21.10.12

गद्य सी अपठित हुई हैं छन्द जैसी लड़कियाँ

गद्य सी अपठित हुई हैं छन्द जैसी लड़कियाँ।
ये महकते फूल के मकरंद जैसी लड़कियाँ।

पर्व के पावन-मधुरतम गीत के स्थान पर,
दर्द में डूबी ग़ज़ल के बन्द जैसी लड़कियाँ।

जो अनुष्ठानों के मंगल कामना के श्लोक सी,
घर के सिर पर हैं धरीं, सौगन्ध जैसी लड़कियाँ।

माँ के आँचल की खुशी ये बाप के पलकों पलीं,
काटती हैं ज़िंदगी अनुबंध जैसी लड़कियाँ।

ये तेरे गमले की कलियाँ हैं, ये मुरझायें नहीं,
गेह भर के नेह के सम्बन्ध जैसी लड़कियाँ।

यातना मत इन्हें दो दोस्तों धन के लिए,
क्यों रहेंगी ये सदा प्रतिबंध जैसी लड़कियाँ।
                                                                                                                   
कर्मधारय, तत्पुरूष, द्विगु, श्लेष, उत्प्रेक्षानुप्रास,                                    
हम सभी, केवल बेचारी द्वन्द्व जैसी लड़कियाँ।

...................................................................

लेखक- चित्र इस ग़ज़ल के लेखक श्री आनंद परमानंद जी का है। 

27 comments:

  1. अहा, छंद जैसी लड़कियाँ, उनकी जीवनलय ऐसे ही बनी रहे।

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  2. वाह...
    बहुत सुन्दर गज़ल...
    हर एक शेर लाजवाब...

    अनु

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  3. सब तरफ छाई निराशा, आस देती लड़कियाँ !

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  4. सुंदर लाइने और आपका मुख्य चित्र भी

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  5. नमन आनंद जी-
    जबरदस्त प्रस्तुति |
    आभार देवेन्द्र जी ||

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  6. .
    .
    .

    बदल देंगी दुनिया को, खुद को ढाल इस्पात में
    यही महकते फूल के , मकरंद जैसी लड़कियाँ

    सुन्दर कविता,

    आभार!


    ...

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  7. कविता पढ़ने में अच्छी लगती है लेकिन मतलब निकालने पर कुछ अलग-अलग सा लगता है। गद्य अपठित कहां हैं? गद्य पढ़ा जा रहा है। खूब पढ़ा जा रहा है। कविता का दीन भाव अच्छा नहीं लगता। :(

    प्रवीण शाह की बात के हिमायती हैं हम तो। :)

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    1. बात तो सही है। गद्य अब खूब पढ़ा जा रहा है बल्कि छंद ही लोग लिखना-पढ़ना भूल चुके हैं। परमानंद जी वयोवृद्ध साहित्यकार हैं। संभवतः यह गज़ल आज से 30-35 वर्ष पूर्व लिखी गई होगी। तब छंद में लिखना ही श्रेष्ठ और सुंदर माना जाता था। उन तक आपकी बात पहुंचाने का प्रयास करता हूँ। जहाँ तक दीन भाव की बात है, सही है कि दीन भाव नहीं उत्साहित करने वाले भाव ही अच्छे लगते हैं मगर अच्छा लगने से हालात तो बदल नहीं जाते। सत्य दुःख अधिक देता है। उन्होने इसी गज़ल में हालात को बताते हुए आगे लिखा भी है..

      यातना मत इन्हें दो दोस्तों धन के लिए
      क्यों रहेंगी ये सदा प्रतिबंध जैसी लड़कियाँ।

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  8. बेचारी तो कतई नहीं हैं.. और गर यह हल्की फुल्की रचना है तो बस हलके फुल्के अन्दाज़ में लिया जा सकता है.. लेकिन सचाई में..
    चढ गयी परबत के ऊपर आज वो इक टांग से,
    हौसला फौलाद सा, पत्थर सी हैं ये लडकियां!

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  9. वाह!
    आपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को कल दिनांक 22-10-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1040 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ

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  10. KUCHH SHE'R BAHUT BAHUT PASAND AAYE..

    KHAAS KAR PAHLAA

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  11. बहुत अच्छी रचना है, श्री आनंद परमानंद तक आभार पहुँचाईयेगा।

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  12. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण

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  13. काव्यानुभूति और बदलाव की कसक यकसां है इस रचना में .

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  14. आनंद जी की इस रचना को प्रस्तुत करने के लिए बहुत धन्यवाद. बहुत सुन्दर ग़ज़ल है.

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  15. बहुत सुन्दर है ग़ज़ल।

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  16. अनुष्ठानों के मंगल कामना के श्लोक सी,
    घर के सिर पर हैं धरीं, सौगन्ध जैसी लड़कियाँ .... जिसके हाथों से घर की खुशबू आती है
    परमानन्द जी को बधाई,आपका आभार

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  17. बेहतरीन प्रस्तुति बहुत सुन्दर सुर , लय और ताल से सजी जैसी रचना |

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  18. रचना को साझा करने के लिए आभार ...परमानन्द जी को धन्यवाद ...

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  19. एवरेस्ट से अन्तरिक्ष तक फतह करती लड़कियां
    फिर भी क्यों रह जाती अपठित ये लड़कियां !
    कविता साझा करने के लिए आभार !

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  20. कविता का शिल्प मन को बहुत भाया
    लड़कियों को पढ़ना शायद अभी किसी को नहीं आया ।

    छंद में सिमटी थीं , अब उन्मुक्त हुयी लड़कियां
    द्वंद्व छोड़ अब सारे समास हुयी लड़कियां ।

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  21. बहुत ही बढ़िया
    विजय दशमी की हार्दिक शुभ कामनाएँ!

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  22. हर शेर बेहतरीन , बेहद ह्रदय स्पर्शी !!!

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  23. सही कहा लड़कियां पढ़ी नहीं जा सकती, परिवेश ही एस हो गया hai, बहुत सुंदर रचना.... बहुत बहुत बधाई आपको, साथ ही विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ

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  24. bahut sundar....padhaane ke liye dnanyavaad

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  25. बहुत ही सुन्दर और सार्थक रचना । रचनाकार को नमन ।

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