12.1.12

पतंग

कटे बांस के
दो टुकड़ों संग
बंधी हुई डोरी।

मैं पतंग हूँ
उड़ना चाहूँ
उड़ा मुझे होरी।।

अरे ! संभल के
ठुमकी ठुमकी
नील गगन आया
ढील न इतना
खींच मुझे अब
फटती है काया

शातिर दुनियाँ
छूट ना जाए
अपनी यह जोरी।

एक न मानी
पेंच लड़ाई
सौतन से तूने
कटी मैं मगर
मेरी नज़र से
तू ही लगा गिरने

लगे लूटने
कई हाथ अब
मैं तो थी कोरी।
......................

53 comments:

  1. ...सब कुछ करना मगर पतंग कोरी ही रखना :-)

    बाद में ही टीपता हूँ !

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    1. उन्हें कोरी पे ही संतोष होना है तो कोई क्या कर सकता है :)

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    2. अली साब ,आपको जूठी पसंद है क्या ?

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    3. संतोष जी..

      जहां गहरी संवेदना होनी चाहिए वहाँ उपहास..! थोड़ा ध्यान दें.. कविता असहाय नारी के प्रति लोकभावना भी उजागर करती है।

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    4. @ देवेन्द्र जी ,
      आपकी भावनाओं का सम्मान करते हुए साइड वाली लाइन से गेंद गोल में डाल रहा हूं :)

      @ संतोष जी ,
      अब आपसे दोनों अर्थों में बातें कर ली जायें :)

      (१) आप को 'कोरी' पसंद , हमें सब 'जात' की :)

      (२) हमें तो कोरी / जूठी / झूठी / सब पसंद हैं इस मामले में भेदभाव कैसा :) ये तो आप हो जो मर्यादा पुरुषोत्तम से सबक नहीं लेते ! उन्होंने तो साबित ही किया कि जूठन भी खाई जा सकती है अगर खिलाने वाला प्रिय हो तो :)

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    5. Devendra ji
      आपकी भावनाओं तक न पहुँच पाने का बड़ा अफ़सोस है .कृपया अन्यथा न लें.

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    6. संतोष जी...

      आपने मेरी भावनाओं को समझा इसके लिए हम आपके आभारी हुए। जो, जितना लेता हूँ बता देता हूँ कोई उधारी खाता नहीं रखता।..कृपया अफसोस न करें।

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  2. डोर, खपच्ची, पन्नी, हवा, उड़ान

    पतंग को जीवन सा बना दिया आपने। हम तो कब से कटने को तैयार बैठे हैं।

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  3. संक्रांत के आते ही चरों तरफ पतंग उड़ाने की ललक ....लड़कों में अजीब सा जोश दीखता है ...पर पतंग के मनोभावों को जिस खूबसूरती से आपने उकेरा है ...जैसे जीवन से जोड़ा है ...काबिले तारीफ़ है ...गहन ...दार्शनिक अभिव्यक्ति है ...जीवन से जुड़ी हुई ...

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  4. तो आप रात में भी पतंग उड़ाते हैं।

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    1. अफसोस! आप दिन में भी देख कर नहीं बताते कि कैसी उड़ाई:)

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  5. naye bimb liye hain aapne jindgi ke ......

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  6. हाँ देवेन्द्र भाई, पतंग डोर से बंधी रहे...डोर किसी के हाथ में रहे तब तक ठीक है, वरना समझो कटना-फटना-लुटना तो तय है...!!

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  7. Patang aur nari man .... Dono ki bhavnayen Bahut Kemal hoti hain ... Preet ki dor se bandhni padti hain ...

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  8. बहुत खूब , अंत में;

    तू डोर मैं पतंग तोरी

    ना कर जोरा- जोरी :) :)

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  9. चली चली रे देव बाबू की पतंग :-)

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  10. बहुत अच्छी है पतंग की व्यथा कथा ..

