27.1.13

चश्मा



चश्मा ले लो, चश्मा!

हिंदू चश्मा
मुस्लिम चश्मा
अगड़ा चश्मा
पिछड़ा चश्मा
अनुसूचित जाति का चश्मा
जन जाति का चश्मा
भांति-भांति का चश्मा

चश्मा ले लो, चश्मा!

इस चश्मे को पहन के नेता
पहुँचे संसद हाल में
इस चश्मे को पहन के 'नंदी'
साहित्य के आकाश में
इस चश्मे के बिना अब तो
पढ़ना-लिखना मुश्किल है
इस चश्मे के बिना अब तो
रोजी-रोटी मुश्किल है

चश्म ले लो, चश्मा!

आदमी वाला मुखौटा
चेहरे पर तो जंचता है
बिन इस चश्मे को पहने वह 
अंधे जैसा दिखता है
बच्चे के पैदा होते ही
दौड़ौ, उसको पहनाओ
कहीं देख ना ले वह दुनियाँ
बाद में उसको नहलाओ

सभी दुखों की एक दवा है
पहनो और पहनाओ तुम
होड़ लगी है सबमे देखो
कहीं पिछड़ ना जाओ तुम

चश्मा ले लो, चश्मा!

प्रथम परिचय में तुमसे
चश्मा पूछा जायेगा
सिर्फ आदमी बतलाना
किसी काम न आयेगा
चश्मा एक हुआ तो समझो
यारी तेरी पक्की है
चश्मा अलग हुआ तो समझो
यारी बिलकुल कच्ची है।

चश्मा ले लो, चश्मा!

जैसी देखो भीड़ खड़ी है
तुम झट वैसे हो जाओ
कई किस्म के चश्मे रख लो
वक्त पे सबको अज़माओ
सब ताले की कुंजी भी मैं
चाहो तो दे सकता हूँ
पैसा थोड़ा अधिक लगाओ
बड़े काम आ सकता हूँ
धर्मनिरपेक्षता नाम है उसका
सबके संग खप जाता है
इसको पहन के जो चलता है
बुद्धिमान कहलाता है।

चश्मा ले लो, चश्मा!
.....................................

34 comments:

  1. चस्मे के माध्यम से सुन्दर अभिव्यक्ति!

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  2. ...अपुन को भी एक चश्मा मँगता है :-)

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  3. क्या बात बहुत खूब कहा सच बात सर जी।।।बहुत सुन्दर व्यंग ...

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  4. बहुत बढ़िया भावों का प्रगटीकरण-
    शुभकामनायें आदरणीय -


    चश्में पर सबकी नजर, ज़र-जमीन असबाब |
    चकाचौंध से त्रस्त है, रसम-चशम के ख़्वाब ||

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  5. खोज रहे है एक चश्मा हम भी....
    :-)

    बहुत बढ़िया...
    अनु

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  6. ऐसे चश्मुद्दीनों से तो अपने तोताचश्म भले
    हवा जिधर की बही उधर ही भोलाराम चले

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  7. बाँट बाँट कर छाँट दिया है,
    चौराहों पर टाँग दिया है,
    चाहे अपने भाग सजा लो,
    चाहे इसमें आग लगा दो,
    चिथड़े क्यों अब जोड़े ईश्वर,
    किस्सा उटपटाँग किया है।

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  8. सही बात ....सटीक कटाक्ष ...

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  9. ये दूकान चल जायेगी :-)

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  10. भवानी प्रसाद मिश्र ने इसी अंदाज में गीत बेचा था...
    आपका चश्मा भी बिकेगा!

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  11. अद्भुत.....ला-जवाब.......दृष्टिदोष निवारक उपकरण ही आज दृष्टिकोण बन गया है. आप क्या चश्मा बेचेंगे, सभी ने अपना अपना हैड मैड चश्मा बना रखा है.

