'बनारस की कजरी' अब तो लुप्त प्रायः हो
गई है। सुनने का सौभाग्य तो अधिक नहीं मिला लेकिन कभी-कभी पढ़ने को मिल जाता है।
कहा भी जाता है...
दसमी रामनगर की भारी
कजरी मिर्जापुर सरनाम।
वर्षा की पहली झड़ी की अर्जुन के बाणों
से तुलना, कुशल
गीतकार की ही कल्पना हो सकती है.....
पुरूब देस से चढ़े बदरवा, पच्छुम बरसइ जाई।
पहिल बदरवा कसि के बरसइ, जस अरजुन के बान।।
शब्द चित्रण की दृष्टि से कजरी गीतों
में वर्षा का जैसा सजीव चित्रण मिलता है, श्रेष्ठ काव्य में भी वैसा मिलना कठिन है। यह किसने लिखा पता नहीं
लेकिन जिसने भी लिखा वह श्रेष्ठ गीतकार रहा होगा....
छाई बदरिया नभ मंडल में, अउर रसै रस बहै बयार।
बुन्न बुन्न में अमरित टपके, भर गये ताल तलंगर नार।।
रेवां बोलत बा पोखरिन में, अउ बनवां मंह नाचइ मोर।
पिहिक पपिहरा मोर अटा पर, रतिया दिनवा करै अलोर।।
प्रकृति के साज सिंगार करने के साथ-साथ
हर्षोल्लास में स्त्रियाँ भी सोलहों श्रृंगार की कल्पना में डूब जाती हैं।
ग्राम्या नायिका का नख शिख वर्णन अत्यन्त सहज एवं सटीक है...
अंखिया में सोहइ जानीकर हो कजरबा
मथवा में एंगुर का दगवा अरे हो
सांवरिया,
अंगिया के सोहइ पंचरंग चोलिया
ऊपरां कुसुम रंग चोली, अरे हो
सांवरिया।
ऐसी नायिका मनचलों की दृष्टि से कैसे
बच सकती है? विशेषतः जब सावन का मौसम सुहाना हो। नायिका को
मनचला छेड़ ही देता है और संकेत से अपने घर चलने के लिए कहता है। नायिका भी कोई
छुईमुई नहीं है, तुरन्त उत्तर देती है....
तोहरे से सुंदर मोर पिया बाय,
कि नाहीं बाबू कइलेनि गवनवां
अरे हो सांवरिया....
मेरा गौना नहीं हुआ है, परन्तु मेरे
प्रियतम तुमसे कहीं ज्यादा सुंदर हैं। मनचले ने तुरन्त पूछा, “जब तेरा गौना नहीं हुआ, तूने अपने
प्रियतम को देखा ही नहीं, फिर तुझे कैसे पता चला कि तेरे प्रियतम मुझसे सुंदर हैं?” वाक् पटु नायिका ने मनचले को अपनी दृढ़ता और वाकचातुर्य
से से निरूत्तर कर दिया....
सेन्हुरा बहोरत कूं चिन्हली चुटिकिया,
मउरा छोरत लाली अंखियाँ,
अरे हो सांवरिया....
सिंदुर दान करते समय उनके हाथ दिखलाई
पड़ गये और मौर उतारते समय रतनारे मदभरे नयन।
गीतों में ऐसे अनेक भावात्मक प्रसंग आते
हैं जिन्हें सुनकर रसिक श्रोता आत्मविभोर हो जाते हैं।
रिमझिम संगीत के साथ सावन आया, तन मन
शीतल हो गया। नायक के आगमन से नायिका का मन जुड़ा गया, पर विरहिणी की विरह ज्वाला
और भी सुलग उठी।
जिस विरहिणी का तन-मन विरह में जल रहा
हो, वह चाह कर भी पाती नहीं लिख पाती। उसके विरह की पीड़ा शब्दों की सामर्थ्य से
परे है। विरह की पाती के लिए उपयुक्त स्याही भी नहीं है। विरहिणी अपनी ननद से आँचल
के कागज पर नीर की स्याही से पाती लिख कर देवर से भिजवाने का मार्मिक प्रार्थना
करती है-
काहे क बनवउं कगदवा हो ननदी, कहेंन कइ
मसिहान।
केके भेजउं कपथवा हो ननदी, लिखि चिठिया
भेजि दीह्या।।
आंचल फारि कगदवा हो भउजी, नयनन कइ
मसिहान।
लछिमन देवरवा कपथवा हो ननदी, लिखि
चिठिया भेजि देउ।।
एक विरहणी अपने बालम को आँसू से पाती
भेजती है, तो दूसरी प्रियतम की पाती की आकुल प्रतीक्षा कर रही है-
आये रे सजनवां नाहीं आये मन भवनवाँ
रामा,
जोहते दुखाली दूनो अखियां रे हरी।
केहू न मिलावे उलटे मोहे समझावे रामा
दुख नाहीं बूझे प्यारी सखिया रे हरी।
केहि बिधि जायों उड़ि पिया के पायों
रामा
उड़लो न जाये बिन पंखिया रे हरी।
विरह की व्यथा से खीझी और बेकल नायिका
का इससे अच्छा चित्रण और क्या हो सकता है?
