बड़े शहर में
सहमा सहमा
एक बड़ा
खंडहर रहता है
एक कमरा है
उस कमरे में
प्यारा सा इक
घर रहता है।
पति देव
बड़े कर्मठी
खुशमिजाज
पत्नी रहती है
बड़ी हो चुकी
दो पुत्रियाँ
सीधा सा
बेटा रहता है।
बड़ा है कमरा
उस कमरे में
पूरब दिशा
दो चौकी रहती
पश्चिम में
बाबूजी की
हिलने वाली
खटिया रहती
उत्तर में
टीवी रहती है
दख्खिन में
चौका बर्तन है
एक कोने
अलमारी रहती
एक कोने में
फ्रिज रहता है
कमरे में
घुसते ही दायें
लोहे का बक्सा
रहता है
एक ताखे में
उस्तक पुस्तक
एक ताखे
ईश्वर रहता है।
गर्मी में
पूरा कमरा
एसी का मजा देता
है
जाड़े में
एक ही हीटर
सबको गर्मी दे
देता है
वर्षा में
जब छत चूता है
बिस्तर में
बल्टी आ जाती
सुनते हैं
सब सहमे सिकुड़े
टप टप टप टप
क्या गाती है !
बाबूजी की
खटिया पर भी
एक बगोना
हंसने लगता
टीवी प्लॉस्टिक
ओढ़ चुपाता
गद्दा करवट
बदल के सोता
जाहे जिस मौसम
में जाओ
घर हरदम
हंसता रहता है
उस घर का
हर इक कोना
खुश होकर
मिलता रहता है।
टीवी कहती
कथा कहानी
मोबाइल
बातें करती है
बरतन
चटपट करते रहते
बेलन भी
हंसता रहता है।
डिबिया
लढ्ढू लेकर आती
स्वच्छ गिलास
आता पानी ले
प्लेट
पकौड़ी लेकर आता
कप चमकीली
चाय गरम ले
और जब मैं
चलने लगता
पनडब्बा भी
मुस्काता है।
बड़े शहर में
सहमा सहमा
एक बड़ा
खंडहर रहता है
एक कमरा है
उस कमरे में
प्यारा सा इक
घर रहता है।
.............................
सुन्दर प्रस्तुति देखने को मिली
ReplyDeleteऐसा थोड़े ही ना है कि ऐसा घर सिर्फ आपने ही देखा है.. हमने काफी समय तक ऐसा घर देखा है.. और वह खँडहर किसी राजमहल से कम भी नहीं!!
ReplyDeleteबड़ा सुन्दर घर है। खूबसूरत। :)
ReplyDeleteबड़े घर से प्यारा
ReplyDeleteअपना छोटा-सा एक घर है,
जिसमें हम सब मिल-जुलकर रहते हैं
,दुःख,सुख सहते हैं !
घर को जीवित कर के कवितामय कर दिया
ReplyDeleteअच्छा गुजर बसर है :)
ReplyDeleteइसी को असली घर कहते हैं , बहुत खूब ...
ReplyDeleteवाह बेहद खूबसूरत. एकदम अपना सा लगता है.
ReplyDeleteआभार.
वाह...
ReplyDeleteक्या वर्णन है.....
सुंदर... अति सुंदर....
आज तो दूसरी दुनिया में ले गए पाण्डे जी ।
ReplyDeleteकाफी कुछ याद आ गया ।
मेरे घर का सीधा सा इतना पता है
ReplyDeleteये घर जो है चारों तरफ से खुला है
ना दस्तक ज़रूरी, ना आवाज़ देना
मेरे घर का दरवाज़ा कोई नहीं है
हैं दीवारें गुम और छत भी नहीं है
बढ़ी धूप है दोस्त
कड़ी धूप है दोस्त
तेरे आँचल का साया चुराके जीना है जीना
जीना ज़िंदगी, ज़िंदगी
ओ ज़िंदगी मेरे घर आना
आना ज़िंदगी ज़िंदगी मेरे घर आना!!
/
पांडे जी! बस आनंद आ गया!!
मेल से प्राप्त गिरिजेश जी की प्रतिक्रिया जिसे पढ़कर लगा कि मन माफिक ना सही मगर कुछ तो लिख पाया हूँ......
ReplyDeleteजाने क्यों आँखें नम हो आईं। कवियों ने महलों का बखान किया। कवियों ने झोंपड़ियों का बखान किया। कवियों ने क्रांति की बातें कीं। कवियों ने प्यार पर चासनी चढ़ाई .... लेकिन एक मध्यवर्गीय घर पर बहुत कम रचा, बहुत कम! उस मध्यवर्ग के घर पर जो कि इस विकासशील देश की रीढ़ जैसा है, कम रचा गया।
इस कविता में बहुत कुछ खनकता है। सबसे बड़ी बात कि यह बाल कविता भी है और बड़े लोगों के लिये भी। बच्चों को अभिधा, लक्षणा और व्यंजना के अर्थ बताने हों तो यह कविता उपयुक्त होगी। किसी बच्चे को सम्भवत: धूमिल की कविता 'लोहे का स्वाद' पढ़ाना याद आ गया - लोहे का स्वाद उस घोड़े से पूछो जिसके मुँह में ... कुछ ऐसी ही कविता थी।
ऐसे बिम्ब और प्रतीक दे देना जो कि एक साथ गम्भीर भी हों, लालित्य भी रखते हों और भिगो देने वाली सम्वेदना भी, बहुत कठिन है लेकिन आप ने दिखा दिया।
आप विश्वास करेंगे कि पाँच बार पढ़ चुका हूँ और मात्राओं पर ध्यान नहीं है :) !
