28.4.12

नग्नता


एक समय था
जब
हम सभी नंगे थे

सभी के पास
पेट था
मुँह था
और थी
कभी न खत्म होने वाली
भूख

भूख ने श्रम
श्रम ने भोजन
भोजन ने जीवन
जीवन ने भय
और भय ने
ईश्वर का ज्ञान दिया।

तब
जब हमने वस्त्र नहीं देखे थे
तो हमारे भगवान कहाँ से पहनते !
वे भी
हमारी तरह
नंगे थे।

मनुष्य ने समाज
समाज ने सभ्यता
सभ्यता ने संस्कृति को जन्म दिया

धीरे-धीरे
सभी वस्त्रधारी हो गये
हम भी
तुम भी
हमारे भगवान भी।

हम अपने करिश्मे पर इतराने लगे
मगर हमारे भगवान
हम सभ्य लोगों को देख-देख मुस्कराने लगे
यदा कदा
मस्ती में
वंशी बजाने लगे

हममे कुछ ऐसे भी हुए
जिन्हें वंशी की धुन सुनाई पड़ी
सत्य का ज्ञान हुआ

जो हाथों में दर्पण लिए
सभ्य लोगों को बताने लगे
तुम नंगे हो ! तुम नंगे हो !! तुम नंगे हो !!!
तुम भी ! तुम भी !! तुम भी !!!

हम इतने सभ्य थे
कि हमने
दर्पण दिखाने वालों को
सूली पर चढ़ा दिया

मगर अफसोस
सब कुछ जानते हुए
आज भी मैं
दर्पण के समक्ष खड़े होने की
हिम्मत नहीं जुटा पाता
लगता है
वह
दिखा देगा मुझे
मेरी नग्नता !


नोटः- मुझे लगा कि यह कविता बिना किसी संदर्भ और पूर्वाग्रह के पढ़ी जानी चाहिए। संदर्भ देना गलत था। इसीलिए पहले दिया गया संदर्भ हटा रहा हूँ। आपको होने वाली असुविधा के लिए खेद है। कमेंट बॉक्स अपनी नादानी से बंद कर दिया था। अब खोल रहा हूँ।..धन्यवाद।

..............................................

69 comments:

  1. तन के नंगेपन से अधिक विचलित करता है अपने मन का नंगापन।

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  2. अथ - पूरा इतिहास - इति ।


    आदिकाल की नग्नता, गई आज शरमाय ।

    परिधानों में पापधी , नंगा-लुच्चा पाय ।।

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  3. इति मानवता कथा !
    अद्भुत !

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    1. गुरूजी,यह मानवता कथा का समापन नहीं है !

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    2. गुरू शिष्य के बीच में काहे को कूदें। :)

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  4. wah, bahut prabhavshali rachna

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  5. सभ्यता

    अगर कपड़े पहनने से

    आजाती

    सो समाज में

    सब सुरक्षित होते

    कपड़े

    सुरक्षा कवच मात्र हैं

    शरीर के

    असंख्य हैं जो

    कपड़े पहने रह कर भी

    असभ्य हैं

    क्या दर्पण उनको दिखाना

    और उनको ये अहसास कराना की

    उनकी असभ्यता से

    नगनता बढ़ रही हैं

    गलत हैं

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    1. नहीं..बिलकुल गलत नहीं है। दर्पण दिखाना ही चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि दर्पण दिखाने वाला क्या खुद दर्पण के सामने खड़े होने का माद्दा रखता है? क्य वह खुद सभ्य है? क्या वह जिसे असभ्य कह रहा है वह वाकई असभ्य है? क्या वह जो कह रहा है वही सही है ? क्या वह असभ्य को सुधारने में किसी भी प्रकार का बलिदान देने को तत्पर है? यदि नहीं तो उसे कौन बर्दाश्त करेगा? कौन मानेगा कि जो तुम कह रहे हो वही सही है? हाँ, तर्क-वितर्क कर सकते हैं। दोनो की नीयत साफ हो तो थोड़ी सहमति भी बन सकती है। कुछ जमीन, कुछ आसमा साफ हो सकता है।

