प्रस्तुत पोस्ट आनंद की यादें से उद्धरित है, उनके लिए जिन्होने इसे नहीं पढ़ा। आप सभी को मकर संक्रांति की शुभकामनाएं।
मकर संक्रांति का त्योहार ज्यों-ज्यों करीब आता त्यों-त्यों पक्के महाल के घरों की धड़कने तेज होती जातीं। बच्चे पतंग उड़ाने की चिंता में तो माता-पिता बच्चों की चिंता में दिन-दिन घुलते रहते। कमरे में लेटो तो यूँ लगता कि हम एक ऐसे ढोल में बंद हैं जिसे कई एक साथ पीट रहे हैं। अकुलाकर छत पर चढ़ो तो बच्चों की पतंग बाजी देखकर सांसें जहाँ की तहाँ थम सी जातीं। तरह-तरह की आवाजें सुनाई देतीं....अरे...मर जैबे रे.s..s..गिरल-गिरल..s..s..कटल-कटल.s..s..बड़ी नक हौ..!..आवा, पेंचा लड़ावा.....ढील दे रे.s..ढील दे.s..खींच के.s..भक्काटा हौ...। जिस दिन पिता जी की छुट्टी होती उस दिन आनंद के लिए घर पर पतंग उड़ाना संभव नहीं था। उस दिन वह श्रीकांत या दूसरे दोस्तों के घरों की शरण लेता मगर जब पिताजी नहीं होते आनंद खूब पतंग उड़ाता। हाँ, मकर संक्रांति के दिन सभी को अभय दान प्राप्त होता था। आनंद के घर की छत के ठीक पीछे दूसरे घर की ऊँची छत थी। जब कोई पतंग कट कर आती तो वहीं रह जाती। उस पतंग को लूटने के चक्कर में आनंद बंदर की तरह उस छत पर चढ़ता। जरा सा पैर फिसला नहीं कि तीन मंजिल नीचे गली में गिरने की पूरी संभावना थी। उस छत पर चढ़ते आनंद के भैया उसे देख चुके थे। सख्त आदेश था कि पतंग लूटने के चक्कर में वहाँ नहीं चढ़ना है मगर पतंग लूटने का मोह आनंद कभी नहीं छोड़ पाता। यह तो किस्मत अच्छी थी कि कभी गिरा नहीं वरना कुछ भी हो सकता था।
मकर संक्रांति का त्योहार ज्यों-ज्यों करीब आता त्यों-त्यों पक्के महाल के घरों की धड़कने तेज होती जातीं। बच्चे पतंग उड़ाने की चिंता में तो माता-पिता बच्चों की चिंता में दिन-दिन घुलते रहते। कमरे में लेटो तो यूँ लगता कि हम एक ऐसे ढोल में बंद हैं जिसे कई एक साथ पीट रहे हैं। अकुलाकर छत पर चढ़ो तो बच्चों की पतंग बाजी देखकर सांसें जहाँ की तहाँ थम सी जातीं। तरह-तरह की आवाजें सुनाई देतीं....अरे...मर जैबे रे.s..s..गिरल-गिरल..s..s..कटल-कटल.s..s..बड़ी नक हौ..!..आवा, पेंचा लड़ावा.....ढील दे रे.s..ढील दे.s..खींच के.s..भक्काटा हौ...। जिस दिन पिता जी की छुट्टी होती उस दिन आनंद के लिए घर पर पतंग उड़ाना संभव नहीं था। उस दिन वह श्रीकांत या दूसरे दोस्तों के घरों की शरण लेता मगर जब पिताजी नहीं होते आनंद खूब पतंग उड़ाता। हाँ, मकर संक्रांति के दिन सभी को अभय दान प्राप्त होता था। आनंद के घर की छत के ठीक पीछे दूसरे घर की ऊँची छत थी। जब कोई पतंग कट कर आती तो वहीं रह जाती। उस पतंग को लूटने के चक्कर में आनंद बंदर की तरह उस छत पर चढ़ता। जरा सा पैर फिसला नहीं कि तीन मंजिल नीचे गली में गिरने की पूरी संभावना थी। उस छत पर चढ़ते आनंद के भैया उसे देख चुके थे। सख्त आदेश था कि पतंग लूटने के चक्कर में वहाँ नहीं चढ़ना है मगर पतंग लूटने का मोह आनंद कभी नहीं छोड़ पाता। यह तो किस्मत अच्छी थी कि कभी गिरा नहीं वरना कुछ भी हो सकता था।
यूँ तो भारत के सभी प्रांतों में अलग-अलग नाम से इस त्योहार को मनाते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से स्नान-दान पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। प्रयाग का प्रसिद्ध माघ मेला भी इसी दिन से प्रारंभ होता है। सूर्य की उपासना का यह त्यौहार हमें अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने वाला त्योहार है। इस दिन से सूर्य उत्तरायण होते हैं। दिन बड़े व रातें छोटी होती जाती हैं। माना जाता है कि भगवान भाष्कर शनि से मिलने स्वयंम् उनके घर जाते हैं। शनि देव मकर राशि के स्वामी हैं इसलिए इसे मकर संक्रांति के नास से जाना जाता है। गंगा स्नान के पश्चात खिचड़ी दान व खिचड़ी खाने का चलन है। इस दिन की (उड़द की काली दाल से बनी) खिचड़ी भी साधारण नहीं होती वरन एक विशेष पकवान, विशेष अंदाज में खाने का दिन होता है जिसे उसके यारों के साथ खाया जाता है। लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है... खिचडी के हैं चार यार । दही, पापड़, घी, अचार।। इसलिए इसे खिचड़ी के नाम से भी जाना जाता है। त्योहार से पूर्व ही विवाहित बेटियों के घर खिचड़ी पहुँचाने के अनिवार्य सामाजिक बंधन से भी इस पर्व के महत्व को समझा जा सकता है। इस त्योहार को सूर्य की गति से निर्धारित किया जाता है इसलिए यह हर वर्ष 14 जनवरी के दिन ही मनाया जाता है।