सर्वेश्वर भी जाने क्यों याद आये हैं और साथ ही दिल में यह भी धड़का है -
यही कविता किसी बड़े सड़े कवि के नाम होती तो जाने क्या क्या लोग कह जाते! मुझे कई बार ऐसी अनुभूति अपनी कुछ कविताओं को रचते हुई है ... कुछ भी कहा नहीं जा रहा और इतना लिख गया! कुछ तो बात है, बात है!!
सादर,
गिरिजेश
बहुत सुन्दर वाह!
ReplyDeleteनिम्न मध्यवर्गीय घर में जिसने गुजारी हैं वारिश की रातें, संवेदनाओं की सहनशक्ति से मालामाल है वह..... विपन्नता की सहज स्वीकृति जीवन को प्रकृति के और भी समीप ले जाती है. कविता सत्यम शिवम् सुन्दरम सी लगी ....
ReplyDeleteऐसा कुछ पढ़ने को मिलता है. ब्लॉग्गिंग जिंदाबाद.
ReplyDeleteघर और माकन का फर्क बिलकुल स्पष्ट कर दिया है......किसी भी माकन को 'घर' तो उसमे रहने वाले ही बनाते हैं....फिर चाहे वो खंडहर ही क्यों न हो........बहुत ही अच्छी लगी पोस्ट|
ReplyDeleteजहाँ लोंग प्यार से दुःख तकलीफ सहन करते हँसते हुए, कभी लड़ते झगड़ते भी जीते हैं , घर तो बस वही हैं ...
ReplyDeleteखँडहर के एक कमरे में बसे प्यारे से घर से मिलना बहुत अच्छा लगा !
यही वो घर होता है जहाँ हमारी संस्कृति सुरभित है.
ReplyDeleteऔर भारत का अधिकाँश हिस्सा इससे परिचित है.
- सुन्दर कविता
खैर, एक बात तो माननी ही पड़ेगी कि इस घर में वास्तु का पूरा ध्यान रखा गया है !
ReplyDeletemadhyam vargiye pariwaar ka khoobsurat chitran. sundar rachna, shubhkaamnaayen.
ReplyDeleteकमरों की कहीं कमी नहीं ...
ReplyDeleteघर ही नहीं दिखते
शुभकामनायें आपको !
सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeleteआपको एवं आपके परिवार को नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं !
आम आदमी के घर की कहानी .. हर चित्र को उतार दिया है इस कविता में ..
ReplyDeleteआपकी कविता दिल में घर कर गई, भई! नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ!!
ReplyDeleteकविता सुन्दर है,मगर वैसे घर में रहने की पीड़ा वहाँ रहने वाले ही जानते होंगे.
ReplyDeletebahut hi shandar rachna
ReplyDelete@ सलिल जी ,
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया अद्भुत है ! देवेन्द्र जी की कविता के तोड़ जैसी ! लाजबाब !
@ मेल से प्राप्त गिरिजेश जी का बयान ,
अंतत मात्रायें बिसरी नहीं :)
@ देवेन्द्र जी ,
यह अभिशापित लोकतंत्र है जहां अम्बानी के स्वप्न से लेकर आपकी कविता के रहवासियों तक के यथार्थ नियत हैं/तयशुद हैं ! अंगुल चिन्हित अरबपतियों के विलास और लगभग एक अरब कौड़ीपतियों के संत्रास और इनके बीच के कुछ करोड मध्यमार्गियों के शीतोष्ण सहजीवन की धरती !
कविता पढते हुए ख्याल ये कि एक साथ की तीन पीढियों और चौथे भगवान को पांचवीं पुस्तकों के संग जीना है वहीं उनके जीवन मरण सुख दुःख और यशोगान वंचन की सारी गाथाओं के प्रबंध लिखे जाना भी निश्चित है ! वे वंचित हैं सो एक साथ रहने को संकल्पित हैं और जो वंचित नहीं हैं वे एक साथ रहकर भी अपरिचित से ,शायद घर न्यूनता और अभावों के विरुद्ध परिचितता का समवेत शंखनाद है या फिर मजबूरी में ही सही शोषितों का संघर्ष / की लामबंदी ?
यह घर किसी बड़े शहर में सहमा हुआ नहीं बल्कि ऐसे ही असीम घरों की हाशियेबंदी है / श्रृंखला है ! कुलीनता के लिये विशाल उर्वर बाड़े जैसी और उस बाड़े के अंदर की छोटी छोटी हदबंदियों में कैद मानव शक्ति, कहलाती है घर की स्वांस नलिका !