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    2. maanyataa hamesha dohri rahii haen isliyae to paribhashaye apnae anusaar ban rhaee haen

      ek maank ho samvidhaan aur kanun to darpan ki jarurat hi khatam hojaye

      saadar
      rachna

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    3. जी। इसीलिए समय समय पर दर्पण दिखाने के लिए उन्हें आगे आना पड़ता है जिन्हें सत्य का ज्ञान हुआ है। जो सत्य के लिए मरने मिटने को तैयार हैं। समस्या तो हम जैसों के लिए है जिन्हें दर्पण के सामने खड़े होने के लिए हिम्मत जुटानी पड़ती है। कविता के अंत में यही निष्कर्ष है।

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    4. ---सुन्दर रचना...हां सही कहा संतोष जी ने..मानव की कथा का समापन कब होता है...यहां तो सदा प्रारम्भ ही होता है...

      ----दोहरी मान्यता नहीं ...मनुष्य का आचरण होता है....संविधान और कानून तो सिर्फ़ मान्यता को बताते/ व्याख्यायित करते हैं...स्वयं को दर्पण के सम्मुख खडा होने योग्य बनाने पर ही सभ्य कहलाना संभव है....
      ---कपडे यदि सिर्फ़ सुरक्षा मात्र हैं तो किस से सुरक्षा...सामने वाले से ही न, अर्थात सामने वाले को सभ्य रखने वास्ते( यह मन बडा लोभी-पापी होता है जी)...अन्यथा आज कपडों की क्या जरूरत है....कानून है..पुलिस है..राज्य है...कोर्ट भी है...

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    5. अति सुन्दर

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  6. पहले नंगे हरियाले जंगल में रहते थे ।
    अब के नंगे कंक्रीट जंगल में रहते हैं ।

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  7. कपड़ों से कहीं अधिक हम अपने आचरण में नंगे हैं !!

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  8. असभ्यता नग्नता को और बढ़ा देती है.

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  9. इस पैरहन में सभी नंगें हैं ,नंगों की सभ्यता नंग ही पैदा करेगी .बढ़िया विकास यात्रा निर्दोष जिज्ञासु मन की शातिर होने की .

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  10. Kya kamal kee baat kahee hai aapne!

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  11. तब तन से वस्त्रहीन थे अब आचरण से ...क्या बदला है..कुछ भी तो नहीं..

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  12. जो दिया था वो हटा रहा हूँ, जो बंद था उसे खोल रहा हूँ
    इन्हीं लक्षणों के चलते दर्पण के सामने खड़े होने कि हिम्मत ...., वो भी जुट जायेगी धीरे धीरे :)

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  13. समस्या यह है कि सबके सब येक ही जैसे होने के कारण दर्पण न देखने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता.अन्धों के गावं मे रहते हुये आँख खोलने की इछ्या भी घनिभूत नहीं हो पाती.

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    1. बहुत खूब...बल्लभ जी...
      ----गालिव ने कहा था...

      अन्धों के शहर में दर्पण बांटता हूं मैं...

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  14. मन के नंगेपन के लिए तो दर्पण की भी आवश्यकता नहीं है ...

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    1. मन के नंगेपन के लिए साधारण दर्पण से काम नहीं चलेगा हाई क्वालिटि का दर्पण होना चाहिए । यह तो उन्हीं के पास होता है जिसे सत्य का ज्ञान हो जाय।

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  15. अली सैयद 24-09-2011
    बेहतर समाज के विरुद्ध , दैहिक नग्नता की तुलना में विचार की नग्नता , कहीं ज्यादा बड़ा संकट है !