मकर संक्रांति ज्यों-ज्यों करीब आता त्यों-त्यों पतंगबाजी का शौक परवान चढ़ता। गुल्लक फूट जाते। एक-एक कर सभी बड़ों से मंझा-पतंग खरीदने के पैसे मांगे जाते। खिचड़ी से एक दिन पहले जमकर खरीददारी होती। देर शाम तक नये खरीदे गये पतंगों के कन्ने साधे जाते। थककर जब बच्चे सोते तो नींद में भी पंतगबाजी चलती रहती। दूसरी तरफ पिताजी अपनी खरीददारी में परेशान रहते। बड़ों के लिए यह पर्व जहाँ धार्मिक-सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होता वहीं बच्चों के लिए इसका महत्व मात्र पतंगबाजी और तिल-गुड़ के लढ्ढू खाने तक ही सीमित था। इस दिन के लिए जहाँ पिताजी जप-तप, दान-स्नान की तैयारी में व्यस्त रहते वहीं माता जी बच्चों के लिए तिल-गुड़ के लढ्ढू, चीनी खौलाकर उसके शीरे में मूंगफली के दाने की पट्टी बनाने में लगी रहतीं। आनंद वैसे तो नित्य गंगा स्नान करता मगर आज के दिन पतंगबाजी के चक्कर में नहाने में भी समय जाया नहीं करना चाहता था। बिना स्नान किये भोजन तो क्या एक लढ्ढू भी छूने की इजाजत नहीं थी वरना संभव था कि वह पूरे दिन बिना स्नान के ही रह जाता।
इधर सुरूज नरायण रेती पार से निकलने की तैयारी करते उधर आनंद आकाश ताक रहा होता। उसे बस प्रतीक्षा इस बात की होती कि कहीं आकाश में एक भी पतंग उड़ते दिख जाय । सूर्य का उगना नहीं, पतंग का आकाश में दिखना मकर संक्रांति के आगाज का संकेत होता। धूप निकलने तक तो समूजा बनारस आनंद के इस महापर्व में पूरी तरह डूब चुका होता। क्या किशोर ! क्या युवा ! सभी अपनी-अपनी पेंचें लड़ा रहे होते। हर उम्र के लिए यह त्योहार गज़ब की स्फूर्ती प्रदान करने वाला होता। वृद्ध धार्मिक क्रिया कलापों में तो किशोर पतंग बाजी में मगन रहते । सबसे दयनीय स्थिति माताओं की होती। एक ओर तो वे अपने पति देव के धार्मिक अनुष्ठानों की पूर्णाहुती देतीं वहीं दूसरी ओर बच्चों की चिंता में दिन भर उनकी सासें जहाँ की तहाँ अटकी रहतीं। युवा पतंग के पेंचों के साथ-साथ दिलों के तार भी जोड़ रहे होते। जान बूझ कर दूर खड़ी षोड़शी के छत पर पतंग गिराना और न तोड़ने की मन्नत करना बड़ा ही मनोहारी दृष्य उत्पन्न करता । ऐसे दृष्यों को देखकर कहीं सांसे धौंकनी की तरह तेज-तेज चलने लगती तो कहीं लम्बी आहें बन जातीं। वे खुश किस्मत होते जो किसी बाला से पतंग की ‘छुड़ैया’ भी पा जाते।
सूर्यास्त के समय का दृष्य बड़ा ही नयनाभिराम होता। समूचा आकाश रंग-बिरंगे पतंगों से आच्छादित। जिधर देखो उधर पतंग। पतंग ही पतंग। दूर गगन में उड़ते पंछी और पतंग में भेद करना कठिन हो जाता। पंछिंयों में घर लौटने की जल्दी। पतंगों में और उड़ लेने की चाहत। लम्बी पूंछ वाली पतंग। छोटी पूंछ वाली पतंग। काली पतंग। गुलाबी पतंग। कोई पतंगबाज फंसा रहा होता पतंग से पतंग तो कोई पतंगबाज लड़ा रहा होता पतंग से पतंग । कोई कटी पतंग सहसा पा जाती सहारा। थाम लेती उसका हाथ उसके आगे-पीछे घूमती दूसरी मनचली पतंग। कोई दुष्ट ईर्ष्या वश खींच लेता उसकी टांग। शोहदे चीखते ...भक्काटा हौ.....! हो जाती वह...फिर से कटी पतंग। गिरने लगती बेसहारा दो कटी पतंग। सहसा खुल जाता किसी अभागे का भाग। थाम लेता एक की डोर। खींची चली आती दूसरी भी, पहली के संग। लम्बी होने लगतीं परछाईयाँ । गुलाबी होने लगता समूचा शहर । पंछियों मे बदल जाते सभी पतंग सहसा। गूँजने लगती चहचहाहटें। छतों से उतरकर कमरों में दुबकने लगते बच्चे। चैन की सांस लेता थककर निढाल हुआ दिन। खुशी से झूमने लगता चाँद। सकुशल हैं मेरे आँखों के तारे !
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री पोस्ट होने के कारण कमेंट का विकल्प बंद है। आपने अभी तक पतंग नहीं उड़ाई तो मेरी पिछली पोस्ट की कविता 'पतंग' पढ़ कर आनंद ले सकते हैं...सादर।