लोकगीतकार भले महाकवि कालिदास की कोटि
के विद्वान न रहे हों, परन्तु कजरी में मेघ द्वारा संदेश भेजने की हृदय स्पर्शी
अभिव्यक्ति ने कुछ अंशों में कालिदास कृत ‘मैघदूत’ को
भी पीछे छोड़ दिया है-
नाहीं अइलें अदरा के बदरा,
चलि गइलैं कतहू विदेसवां,
सुनु बहिनी हमार पुरवइया,
बदरा से कह तू सनेसवा,
देसवा क कटते कलेसवा,
झूलैं के देबइ तोहे बांसे क कइनियां।
सोवइ बदे ताले कै लहरिया,
चलि गइले कतहुं विदेसवां।
खाये बदे देबे तोहइ मकई क बलिया,
अचवे के भुंअरी क दुधवा,
चलि गइले कतहू विदेसवा।
भूमि पर रहनेवाली नायिका का आकाश के
मेघ से क्या संबंध ? पता
नहीं मेघ कब किधर मुड़ जायें, अथवा हवा दूसरी दिशा में उड़ा ले जाये और संदेश
पहुँच ही न सके। अतः उक्त द्वयर्थक गीत में एक ओर कृषक का पुरवइया से समृद्धि की वर्षा
करनेवाले आर्दा नक्षत्र के मेघ को आगमन संदेश देने का आग्रह है, तो दूसरी ओर आनंद,
शीतलता देने वाले बालम के प्रतीक मेघ से संदेश देने का आग्रह करती हुई नायिका
पुरवइया हवा से कहती है, “बहिन
जाकर उनसे कहना, शीघ्र आकर मेरी व्यथा दूर करें। मैं तुम्हें झूलने के लिए बांस की
पतली कैनी, सोने के लिए ताल की लहरें, खाने के लिए मक्के की बालें तथा पीने के लिए
भूरी भैंस का दूध दूँगी।“
पिया को आना कहाँ है! वह तो परदेश में कहीं फँस गया है।
वर्षा से धरती तो जुड़ा गयी, पर विरहिणी अपने आँसू की बाढ़ में ही डूबने लगती है-
अदरा से बदरवा, बदरवा से पानी,
पायी के पिआर भुंई भइली गुमानी
फुटि फुटि निकलई, सनेहिया क अंखुआ
रोइ-रोइ रोवैला बदरवा अंकसुआ।
‘रोइ-रोइ रोवैला’ का
काव्य सौन्दर्य एवं ऐसी सशक्त अभिव्यक्ति अनेक पंक्तियों में भी संभव नहीं है।
काव्यात्मक चमत्कार एवं गुणों की
दृष्टि से कजरी गीत अद्वितीय हैं। बिहारी ने ‘जा तन की झाई परै,
स्याम हरित दुति होय।”
कहकर राधाकृष्ण युगल का हृदयग्राही वर्णन किया था। कजरी में मेघ और दामिनी को
राधाकृष्ण के संदर्भ में लोक गीतकार ने नये अंदाज में पेश किया है।
गोरि-गोरि बिजुली, बदरवा बा करिया,
करिया मरदवा क, गोरकी मेहरिया।
गोरकी मेहरिया बदरा के रंग
मांगि जनमे कन्हइया,
देहलें बा रधया के रंगवा बिजुरिया।
काले मेघ और गोरी बिजली को देखकर
प्रतीत होता है कि साँवले पुरूष को गोरी स्त्री मिल गयी है...इन्हीं काले बादलों
से रंग माँग कर कृष्ण ने जन्म लिया और राधा को दामिनी ने अपना गौर वर्ण दिया।
.......................................