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    1. एक पंक्ति में इतना बढ़िया सार लिखा आपने! लेकिन देखिये न स्पैप में चला गया था।:)

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  16. बिना 'सन्दर्भ' के कविता पढ़ते हुए अपने 'पूर्वाग्रह' से मुक्त नहीं हो पा रहा हूं ! मुझे लग रहा है कि ये कविता ज़रूर मैंने सन्दर्भ सहित लिखी होगी :)

    असुविधा के लिए खेद तो सभी व्यक्त करते हैं इसमें कौन सी बड़ी बात है ? कभी सुविधा के लिए खेद व्यक्त करके दिखाईये तो जाने :)

    कमेन्ट पात्र दानियों के लिए धरा जाता है ! उसे नादानियों के हवाले क्यों कर बैठे आप :)

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    1. तीन प्रश्न, तीन उत्तर, तीन स्माइल...

      (1)आप ने ठीक से नहीं लिखी होगी तभी बवेला मजा हुआ है :)

      (2)आपको अपने कमेंट पर त्वरित प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। इस सुविधा के लिए खेद है:)

      (3)कहा तो...नादानी से:)

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  17. आत्मा का वस्त्र उसकी पवित्रता है उसे जरूरत नही किसी वस्त्र की बाकि तन से ज्यादा जरूरी है पहले मन को पवित्र करें ।दृष्टि के दोष को दूर करें ………बेहद गंभीर चिन्तन्।

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  18. वस्त्रहीनता तो अब और ज्यादा है संस्कार-वस्त्रों की हीनता

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  19. hamam main sab nange hai...kahe kuch bhee...

    jai baba banaras.....

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  20. यहाँ भी दो तरह के लोग होते हैं एक वे जो सभ्य होते हुए भी दर्पण के सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाते और दूसरे वे भी हैं, जो अपनी असभ्यता के साथ ढिठाई से दर्पण के सामने खड़े हो जाते हैं, क्या कहें ऐसे लोगों को???

    आपका हमारे ब्लॉग पर स्वागत है, आपकी प्रतिक्रिया देखकर बहुत अच्छा लगा... आपका बहुत-बहुत आभार...

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    1. क्य कहिये एसे लोगों को जिनकी फ़ितरत छुपी रहे..

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  21. जहां तक मैं समझ पायी हूँ ... आपने वस्त्रों के ज़रिये बदलते वक़्त की बात कही है ... हम अपने आप को उसके साथ ढालते गए ... स्वार्थी होते गए ... हर हद्द पार करते गए ... आईने के माध्यम से आपने अपने आप को अपनी आत्मा के समक्ष खड़ा किया है ... हम सारी दुनिया से झूठ बोल सकते हैं ... लेकिन अपने आप से कभी भी नहीं ... मुझे आपकी रचना बेहद पसंद आई ...

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  22. बढ़िया प्रस्तुति भाई साहब सुन्दरम मनोहरं -.ये सभ्यता का दौर है -यहाँ :
    हर आदमी में होतें हैं , दस बीस आदमी ,
    जिसको भी देखना ,कई बार देखना
    कृपया यहाँ भी पधारें
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    1. कमेंट के साथ प्रचार! कमाल की टेक्निक है!! कोई हमको भी सिखा दे तो हम भी ऐसे ही किया करें।:)

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  23. जो लोग देर में आने के कारण सन्दर्भ न पढ सके, उनके साथ तो भेदभाव हो गया न!

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    1. बस दो कमेंट आए थे डाक्टर साहब...अधिक भेदभाव नहीं:)

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  24. मन का साफ़ शुद्ध होना ज्यादा ज़रूरी है , यह दृष्टिकोण भी जचता है !

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  25. क्या बवाल है समझई नई आया। :)

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    1. अच्छा तो है। समझ में आना जरूरी होता तो समझा ही देता।:)

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    2. अपना कमेंट पाकर बड़ा सुकून मिला कि कुछ न कुछ तो कह दिया है। क्या कहा है ये फ़िर से समझने की कोशिश भी नहीं किये। :)

