24.10.12

सर्वहारा


सूर्योदय हो या सूर्यास्त
चौकन्ने रहते हैं
चिड़ियों की तरह
नाटे, लम्बू, कल्लू, छोटू
या फिर
बिगड़ैल पूँजीपतियों के शब्दों में-
हरामख़ोर।

भागते हैं
साइकिल-साइकिल
दौड़ते हैं
सूरज-सूरज
तलाशते हैं
दाना-पानी

दिन ढले
इन्हें देखकर
खोँते में
किलकने लगते हैं
चँदा, सूरज, राधा, मोहन
या फिर
राजकुमारी।

चोंच की तरह
खुल जाता है
झोले का मुँह
चू पड़ते हैं धरती पर
टप्प से
कुछ स्वेद कण
तृप्त हो जाती है
जिन्दगी।

अजगर की तरह
गहरी नींद
नहीं सो पाते,
बुद्धिजीवियों की तरह
नहीं कर पाते
शब्दों की जुगाली,
बांटते हैं दर्द
आपस में।

कमेरिन कहती है..
लाख काम करो
दू रोटी कम्मे पड़ जात है!
इहाँ चन्ना देर से निकसत हs का ?
गाँव मा तs 
हम जल्दिये सूत जात रहे
इहाँ तs
सोवे कs भी मउका नाहीं मिलत 
पूरा।

कल बहनिया ताना मारत रही 
हमार शहर बहुत बड़ा हs
तोहार तs, जैसे गाँव!

डांटता है कमेरा’....
अच्छा! ऊ का कही गोबर गणेश!!
जस हो, तस भली अहो
दूर क बंसी
सुरीली जान पड़त है
तोहें खबर है?
महानगरी में तs
सूरज डूबबे नाहीं करत

रोवे क भी मउका नाहीं मिलत  
पूरा!
......................

24 comments:

  1. sundar shabdo main sundar rachna

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  2. बढ़िया कबिताई....संवेदनशील !

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  3. टू इन वन -- बहुत खूब रही . रोज नया हैडर फोटो -- और भी खूब ! :)

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬●ஜ
    ♥(¯*•๑۩۞۩~*~विजयदशमी (दशहरा) की हार्दिक बधाई~*~۩۞۩๑•*¯)♥
    ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬●ஜ

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  5. प्रभावशाली अभिव्यक्ति

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  6. सर्वहारा का दर्द। मार्मिक कविता।

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  7. शहर में चाँद नहीं निकलता ... वह भी सूरज बन जाता है

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  8. बहुत गहन.....बहुत सुन्दर।

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  9. वाह!!
    बहुत सुन्दर....
    हालांकि थोड़ा सा वक्त लगा समझाने में...

    अनु

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  10. सर्वहारा वर्ग द्वारा अपनी क्षुधा मिटाने की हुज्जत का एकदम कारुणिक चित्र खीच डाला है आपने. अब औरी का कहें .

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  11. कमाल की रचना देवेन्द्र भाई!!सीधा दिल में उतर जाती है और ऐसा लगता है कि दृश्य खोंच गया हो.. अदम गोंडवी की ग़ज़लों सी चुभती है!!

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  12. .
    .
    .

    इहा सोवे त रोवे का भी मउका नाही मिलत पूरा... मजूर की नींद त आंसू भी भुनाय पईसा पैदा कर रहे हैं हरामखोर पईसन वाले...



    ...

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  13. देवेन्द्र जी आपकी कविता पढकर अभिभूत हूँ । सर्वहारावर्ग का ऐसा जीवन्त चित्रण मैंने तो अभी तक नही पढा । आप मेरे ब्लाग पर नही आते तो शायद मैं इतनी अच्छी रचनाओं से वंचित ही रहती । आभार आपका ।

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  14. बेहद सटीक और सशक्त, शुभकामनाएं.

    रामराम

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  15. बहुत प्रभावशाली अभिव्यक्ति

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  16. सर्वहारा का दर्द झलक रहा है कविता से. बहुत भावपूर्ण सुंदर प्रस्त्तुति.

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  17. बहुत बढ़िया दिल को छू जाने वाली रचना ...आभार

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  18. गहरे दर्द में पिरोयी हुई एक प्रभावशाली रचना.

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  19. लाजवाब शब्द संयोजन, भाव सघन, क्षेत्रीयता की गंध
    वाह

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  20. सुन्दर संवेदन शील आंचलिक शब्दों का अदभुत भाव पूर्ण संयोजन..
    शहर और गाँव की सक्रांति पर बैठा भाव कोमल मन....
    आभार एवं अभिनन्दन !!!

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  21. अजगर की तरह गहरी नींद न सो पाते हैं और न ही बुद्धिजीवियों सी जुगाली का वक़्त है उनके पास,
    बहुत बढ़िया चित्रण किया है, इन कर्मयोगियों का

    BTW वो ख़ूबसूरत कंदीलों से सजी पोस्ट नज़र नहीं आ रही, आज गौर से देखने का मन हुआ तो पोस्ट ही गायब है :(

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