12.8.12

मध्यमवर्गीय



वह
श्रमजीवी होता है
मगर खुद को
बुद्धिजीवी समझता है।

दशहरा-दीवाली पर
रात-रात भर जागकर
सुनता है
पत्नी के ताने
पूरी करता है
स्वप्न में
बच्चों की मुरादें
सुबह
पूछती हैं
कमरे की दीवारें...
क्यों जी!
क्यों उड़ गई है तुम्हारी रंगत
हमारी तरह?”

ईद-होली में
बार-बार देखता है
बच्चों की फटी कमीज
आर-पार हो जाती हैं उँगलियाँ
कुर्ते की जेब से

जानता है
उबड़-खाबड़ रास्तों पर
चलाते-चलाते साइकिल
खत्म हो जाती है
हवा
पंचर हो जाता है
नया ट्यूब भी।

वह
दिन रात
बहाता है पसीना
रोटी, कपड़ा, मकान, दवा और बच्चों की फीस के लिए
लड़की की शादी तो
बड़े ख्वाब पूरे होने जैसा है
जिसके बाद
चढ़ा सकता है
मज़ार पर चादर
ले सकता है
अंतिम सांस
धार्मिक त्यौहार तो
आफ़त वाले दिन होते हैं !

वह                    
ढूँढता है
आजादी के मायने
पंद्रह अगस्त के दिन
तलाशता है
मौलिक अधिकार
गणतंत्र दिवस के दिन
नोचता है
सर के बाल
उखाड़ कुछ नहीं पाता
पूछता है प्रश्न,
हे राष्ट्रपिता !
क्या यही है आजादी ?”

राह चलते
बड़बड़ाता है,
(वैसे ही जैसे
बड़बड़ाता है शेखचिल्ली
टूटने पर
सुनहरे ख्वाब)
अब नहीं होती
नेतृत्व की हत्या
अब होता है
सरे आम
आँदोलन का खून
मार्ग से
भटका दिये जाते हैं
आंदोलनकारी
ठहरा दिये जाते हैं
अपराधी !”

वह
चाव से मिलाता है
कंधे से कंधा
बुद्धिजीवियों के
हर आह्वाहन पर
मनाता है
आजादी का उत्सव
कभी-कभी
गिरा देता है
हाथ से  
दो वक्त की
रोटियाँ भी।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

24 comments:

  1. वाह....
    शायद दिल से जो निकली है वो वाह नहीं आह!!! है..

    अनु

    ReplyDelete
  2. कमाल कर दिया आपने.मध्यम वर्गीय का क्या खूब चित्रण है !
    ये राह चलते बडबडाना ......अन्नाहजारे के आंदोलन के लिये लिख दिया आपने.

    ReplyDelete
  3. सटीक समसामयिक ...ये श्रमजीवी आम आदमी.. हमेशा छला जाता है... उस सर्वशक्तिमान ऊपर वाले से भी और नीचे के तथाकथित बुद्धिजीवियों से भी ... "भ्रम" से निकल नास्तिकता दोनों जगह दिखाए तो देखो... कैसे सब सही होता है!

    ReplyDelete
  4. मध्यमवर्गीय की त्रासदी को बखूबी लिखा है .... आंदोलन करने वालों का क्या हश्र होता है वो भी कह दिया ... झकझोरती हुई रचना

    ReplyDelete
  5. मध्‍यमवर्गीय हैं या मध्‍यमार्गी, यह सवाल हमेशा सामने रहता है।

    ReplyDelete
  6. काम के बोझ का मारा,मध्यवर्गीय जीव बेचारा!

    ReplyDelete
  7. बेचारा इससे ज्यादा और कर भी क्या सकता है ... फिर भी सीना तांता है जुट जाता है सुबह से ...

    ReplyDelete
  8. इस श्रमजीवी का चाव, उसकी जिजीविषा बनी रहे!

    ReplyDelete
  9. निराला जी की "भिक्षुक" या "वह तोडती पत्थर" वाले अन्दाज़ में आज आपने पूरा का पूरा शब्दचित्र प्रस्तुत कर दिया है एक श्रमजीवी/मध्यमवर्गीय प्राणी का. आज के बाद ऐसा लगता है कि एक लंबे समय तक आईना देखने पर उसमें अपना चेहरा नहीं, आपकी कविता ही दिखाई देगी. कविता के विषय में कुछ भी कहना (और यह पहली कविता नहीं है, आपकी इस श्रेणी की लगभग सभी कवितायें) उसके साथ अन्याय होगा.

    ReplyDelete
  10. दिल का दर्द उतर आया पन्नों पर

    ReplyDelete
  11. मध्यमवर्ग की मुश्किलों को सशक्त रूप से पेश किया . उसे सिर्फ दोनों समय की रोटी का जुगाड़ ही नहीं करना वरना सामाजिकता का निर्वाह भी करना है , व्यवस्था परिवर्तन का हिस्सा भी होना है और इन सबके बीच उसे माता पिता , पुत्र पुत्री और एक अच्छा इंसान भी होना है !

    ReplyDelete
  12. अरे यही तो है असली निखालिस देशी बुद्धिजीवी -जोरदार !

    ReplyDelete
  13. हम सबकी कहानी गा कर सुना गये आप...

    ReplyDelete
  14. बहुत बढ़िया लिखा है .
    लेकिन बड़े शहरों के मध्यमवर्गीय अब थोडा ऊपर उठ चुके हैं .

    ReplyDelete
  15. मध्यवर्गीय जीवन की यह विडंबना है कि वह अपने को अपनी स्थिति से बढ़ कर दिखाना चाहता है !

    ReplyDelete
  16. बढ़िया चित्रण है जी !

    ReplyDelete
  17. kya sach likh diya hai aapne!
    bahut hi achhi kavita!

    ReplyDelete
  18. मध्यमवर्गीय बेचैनी, सारा जीवन इसी ऊहापोह में बीत जाता है कि पैर ढंके या मुंह?

    ReplyDelete
  19. शानदार और बेहतरीन.....हैट्स ऑफ इसके लिए।

    ReplyDelete
  20. सेकुलर मेरा हिन्दुस्तान .बढ़िया प्रस्तुति यौमे आज़ादी के मौके पर .

    ReplyDelete
  21. और सबसे पहले कुचला भी जाता है..सबसे..

    ReplyDelete