कृति मे आप खूब मजा ले रहे है और साथ ही उसका वर्णन भी कर रहे है.ये येक अछ्छी बात है.आपको समाजशास्त्र मे प्राइवेट एम. ये. कर लेना चाहीए.
ReplyDeleteमैं वाराणसी में जब था, तब काम के बोझ के कारण यह नाग नथैया न देख पाया। अब आपके माध्यम से देखा। धन्यवाद।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर
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