27.4.16

लोहे का घर -14


आज वरुणा में बैठने का सौभाग्य मिला। बढ़िया ‪#‎ट्रेन‬ है। बनारस से लखनऊ आने-जाने वालों की प्रिय ट्रेन। जौनपुर में भीड़ खत्म हो जाती है। बहुत से थके मांदे दिखाई पड़ रहे हैं। जिसे जहाँ मौक़ा मिल रहा है वहीं लेट जा रहा है। कोई ऊपर लोहे वाले बर्थ में तो कोई नीचे। जिस बर्थ में एक से अधिक हैं वे ऊँघ रहे हैं। आज शनिवार है। वीकली यात्रा करने वाले काम काजी भी दिखाई पड़ रहे हैं। चाल मस्त है। एक घण्टे में जौनपुर से बनारस। बस से सफर करने की तुलना में बेहतर है। यह शादियों का मौसम है इसलिए बस में बहुत भीड़ होती है। थोड़ी देर सही, बस की तुलना में इससे सफर करना अधिक आराम दायक।
अब इसकी चाल धीमी हो रही है। जफराबाद स्टेशन क्रास कर रही है ट्रेन। इस ट्रेन की बोगियों में भीतर पैसिंजर वाली गन्दगी लेकिन बाहरी दीवारें विज्ञापनों से खूब रंगी हुई। अब चाल फिर तेज हुई। सरकोनी स्टेशन की पटरियां बदलती, खटर -पटर करती, हवा से बातें कर रही है। गोमती को पार कर गंगा से मिलने को बेताब भागी जा रही है वरुणा। जलालगंज का पुल काँप गया इसकी रफ़्तार देखकर। फिर धीमी हुई। जलालगंज स्टेशन में रुकेगी एक मिनट के लिये।
ऊपर लोहे के बर्थ पर लेटा यात्री मोबाइल में बड़ा मधुर गीत बजा रहा है-अजी रूठ कर अब कहाँ जाइयेगा, जहाँ जाइयेगा हमें पाइयेगा....। पलकें बन्द कर सुन रहा है। चेहरे में गहरी नींद का भाव है। नींद में होगा तो सुनते-सुनते ख़्वाबों में चला गया होगा। दौड़ रहा होगा आगे-आगे भागती अपनी प्राण प्यारी के पीछे ..अजी रूठ कर अब कहाँ जाइयेगा...!
वरुणा भाग रही है रेल की पटरियों पर। न जाने यह कौन सा गीत गा रही है! कौन होगा इसका प्रेमी? ऐसा लग रहा है जैसे यह अपने आशिको को अपनी बोगियों में बिठा कर उड़ने के मूड में है।
जिंदगी की जंग लगी फाइलों में खुशियों वाले पन्ने दिखते तो हैं, उठा कर पढ़ने का प्रयास करो तो चिंदी-चिंदी बिखर जाते हैं। बिखरे टुकड़ों में बिखरी खुशियों को देख पलकों के कोरों से ढरकने लगता है दर्द। दृश्यमान हो, ढरकते-ढरकते गालों से फिसलें, इससे पहले बन्द कर देनी पड़ती है फाइलें।
धीमी हो रही है वरुणा की स्पीड। नजदीक आ चुका है बनारस का आउटर। शुभ रात्रि।

भूल भुलइया,भूल भुलइया,भूल भुलइया 
जिनगी 
भूल भुलइया
गोल गुलइया, गोल गुलइया, गोल गुलइया
घूमो 

गोल गुलइया

कुछ ऐसे घर में लटके
कुछ वैसे घर में भटके
हैं कई जनम के प्यासे
हैं कई जनम के भूखे

झूठ ह भइया, झूठ ह भइया, झूठ ह भइया
ईश्वर
झूठ ह भइया!
भूल भुलइया,भूल भुलइया,भूल भुलइया 
जिनगी 
भूल भुलइया।

