13.9.16

कुम्हार


कुल्हड़ हैं,
पुरुवे हैं,
दिये भी हैं
लोग
मिट्टी से
जुड़े भी हैं

अभी है
बनारस की मस्ती
अभी है
कुम्हारों की बस्ती.

श्रम कठिन,
सिमटता बाजार है
गरदन में
लटकती तलवार है
फैलते शहर,
सिमटते खेत,
गायब हो रही मिट्टी
मिट्टी ही
कच्चा माल है
अब इनका
बुरा हाल है
यही
विश्वकर्मा हैं,
यही
मजदूर हैं
सुख-सुविधाओं  से
कोसों दूर हैं

मेरे सामने
इक दरकता पुल है,
आ रही
अंधी गाड़ी है
और
कुछ कर न पाने की
लाचारी है.

अभी तो...
कुल्हड़ हैं,
पुरुवे हैं,
दिये भी हैं
लोग
मिट्टी से
जुड़े भी हैं.
....................

15 comments:

  1. देवेन्द्र जी आपने श्रमजीवी की चिंता को बहुत सुन्दर रूप में शब्दों में ढाला है | रचना में पीड़ा झलकती है | साधुवाद !

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  2. कुम्हार के दिन भी बहुरेंगे देवेन्द्र जी.भारत में अब मिट्टूी के तवे और अन्य सामग्री
    जिस पर ,बताया जाता है कि, भोजन बहुत स्वादिष्ट और स्वास्थ्यप्रद पकता है .अब काफ़ी चलन में आ गये हैं ,मैने वहाँ भी सुना था और इन्टरनेट पर भी देखा.मिट्टी से हमारा नाता कभी नहीं टूट सकता और कुम्हार से भी ....

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  3. भावपूर्ण और विश्वकर्मा पूजा के आगमन की स्मृति दिलाती सुंदर रचना..

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  4. कुम्हार और कुल्हड़ के बहाने आपने एक संस्कृति पर रोशनी डाल दी देवेंद्र जी। बहुत सुंदर बहुत सराहनीय उत्कृष्ट रचना

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  5. कितना कुछ है इन लफ़्ज़ों में !!

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  6. "माटी कहे कुम्हार से" में आपने सचमुच माटी की वकालत को आगे ही बढ़ाया है, साथ ही राजनीति के इस दौर में मिट्टियों का अल्पमत में होना कुम्हारों की ही समस्या बन गयी है.
    सुन्दर भाव, बेहतरीन अभिव्यक्ति, नए बिम्ब और गहरे अर्थ... और क्या रह गया कहने को!!

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  7. Mitna yani mati sabki manjil hai...kitna ki uth lo, ud lo par Aakhir to milna hi hai, mitna hi hai mati me!
    Hame hamari aukat dikhati hai mati!

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