11.7.13

वर्षा का पानी

बढ़ता ही जा रहा है
अंधेरा
कसता ही जा रहा है
खामोश बादलों का
घेरा
सुनाई दे रही है
बीच-बीच में
संघर्ष की गुर्राहट  
सूरज
चौकीदारी छोड़
कहीं दूर
धुंधियाया,
लापता है।

हवाओं ने
अचानक से बदला है
रंग
झरने लगी हैं
वृक्षों की शाख से
सूखी पत्तियाँ
लगता है
बारिश होने वाली है
शाम
झमाझम होगी।

मगर हमेशा की तरह
सशंकित हैं
मेढक-झिंगुर
मिलेगा भरपूर
वर्षा का पानी!

चारों तरफ हैं
सांपो के बिल
अभी से
लपलपा रहे हैं
जीभ
बरगदी वृक्ष।
………


22 comments:

  1. पूरा फोटूवे खिंच दी आपने बुन्नी बरिखा वाले माहोल का

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  2. वर्षा के बढ़ते पानी का सजीव चित्रण ।

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  3. बहुत ही सुंदर और सामयिक रचना.

    रामराम.

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  4. सब के सब क्रियाशील हो जाते हैं।

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  5. जिन पौधों के प्रार्थना पे ये सावन आया था कहीं उन्हें ही ना उखाड़ डाले...
    समय की विडम्बना ।

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  6. वर्षा सब की भरपाई कर देती है।

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  7. बहुत उम्दा लाजबाब प्रस्तुति,,,

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  8. वर्षा का स्वागत - सब का अपना-अपना ढंग!

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  9. वर्षा की भीगी सी अनुभूतियाँ । लेकिन हमने तो अब झींगुर-मेंढकों वाली झमाझम बारिश जाने कब की देखी है । तब कई दिनों सूरज के दर्शन नही होते थे । प्रकृति के खेल हैं कहीं बाढ से तबाही तो कहीं खेत वर्षा के इन्तजार में सूख रहे हैं ।

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  10. सुंदर अनुभूति .. सुंदर चित्रण
    वाह

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  11. सावधान रहिये!

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  12. ये तो आपने मेरे पुराने घर के बारिश का पोट्रेट सामने रख दिया!!अब यहाँ जहाँ हूँ..ऐसा कुछ भी महसूस नहीं होता :(

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  13. मेंढ़कों झींगुरों की आवाजों वाली बारिशें कहीं पीछे छूटीं !
    वर्षा दिख रही है कविता में !

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  14. मुझे तो डर है कि ये बर्षा रानी भी अपना काम धंधा छोड़कर कहीं इफ्तार पार्टी और कांवड़ियों के भोज में न सम्मिलित हो जाए :)

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  15. सुन्दर प्रस्तुति है आदरणीय देवेन्द्र जी-
    शुभकामनायें-

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  16. बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें ,कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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  17. यह सुखद अनुभूति है कि मेरी इतनी व्यस्तता, मित्रों के लिखे पर समय न दे पाने के बावजूद, आप सभी मेरे लिखे को पढ़ते ही नहीं प्रतिक्रिया भी देते हैं। आभार व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। कठिन समय के सभी साथियों का हृदय से आभारी हूँ।

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  18. सजीव चित्रण

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  19. कविता सुन्दर है.बरगदी पेडों को देखकर डर लगता है.

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