..........................
लोहे के घर में कई परिवार अपने-अपने में मगन साथ-साथ चलते हैं। जब तक रहते हैं बड़े खुश दिखते हैं। पत्नी के मुख से पानी उच्चारित हुआ नहीं कि पति पूरी बोतल निकाल कर समर्पित खड़ा हो जाता है। थोड़ी देर बाद प्रेम से पूछता भी है-और? पत्नी भी बड़ी अदा से बोतल परे हटाती है-बस्स.. रहने दो! गरम हो गया है।
पापा को तंग कर रहा है बेटा-मैंगो जूस लेंगे। मम्मी बैग से नोट निकालती है-दिला दो न! छोटे स्टेशन पर दौड़ पड़ते है पापा। ट्रेन चल दी, पापा आये नहीं! गहरी बेचैनी के बाद हर्ष से खिल उठता है बेटे का चेहरा-बड़ी बोतल लाये हैं पापा! पीछे से आ रहे हैं।
टिफिन खोल सलीके से पूड़ी निकाल पति को नाश्ता कराती पत्नी। आहा! कितने प्रेम से रहते हैं ये लोग जब ‪#‎ट्रेन‬ में चलते हैं! क्या घर में भी ऐसे ही रहते हैं ? आज्ञाकारी और विशाल ह्रदय के स्वामी! सभी के पास एक दूसरे के लिये समय ही समय। वाह! क्या बात है।
साइड लोअर बर्थ में पापा की छाती पर मूंग दल रहे हैं तीन बच्चे! पापा सब ऐसे सहन कर रहे हैं जैसे ये इनकी रोज की आदत हो। लड़का पैर पर बैठ कर पेट को ढोलक की तरह बजा रहा है और दो लड़कियाँ आपस में झगड़ते-झगड़ते पापा का बाल नोच रही हैं। पापा दोनों हाथ से बच्चों को पकड़ कर शांत करा रहे हैं। छोटी रोने लगी तो अब उसकी पुच्ची ले रहे हैं! पत्नी ऊपर अपर बर्थ में घोड़े बेच कर सो रही है, चैन की नींद। अहा! लोहे का घर कितना प्यारा!!!

लोहे के घर में सुबह का माहौल बड़ा खुशनुमा होता है। एक हाथ डूबता चाँद, दूसरे हाथ उगता सूरज होता है। हर पल दृश्य बदलते रहते हैं। कभी दूर क्षितिज में घने वृक्ष, चारों तरफ फैले खेत तो कभी नये उग रहे कंकरीट के जंगल। मन बच्चा हो तो खिड़की से चिपके रहने और बाहर ही देखते रहने का मन करता है। इसीलिये बच्चे खिड़की के पास बैठने कि जिद करते हैं। बूढ़े...सब देख-सुन अघाये... बस बच्चों की आँखों में झाँक कर सब सुख पा जाते हैं।
स्लीपर क्लास में चलने वाला मध्यम वर्गीय परिवार सफर का खूब आनंद लेता है। इतने प्रकार के नाश्ते, खाने का जुगाड़ बना कर चलता है जितना उसे त्यौहार या साप्ताहिक अवकाश के दिनों को छोड़, रोज मर्रा के दिनों में कभी नसीब नहीं होता। सभी एक दूसरे का खूब ख़याल रखते हैं-आपने ब्रश किया? बेटा भी पूछता है पापा से! मम्मी निकालती हैं पूड़ी, भिन्डी की सूखी सब्जी, आचार, मिठाई और बीकानेरी भुजिया भी। पापा के पास है अपना नाश्ता-लाई-चना और शुगर फ्री बिस्कुट।
काली चिड़िया आज भी बैठी है बिजली के तार पर! बचपन से देख रहा हूँ भैंस की पीठ पर बैठते बगुले। तीन बच्चे आज भी दौड़ते दिखे। उनके हाथों में साइकल के टायर नहीं, फटी धोती का लम्बा टुकड़ा था। जुग बदला, समय बदला, बच्चे से बूढ़े होने को आये मगर लोहे के घर की खिड़की से दिखने वाला भारत का सीन न बदला।
भाग रही है अपनी ‪#‎ट्रेन‬। बड़ी तेजी से पीछे छूटते जा रहे हैं पड़ाव। बचपन बीता, जवानी बीती आगे बुढ़ापा है। अगर किसी ने चेन पुलिंग नहीं किया तो उसे भी आना है और अपन को यह कहते हुये उतर जाना है कि अपनी मंजिल आ गई.. टा टा।