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  11. पतंग को कस कर ही पकडे रहना पड़ता है ।
    ज़रा ढील दी नहीं कि लगी डगमगाने । :)

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    1. जी अच्छा! लैपटॉप छोड़ते ही पकड़ लुंगा:)

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  12. देवेन्द्र भाई! कविता तो बिलकुल सीधी मस्तिष्क से ब्लॉग में उतारी है.. सुधार, कमी वगैरह दूर करने बैठे तो कविता कोरी न रह जायेगी..
    और इस पतंग के बारे में क्या कहूँ.. कोरी ही धर दीनी पतंगिया!! :)

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    1. धन्यवाद..छेड़छाड़ न करने के लिए:)

      पतंगिया हो या हो चदरिया..मूरख मैली कीन्हीं...
      ओढ़ सको तो ऐसे ओढ़ो जैसे ओढ़े...कबीरा
      दास कबीर ने ओढ़ी चदरिया..ज्यों की त्यों धरी दीन्हीं।

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  13. बांस अमूमन कच्चा नहीं हो तभी पतंग का फायदा है और चलन भी यही है ,प्रतीकात्मक रूप से बांस की कमचियां पतंग के साथ अपने से दूर करने / त्यागने का अर्थ आप उभार पाये हैं ! होरी के संग और होरी से दूर पतंग की उड़ने की इच्छा ,नील गगन का असीम विस्तार और पतंग की देह सीमाओं का अदभुत खाका खींचा है आपने ! बिछड़ने की आशंका , दुनिया का शातिरपन और सौतन नाम की प्रतिस्पर्धा के ताने बाने में आपने मानवीय संबंधों के बदलते आयाम उजागर किये हैं ! कुल मिलाकर कविता के बहाने समाज की बखिया उधेड़ दी आपने !

    ( आज देर रात लिखी है यह टिप्पणी , अभी वैसे ही पोस्ट किये दे रहा हूं ! संभव है इसमें कुछ कमियां शेष रह गई हों ! अगर आपकी आपत्ति हुई तो पुनर्लेखन का प्रयास करूँगा ! साभार :) )

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    1. आपका कमेंट, पतंग के अर्थ बता कर स्पैम में घुस गया था। सुबह पकड़ कर निकाला और आदर के साथ पोस्ट में बिठा दिया। ...आभार।

      आज देर रात...को जैसे आपने लौटाया उससे यही नसीहत मिलती है कि कविता के साथ कुछ भी भूमिका या सफाई लिखना कविता की जान निकालने के लिए पर्याप्त होता है।..पुनः आभार।

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    2. माने आपने हमारा नाम स्पैम स्क्वाड को नोट करा रखा है :)

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  14. सुंदर प्रस्तुति के लिए आभार।
    लोहड़ी की शुभकामनाएं।

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    1. धन्यवाद। लोहड़ी के साथ मकर संक्रांति की भी शुभकामनाएं।

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  15. आज देर रात पढी है यह कविता ....जैसी लिखी वैसी ही पढी .......जैसी पढी वैसी ही समझी .....समझने में कुछ कमी रह गयी होगी तो आज देर रात फिर से पढ़ कर समझने की कोशिश करूंगा ......
    वैसे आपने जयपुर की याद दिला दी पाण्डेय जी ! जोकि मौसम को देखते हुए अच्छी बात नहीं है .....खैर, आप अपनी पतंग को कस कर पकड़े रहिएगा ...मोहल्ले के छोरे बांस में झाँखर लगा कर वो लूटा......वो लूटा ......करने के लिए घात लगाए बैठे हैं.
    पतंगें जब आसमान में एक दूसरे को देखती हैं तो बातें भी करती हैं आपस में ...."कमला" की तर्ज़ पर पूछती हैं-"तुझे कित्ते में खरीदा रे ?" दूसरी बोलती है - "अरे ! वो छोड़ ....ये सोच कि ये मुए हमें खरीदते भी हैं और आसमान में ले जाकर आपस में लड़वाते भी हैं ...हम शहीद होती हैं तो भी नहीं छोड़ते ...इनके पीलामन ( बच्चे ) ज़मीन पर आने से पहले ही लूट भी लेते हैं.....हम कब तक लुटते रहेंगे यूँ ही ?"