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  26. नग्नता कोई आश्चर्य नहीं, नैशार्गिक है , नग्नता का निर्धारण उसके द्द्देश से होता है , वैचारिक नग्नता,कहीं शारीरिक नग्नता से विद्रूप होती है / प्रदर्शन की लालसा,साधना के संकल्प को अतिरंजित करती है ... अंतर यही होता है, एक सर्व हिताय होती है/ एक ,स्वसुखाय / मनीषियों की नग्नता में ,मुफलिस की नग्नता ,व माडल की नग्नता में अंतर कितना है ......सर्वविदित है .....विचारशील पोस्ट

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  27. ---अगर तन नन्गा रहेगा तो उसी में स्वयं का व अन्य का मन व्यस्त रहेगा, लगा रहेगा....मन की सुन्दरता, सारभावता, आचरण पर ध्यान ही नहीं जायगा... अतः तन की नग्नता् ढकना आवश्यक है...फ़र्स्ट इम्प्रेशन इस लास्ट इम्प्रेशन...
    --यह मन वायवीय-तत्व है...तरल...उडनशील...

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    1. सही कहा मन कभी तरल हो किसी भी पात्र में उस सा ही हो जाना चाहता है तो कभी उड़नशील हो गगन चूमना चाहता है। मन को बांधना तो अत्यंत दुरूह है। तन को वस्त्र पहनाये जा सकते हैं। लेकिन ज्ञानी कहते हैं...

      क्षिति जल पावक गगन समीरा...तत्व मिलाई दियो पांचा हमार पिया।
      ..काहेको इसकी सुंदरता में श्रम जाया करना:)

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  28. गहन प्रस्तुति ...तन के लिए तो वस्त्र हैं पर मन के लिए ? बहुत कम लोग होते हैं जो दर्पण में मन को देखते हैं ॥वैसे स्वयं से कब कौन छिपा है

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  29. वक़्त है बाबू जी वो दर्पण वक़्त.....जो ठीक समय पर हमे हमारी नग्नता के दर्शन करवा देता है ।

    एक शेर अर्ज़ है -

    अपने चेहरे के किसे दाग नज़र आते हैं,
    वक़्त हर शख्स को आइना दिखा देता है,

    बहुत ही सटीक और सशक्त पोस्ट.....हैट्स ऑफ इसके लिए।

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  30. दर्पण देखकर,असलियत समझकर भी कोई अंधा बना रहे तो क्या कीजियेगा ?

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    1. जिस दर्पण की बात ज्ञानी कहते हैं उसे देख पाने के बाद कोई अंधा बना ही नहीं रह सकता।

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  31. वाकई बहुत गहराई से वार करती कविता आपकी ........वैसे मै घूमने में ज्यादा यकीन रखता हूं पर आपकी कविता अच्छी लगी .........साधुवाद

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    1. घूमते घूमते आपका मेरे ब्लॉग पर ठहरना अच्छा लगा। ईश्वर आपकी घुमक्कड़ी सलामत रखे वही असली आनंद है। यह लिखना पढ़ना तो ठहरे हुए लोगों की मानसिक उड़ान भर है।

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  32. यह कविता पहली बार पढ़ी थी संदर्भात्मक वक्तव्य के साथ ,
    बाद में सोचा देखती चलूं किसकी क्या प्रतिक्रिया रही .पर तब वक्तव्य के बिना इसका निहितार्थ एकदम बदल चुका था.

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  33. बहुत ही sahi कहा आपने...

    kitne logon में himmat hoti है कि aatma के darpan में स्वयं का सत्य देख paate..अपना lekha jokha कर paye..

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  34. हाँ अब हम सब सभ्य हैं,

    बेहतरीन रचना के लिए साधुवाद.

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  35. विकास के इतिहार कों नए दृष्टिकोण से देखा है ...
    पता नहीं हम आज सभी हैं या कल थे ... एक बेहद शशक्त और प्रभावी रचना

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  36. वाह! बहुत खूब...

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  37. यहाँ तक की नग्नता हमारा सर्वोच लक्ष्य है..
    क्यूंकि ये शारीर भी एक वस्त्र ही है महोदय...
    जिसदिन वस्त्र की तुच्छता समझ मैं आ गई.....बस हो गए नग्न ...

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