वाह !!! बहुत सुंदर एवं प्रभावशाली रचना
ReplyDeleteबाप रे..! आज तो मेरा 'घर' कमेंट के बोझ तले तब सा गया प्रतीत होता है। कविता पर प्रतिक्रिया भारी होने लगे तब आ..कहकर कविता सुनाने वाला कवि 'भारी' होने(चुप लगा जाने) के सिवा कर भी क्या सकता है!..शायद इसी को आभारी होना कहते हैं।..आभारी हुआ सभी का।
ReplyDeleteसलिल जी ने दोनो हाथों(ब्लॉगों)से कमेंट किया। एक बार तो कहा..ऐसा थोडे ही ना है कि ऐसा घर...नहीं। फिर उन्होने बताया...मेरे घर का सीधा इतना सा पता है...मेरे घर आना। ऐसा घर जहां सिर्फ कड़ी धूप है..तेरे आँचल का ही सहारा है..ओ जिंदगी मेरे घर आना। इसे पढ़कर मिर्जा की याद आ गई...मिर्जा गालिब तो हालात से इतने तंग थे कि उन्होने एक कदम और जा कर लिखा...
बे दर-ओ-दीवार का इक घर बनाना चाहिए
कोई हमसाया न हो, हमनवा कोई न हो
पड़िये गर बिमार तो कोई न हो तीमार दार
और अगर मर जाइये नौहाखां(रोने वाला) कोई न हो।
...इमरान भाई! अपने ब्लॉग 'मिर्जा गालिब' में डालिये न गज़ल को..प्लीज।
गिरिजेश जी ने भरपूर हौसला अफजाई करी। होता है अली सा..कविता लिखते या पढ़ते वक्त मैं कभी वर्तनी पर ध्यान नहीं देता। हाँ..पोस्ट करते वक्त या कमेंट करते वक्त अनायास/आदतन वर्तनी कौंध जाये तो बात अलग है। वैसा ही हुआ होगा कुछ। अब आपके कमेंट के विषय में क्या लिखूं..! जो लिख रहा हूँ यह सब उसी कमेंट के प्रभाव से ही है। पहला पैरा उसी के भार से लदा लिखना शुरू किया। अभी तो सिर्फ एक शब्द..आभार। वैसे आपका कमेंट विमर्श के लिए न्योता है जिस पर लिखने का मन हो रहा है....
आपका पेस्ट अच्छा लगा । मरे अगले पोस्ट "जाके परदेशवा में भुलाई गईल राजा जी" पर आपका बेसव्री से इंतजार रहेगा । नव वर्ष की अशेष शुभकामनाएं । धन्यवाद ।
ReplyDeleteदिल को छूनेवाली रचना। बधाई।
ReplyDeleteप्रत्येक शब्द अपनी भावनाओं को बखूबी व्यक्त कर रहा है ...बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आभार ।
ReplyDeleteभाई पाण्डेय जी बहुत सुन्दर कविता और नववर्ष दोनों के लिए बधाई और शुभकामनायें
ReplyDeleteवास्तव में ऐसे घरों में ही प्रेम और अपनत्व मिलता है...बहुत सशक्त प्रस्तुति...
ReplyDeleteयही तो है जंगल में मंगल की भावना .सदा मगन में रहना जी ,जेहि विधि राखे राम ,....बहुत सुन्दर शब्द चित्र घर का संयुक्त परिवार का माध्यम वर्गीय दैनिकी का ,शहर के एक जिंदादिल घर का ,......
ReplyDeleteक्या बात है! ये घर बहुत हसीन है...
ReplyDeleteघर का आँखों देखा हाल ,करता सबको निहाल ,वासिंदों को साकार.शुक्रिया आपकी ब्लॉग दस्तक के लिए .
ReplyDeleteये घर नहीं जीती जागती जिंदगी है .. और आपने इसका सही चित्र खींच दिया है आँखों के सामने ...ऐसे खंडहरों से ही जीवन चलता है ... महलों से कहीं ऊँचे होते हैं इसके दीवारों दर ...
ReplyDeleteमज़ा आ गया देवेन्द्र जी ... नए साल की मुबारक बाद आपको ....
बहुत खूब लिखा देवेन्द्रजी...मजा आ गया...इस घर की दास्ताँ सुनकर....
ReplyDeletebahut achche se ghar ka bkhan kiya hai.achcha lga.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति,एक सुंदर घर की दास्ताँ अच्छी लगी रचना......
ReplyDeletewelcome to new post--जिन्दगीं--
वाकई बहुत प्यारा सा है यह घर ....
ReplyDeleteसुन्दर प्रतीक और बिम्ब
बढ़िया प्रस्तुति....
ReplyDeleteBahut sundar
ReplyDeleteसुंदर घर ऐसा ही होता है..
ReplyDeleteबहुत प्यारा घर,
ReplyDeleteसच्ची ऐसे ही घर में परियाँ उतरती हैं