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    1. हा..हा..हा..तबियत खुश हो गई। आपको पता है जब मैं यह कविता लिख रहा था तो मैने कई बार पतंगों से उनकी बातचीत भी लिखी थी, आपकी ही तर्ज पर। फिर उसे मिटा दिया। कविता के खाके से बाहर जा रही थी बातचीत। इसी अंदाज में एक व्यंग्य आलेख लीखिए..नहीं तो मुझे ही मेहनत करनी पड़ेगी। ..शुक्रिया।

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  16. बहुत सुन्दर है यह देर रात लिखी कविता ..
    बिम्बात्मक और जीवन दर्शन से युक्त

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    1. धन्यवाद सर जी।
      जीवन दर्शन का क्या है! रात में ही आते हैं सुबह विस्मृत हो जाते हैं:)

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  17. पतंग के माध्यम से जीव और सामाजिक बंधन के साथ ही
    असहाय नारी के प्रति लोकभावना का अच्छा विश्लेषण किया है ।
    घाटों वाला लेख कुछ जमा नहीं । घर ने भी मुझे प्रभावित नहीं किया ॥

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    1. आपको पतंग पसंद आई इसी पर मगन हूँ। क्या हुआ जो घर के रहे न घाट के!:)
      आपकी बेबाक टिप्पणी और मन से ब्लॉग को पढ़ने के लिए ह्रदय से आभारी हुआ।

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    2. ee nayka tip-pranali samajh nahi aa raha isliye yahin tip raha hoon...

      pichle 3 din se 'apko apne nirnay pe afsos na ho' pe vichar kar raha hoon.........jald hi kuch prayas kiya jayega.....bharosa banaye rakhenge......

      pranam.

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    3. बनाये हूँ..मगर आप लिख ही डालिए:) इत्ता काहे सोच रहे हैं!

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  18. शनिवार 14-1-12 को आपकी पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  19. कटी फटी फिर भी लुटी पतंग :)

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    1. पतंग के बारे में हमारे ख्यालात कितने मिलते हैं !

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  20. Wah, bahut khub...bahut sundar

    www.poeticprakash.com

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    1. प्रकाश जैन जी..इस अढ़ी में आपकी स्वागत है।..आभार।

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  21. bahut sundar. thode shabdon mein bahut kuchh kah diya.

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    1. Kavita to sundar hai hee...' Makar Sankranti' ye aalekh bhee bahut badhiya laga!

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  22. पतंग पर आलेख और कविता दोनों पढ़ी...
    बचपन की यादों में शामिल रहती है,पतंग....और धीरे-धीरे वह भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम बन जाती है..
    सुन्दर कविता

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  23. कटती लुटती उड़ती पतंग....सुन्दर अभिव्यक्ति...मकरसंक्रांति की शुभकामनाएँ

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  24. वाह पांडेयजी मजा आ गइल।

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  25. पतंग के माध्यम से सुरु में लगा कि इश्वरीय शक्ति का आदमी को चलाने का भाव ब्यक्त हो रहा है,मगर बाद में ये बात नजर नहीं आई.हाँ,पतंग के बारे में अछ्छी कविता है.

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  26. ऐसे सुबह सुबह सेंटी करने का तो नहीं हो रहा था देवेन्द्र जी। :)
    पतंग उड़ाना नहीं सीख पाया मैं ढंग से. पर बावजूद उसके खिचड़ी पर बनारसियों की रग-रग से सद्दी-मांझा ही बोलता है।
    कविता तो खैर है ही बढ़िया।
    बचपन में हम कहते थे, पतंगबाज़ आपने हाथ की लकीरें खुद लिखता है, मांझे से काट-काट के।
    आपको और आपके सभी प्रियजनों को मकर-संक्रांति (खिचड़ी) की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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    1. आपको भी खिचड़ी की बधाई। अरे..! आप बनारस आते और चले जाते हैं। एक मेल ही कर देते..ऐसी क्या नाराजगी?

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    2. नाराजगी!! नहीं तो?
      अबकी जब आना हुआ तो सूचित करूँगा। :)

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