फिफ्टी खड़ी है देर से जफराबाद में। कोटा-पटना क्रास कर निकल गई आगे। जब वो अगले स्टेशन तक पहुंचेगी तब चलेगी यह। हरा मटर खरीदा था बच्ची के कहने पर पापा ने। खिलाने लगा तो किसी कारण से बच्ची ने दूसरी तरफ मुँह फेर लिया। जोर का मुक्का मारा पीछे गरदन पर राक्षस ने। बच्ची अभी ऊपर बर्थ पर बैठी महिला की गोदी से चिपक कर रो रही है। सुफेद शर्ट पैजामे में खिड़की के पास बैठा काली घनी दाढ़ी-मूंछों वाला आदमी एक पल में पापा से राक्षस कैसे बन गया! मटर पर खर्च हुआ 10 रुपिया कितना मूल्यवान होता है आम आदमी के लिए! फेंका तो नहीं उसने, जब बच्ची ने नहीं खाया तो पूरा खा लिया खुद ही!
‪#‎ट्रेन‬ भाग रही है अपनी स्पीड में। बीत चुका जलाल गंज का पुल। बच्ची रह-रह सुबक रही है अभी भी। बेल का शरबत लेकर आया है वेंडर। अब बच्ची को पिला रही है माँ बेल का शरबत। बच्ची एक घूँट पीने के बाद नहीं पी रही। माँ पुचकार रही है। मना रही है -पी लो, बेटा! धीरे-धीरे पी लिया बच्ची ने पूरा शरबत। पानी भी पीया। अब खुश दिख रही है। इधर-उधर देख रही है। कितना फर्क होता है पिता और माँ के खिलाने-पिलाने में! माँ न होती तो पुरुष प्रधान मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चे कैसे जी पाते!
और भी हैं ट्रेन में। साइड लोअर बर्थ की सीट पर बैठी हैं दो किशोर लड़कियां और दोनों के बीच में एक किशोर बालक। तीनो भाई बहन लगते हैं। तीनों खिड़की से बाहर खेत में गोधुली बेला की सुंदरता देख रहे हैं। पिण्डरा के पास एक मिनट के लिये रुकी थी ट्रेन। सूरज मुखी के बड़े-बड़े फूल बेहद खूबसूरत दिख रहे थे। तीनों मगन हैं बाहर देखने और आपस में बात करने में। लड़के का लोअर जीन्स का पैन्ट थोड़ा नीचे खसक आया है और टी शर्ट थोड़ा ऊपर। मगर उसको इसका ध्यान नहीं है। लड़कियों ने पहन रखे हैं सलवार सूट। बाबतपुर स्टेशन आ गया। वेंडर बेच रहे हैं मूँगफली। गर्मी में अच्छी नहीं लगती मूँगफली, जाड़े में अच्छी लगती है। ट्रेन रुकी तो लड़का बाहर घूमने लगा। चली तो फिर आ कर बहन के पास बैठ गया। कटे गेहूँ के खेत, डूबते सूरज और आम के वृक्षों पर लटके टिकोरों की बात कर हैं बच्चे।
कितना काम बटोर लेता हूँ मैं लोहे के घर में! साथियों की बात सुनना, यात्रियों को पढ़ना, बाहर देखना और इन सब के बीच निरन्तर मोबाइल पर अंगूठा चलामा। वक्त को अंगूठा दिखाना एक मुहावरा है, मोबाइल पर अंगूठा चलाना बेचैन मन की आदत। 

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-04-2016) को "मेरा रेडियो कार्यक्रम" (चर्चा अंक-2327) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सुन्दर सफ़र

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