टी. वी. के समाचार चैनलों से एक निर्धारित समय में सत्य का ज्ञान क्या, देश-विदेश के सभी प्रमुख समाचारों का ज्ञान भी नहीं होता। भले ही ये चैनल निष्पक्ष होने का कितना ही दावा करें लेकिन चैनल खुलने से पहले ही हमारे दिमाग में उसके पक्ष का भान रहता है। हमें पता रहता है कि यह दक्षिण पंथी है या वाम पंथी। यह सरकार के कार्यों का गुनगान करने वाला है या हर बात का मजाक उड़ाने वाला है।
इन चैनलों के एंकर भी वाकपटु और गज़ब के अभिनेता होते हैं! ये अपने पक्ष के कुशल वैचारिक वकील होते हैं। किसी एक एंकर को आपने अलग-अलग विचारधारा वाली दोनो पार्टियों के समर्थन में खड़े नहीं देखा होगा। जबकी ऐसा संभव है कि किसी मुद्दे पर किसी पार्टी का नजरिया सही और किसी दूसरे मुद्दे पर विरोधी पार्टी का नजरिया सही रहता हो। ऐसा इसलिए होता है कि ये एंकर किसी एक पक्ष के #भक्त होते हैं। और भक्तों से निष्पक्ष होने और सत्य सुनने की उम्मीद पालना ही व्यर्थ है।
सोसल मीडिया भी इसके प्रभाव से वंचित नहीं। कोई क्रांतिवीर की जय जयकार करता है तो कोई विदूषक की विद्रूपता पर लहालोट होता है। पत्रकारिता स्वतंत्र तो है मगर निष्पक्ष प्रतीत नहीं होती। ऐसे में आम आदमी का बुरी तरह कनफ्युजिया जाना और सोचते-सोचते नरभसिया जाना संभव है।
ऐसे माहौल में कितने ही आत्मचिंतकों ने टीवी में समाचार देखना ही बंद कर दिया है! ऐसा नहीं कि वे समाचार देखना नहीं चाहते। समस्या यह है कि उनके पास उपदेश सुनने का वक्त नहीं है। अखबार भी अछूते नहीं हैं लेकिन इसमें समाचार अलग और विचारकों के विचार अलग पृष्ठ पर होते हैं। हम समाचार पढ़ कर आलेख वाले पृष्ठ पलट सकते हैं। टी.वी. के समाचार चैनल बदलो तो जहाँ जाओ वहीं खुराफात!
आप विचारों से भागना नहीं चाहते और टी.वी. देखना भी है तो ऐसे माहौल में दो विकल्प नजर आता है। पहला यह कि आप किसी से मत कहिए मगर खुद से मान लीजिए कि आप फलाने के भक्त हैं। अब अपने पक्ष वाला चैनल देखना बंद कीजिए और विपरीत विचारधारा वाले चैनल देखिए। शुरू में तो तनाव बढ़ेगा लेकिन संभव है, धीरे-धीरे तटस्थ होकर सोचना शुरु कर दें।
यदि आप भक्त नहीं हैं, दोनो प्रकार की विचारधारा को पढ़, सुन सकते हैं तो अभी आप में सत्य जान पाने की संभावना बची है। भीड़ से सटकर खड़े होने और पीछे-पीछे भागने से अच्छा भीड़ से हटकर यह जानना है कि यह भीड़ जा कहाँ रही है? क्या यही अपनी मंजिल है? क्या यह राष्ट्र हित में है? वैसे भक्त बन भीड़ में गुम हो जाना और पीछे-पीछे जयघोष करते हुए चलना सुकून भरा निर्णय है और भीड़ से हटकर खड़े होना, बेचैनी पैदा करने वाला।
जहाँ तक सरकार द्वारा किसी चैनल पर एक दिन का सांकेतिक प्रतिबंध लगाने का प्रश्न है तो मैं इसे कमजोरी भरा निर्णय मानता हूँ. विचारों पर प्रतिबन्ध लगना लोकतंत्र की आत्मा को नष्ट करना है. चैनल बंद करना तो जनता के बांये हाथ का खेल है! यदि राष्ट्र हित में जरूरी है, चैनल द्वारा राष्ट्र विरोधी हरकत की जा रही है तो जनता के द्वारा चुनी हुई सरकार को दूसरे और कठोर निर्णय लेने चाहिये.
यदि आप भक्त नहीं है ? बहुत खूब :)
ReplyDeleteधन्यवाद.
Deleteआभार आपका.
ReplyDeleteदूसरे कठोर निर्णय वाली लाईन की क्या ज़रूरत ? कठोर निर्णय क्या हो सकते हैं ?
ReplyDeleteSANTULIT
ReplyDeleteकई बार हम ओने नजरिये को भी नहीं समझ पाते और भक्त बन के निर्णय सूना देते हैं ...
ReplyDeleteमें ये नहीं कहता की भक्त होने में बराई है ... पर कठोर, कुतर्क, भाषा पे नियंत्रण नहीं खोना जरूरी है ...
जी, धन्यवाद.
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