2.8.12

मुंशी प्रेमचंद जयंती

पिछली पोस्ट "आइये मुंशी प्रेमचंद जी के गांव लमही चलें" में आपने उनके घर, गांव और गांव में साहित्य महोत्सव का अवलोकन किया। आज भी सांस्कृतिक संकुल में दिनभर विविध आयोजन होते रहे। कार्यालय की व्यस्तता के चलते मुझे शरीक होने का अवसर नहीं मिला लेकिन शाम 5 बजे के बाद जब अपना वक्त शुरू हुआ तो मुझे कौन रोकने वाला था! जा पहुँचा सांस्कृतिक संकुल और देखने लगा महोत्सव के नाम पर वहाँ  हो क्या हो रहा है?  विशाल सांस्कृतिक संकुल के हॉल में दर्शकों की अल्प उपस्थिति घोर निराशाजनक रही। 

संकुल में घुसते ही प्रेमचंद जी के पुस्तकों की प्रदर्शनी देखने को मिली। संकुल की दीवारें उनके उपन्यास के पात्रों को जीवंत करते अद्भुत तैल चित्रों व धनपत राय ( मुंशी प्रेमचंद ) के हस्तलिखित दुर्लभ पत्रों से सजी हुई थीं। मंच पर पूरे दिन मुंशी प्रेमचंद जी की कृतियों पर चर्चा, नाटक का मंचन चलता रहा। मैं जब पहुँचा तो उस वक्त कामायनी वाराणसी की नाट्य प्रस्तुति 'शतरंज के खिलाड़ी' का मंचन प्रारंभ ही हुआ था।

'शतरंज के खिलाड़ी' की कहानी नवाब वाजिद अली शाह के समय की है। यह वह दौर था जब लखनऊ अपनी विलासिता में आकंठ डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोई नाच-गाने की मजलिस सजाता, तो कोई अफ़ीम के मज़े लेता। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद की प्रधानता थी। कहीं बटेर लड़ते, तीतरों का लड़ाई के लिेए पाली बदी जाती, कहीं चौसर बिछती और कहीं पौ बारह का शोर मचता। कहीं शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा रहता। मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रौशन अली, दीन दुनियाँ से बेखबर   इसी शतरंज में अपनी बुद्धि लड़ाते रहते।


दासी बार-बार आती और लौट जाती कि बेगम बुला रही हैं। मीर रौशन अली को कोई फर्क नहीं पड़ता। जब बेगम का पारा हाई हो गया तो वे दौड़कर अपनी बेगम को मनाने चले गये....

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बेगम नाराज हुईं तो मियाँ अपने दोस्त की हवेली में चले गये। वहाँ दोनो अलमस्त हो शतरंज खेलते रहे। मिर्जा की बेगम भी संगीत की शौकीन थी। उन्होंने चाल चली । एक मुहर देकर नौकर को अपने रिश्तेदार जो कि नबाव वाजिद अली शाह की सेना में सैनिक था को दोनो खिलाड़ियों को धमकाने के लिए भेजा तो दोनो खिलाड़ी खंडहर में जाकर शतरंज खेलने लगे....

अंग्रेजों की फौज ने आक्रमण कर दिया। नवाब वाजिद अली शाह बंदी बना लिये गये लेकिन इन दो खिलाड़ियों को कोई फर्क नहीं पड़ा। वे रूक-रूक कर अफसोस करते फिर अपनी नई बिसात बिछा देते। मजे की बात यह रही कि दोनो शतरंज के खिलाड़ी हर संकट से तो कन्नी काट कर बचते  रहे लेकिन काठ के मोहरों के लिए आपस में झगड़ पड़े। दोनो ने अपनी-अपनी तैग म्यान से खींच ली......


दोनो जमकर लड़े और शतरंज के मोहरों के लिए शहीद हो गये....


नाटक के कलाकारों का अभिनय खूब शानदार रहा। मंच पर कई नाटक खेले जा रहे थे सो उसकी साज-सज्जा में दूसरे नाटकों के दृश्यों का भी घालमेल अखर रहा था। आयोजकों के समक्ष इस कमी को स्वीकार करने के सिवा कोई चारा  न था। इस नाटक के बाद रंगभूमि के मंचन की घोषणा की जा रही थी। समयाभाव के कारण वहाँ नहीं रूक सका। सांस्कृतिक संकुल में आयोजकों ने महोत्सव मनाने की खूब तैयारी कर रखी थी। दर्शकों की कम उपस्थिति निराशाजनक लगी। जन-जन के लेखक की वार्षिक जयंती के अवसर पर आम जन की  उदासीनता चिंतनीय है।

क्रमशः

13 comments:

  1. कोई था, जो खेल बिगाड़ने पर तुला था और हम थे जो अपने मोहरों पर ही कुर्बान थे..

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  2. यही तो रोना है :हम अपने इतिहास को ,साहित्य और इतिहासकारों को भुला देते हैं .शब्द कृपण हैं हम लोग .पुताकें भी एक दीं "प्रेमचन्द "बन जायेंगी .बढ़िया पोस्ट .

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  3. bahut achchha likha hai, aisa lagta hai manchan bhi behad shandar raha hoga..haan audience ki kami khal rahi hai...

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  4. बढ़िया प्रस्तुति .
    इसी नाम से बहुत पहले एक फिल्म भी बनी थी .
    उम्मीद है --अब लखनऊ सुधर गया होगा . :)

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  5. lamhi bhraman karwane ke liye abhar.....


    pranam.

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    श्रावणी पर्व और रक्षाबन्धन की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  7. बहुत सुंदर !

    आमजन की उदासीनता
    कहाँ नहीं देखने में आती है
    सारा देश लगता है
    शतरंज के मोहरों में व्यस्त है
    बेगमें भी किसी को बुलाने
    के लिये अब कहाँ आती हैं

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  8. उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द को नमन!

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  9. सुंदर आंखोदेखी रिपोर्ट....
    मुंशी प्रेमचंद जी को सादर नमन।

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  10. ये तो बहुत बढ़िया है।

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  11. नमन है हिंदी कहानी को नयी दिशा देने वाले महानायक मुंशी प्रेम चंद को ...

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  12. लोग चाहे बहुत कम थे,मगर आयोजकों ने प्रशंसनीय काम किया है.

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  13. बहुत सुन्दर चित्र उतारे हैं आपने.....शतरंज के खिलाडी तो अमर कहानी है उस पर बनी फिल्म भी देखी है \

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