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  12. हमारे पास तो पहले से ही है। :)

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  13. चश्में को माध्यम बनाकर अच्छा कटाक्ष किया है !!

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  14. भांति-भांति का चश्‍मा...हमें भी चाहि‍ए एक चश्‍मा..खूब लि‍खा है

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  15. वाह!
    आपकी यह प्रविष्टि को आज दिनांक 28-01-2013 को चर्चामंच-1138 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  16. जी हाँ हुज़ूर ,मैं चश्मे बेचता हूँ -ख़ूब चल रही है दूकान !

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  17. वास्ते दूसरा पैरा :- ऊंहूं...भला किससे जले भुने जा रहे हैं आप ?

    शेष पूरी कविता अच्छी है...यदि कवि की भावनायें वास्तव में हार्दिक/निश्छल/निष्कलुष/निष्पाप/अ-जलनीय/भेद रहित हों तो अपनी पूर्ण और नि:शर्त सहमति :)

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    1. वास्ते आपके संशोधित दूसरा पैरा...

      इस चश्मे को पहन के नेता
      पहुँचे संसद हाल में
      इस चश्मे को पहन के 'नंदी'
      साहित्य के आकाश में....

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  18. तारक मेहता का उल्टा चश्मा , :)
    बखूबी हर पहलू को आईना दिखाया है |

    सादर

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  19. आपने तो होलेसले में चश्में देकर सभी को निपटा दिया | बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति | आभार |

    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  20. इन चश्मों की दुकान कहाँ है ? कैसे मिलेगा यह चश्मा ? तीखा कटाक्ष ।

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  21. अंधों के लिए भी कोई हो तो बताइयेगा :)

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  22. सच का आईना दिखती बहुत ही बढ़िया पोस्ट...आभार

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  23. नेता-मंत्रियों को 'दान'का दाप है 'दान'का ही ढांप है
    इंके मुख से जाती धर्म वर्ण की ठेक्केदारी अच्छी नहीं
    लगती कारण की नेता इनकी जात है सत्ता इनका धर्म
    और विलासिता इनका वर्ण.....

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  24. दूकान का नाम पता दीजिए तो. इस बार भारत आने पर एक चश्मे की जरूरत हमें भी पड़ेगी :)
    बढ़िया कटाक्ष.

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  25. वाह...चश्मे कैसे - कैसे ...लाजवाब अभिव्यक्ति...आभार...

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  26. कौन सा लेना ठीक रहेगा देवेन्द्र भाई ??

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  27. बिना चश्मे का रहना हिम्मत का काम है.

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  28. इतने तरह के चश्में देखकर तो लगता है एक चश्में की दुकान ही खोल ली जाये, जब जिसकी जरूरत हुई लगा लेंगे.:)

    पर बहुत बढिया निपटाया आपने.

    रामराम

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  29. चश्मा बहुत सालों से लगा रहा हूँ.. पढते थे कि दूर का चश्मा और नज़दीक का चश्मा होता है.. लेकिन कभी ऐसा चश्मा नहीं मिला जो दूर और नज़दीक का ना होकर दूरियों को मिटाकर नज़दीकियों में बदलने सा हो!! आपने जितने भी चश्में गिनाए सच में उतने ही चश्मे हैं समाज में.. मगर मेरे किसी काम के नहीं.. हमारे खानदान में बचपन से चश्मे का प्रचलन नहीं रहा!!
    देवेन्द्र भाई, अब आपकी कविता की बात!! सामयिक विषय पर, प्रासंगिक कविता लिखना आपकी विशेषता है.. और कविता भी खोखले शब्दों और व्यर्थ के बालाघात वाली नहीं विषयवस्तु की गहराई वाली!!आपसे सीखना है यह कला!!
    बहुत सुन्दर!!

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  30. प्रभावी ... सटीक प्रहार है समाज के विभिन्न पहलुओं पर ... अलग श्रेणी की रचना है ये ...

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