...यह पोस्ट सुरेशव्रत राय( धर्मयुग, 29 जुलाई, 1973 ई.) के आलेख बनारस की कजरी का कुछ अंश जिसे सोच
विचार पत्रिका, काशी
अंक-चार में प्रकाशित किया गया है, से साभार।
आदरणीय गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी ने इस पोस्ट को पढ़कर बहुत अच्छा लिंक दिया...
सावन के लोकगीतों में प्रेमाख्यान। इस श्रृंखला में इनकी तीनो पोस्ट आनंद दायक हैं। यदि आप लोकगीतों में रूची रखते हों तो ये तीनो पोस्ट जरूर पढ़ें, आनंद आयेगा। लिंक यह रहा...
सावन के लोकगीतों में प्रेमाख्यान..1
सावन के लोकगीतों में प्रेमाख्यान..2
आदरणीय गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी ने इस पोस्ट को पढ़कर बहुत अच्छा लिंक दिया...
सावन के लोकगीतों में प्रेमाख्यान। इस श्रृंखला में इनकी तीनो पोस्ट आनंद दायक हैं। यदि आप लोकगीतों में रूची रखते हों तो ये तीनो पोस्ट जरूर पढ़ें, आनंद आयेगा। लिंक यह रहा...
सावन के लोकगीतों में प्रेमाख्यान..1
सावन के लोकगीतों में प्रेमाख्यान..2
सावन के लोकगीतों में जीवन के रंग.3
आहा आहा ......बहुत ही सुन्दर ।
ReplyDeleteबेहतरीन लिखा है, कलकता मे रहते थे तब बहुत सारे बनारसी मित्र थे उस समय की याद दिलादी आपने, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
मस्त मस्त ....
ReplyDeleteजय बाबा बनारस...
एक दिन , अलग अलग क्षेत्रों की शैली में यूट्यूब पर पेट भर कर कजरी सुनी , वह दिन बहुत अच्छा बीता :-)
ReplyDeleteवाह जीवंत हो गया यह सीजन
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर पढ़कर ख़ुशी हुयी...
ReplyDelete:-)
वाह वाह। बहुत मनभावन प्रस्तुति।
ReplyDeletewaah !
ReplyDeleteबहुत उम्दा,सुंदर प्रस्तुति ,,वाह !!!
ReplyDeleteRECENT POST : अभी भी आशा है,
हमारे यहाँ लोकगीतों की समृद्ध परम्परा है । ऐसे आलेख विस्मृत होती इस निधि को नवजीवन देते हैं । गीतों में उपमा रूपक उत्प्रेक्षा,वक्रोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग अद्भुत है । भाव तो समृद्ध हैं ही । बहुत ही सुन्दर सरस और उपयोगी लेख । हो सके तो आप मेरा सावन के लोक-गीतों में प्रेमाख्यान आलेख भी पढें । http://yehmerajahaan.blogspot.in/2012/07/1.html
ReplyDeleteआपने जो लिंक दिया उसके लिए कृपया आभार स्वीकार करें।
Deleteआनंदमयी पोस्ट।
ReplyDeleteमनोरम लोकगीत
ReplyDeleteथोड़े दिनों पहले ही रविश के कार्यक्रम में कजरी सुनी थी.. पढ़कर मजा दोगुना हो गया ।
ReplyDeleteमौसम में परंपरा की मीठी तान !
ReplyDeleteआहा आनंद आनंद हो गया मन.
ReplyDeleteसुंदर। कुछ दिन पहले एन.डी.टी.वी. पर एक कार्यक्रम’हम लोग ’ में कजरी का कार्य्रक्रम हुआ था। अच्छा लगा इसे पढकर।
ReplyDeleteअहा! सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeleteकलाकार देवेन्द्र को सलाम पंहुचे ..
ReplyDeleteवाह ... कजरी का मज़ा ... लोकगीतों का मज़ा अलग ही होता है ...
ReplyDeleteबधाई इस पोस्ट के लिए ...
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteलोकगीतों का आनन्द ही अलग है...
ReplyDeleteमौसम के अनुकूल लोकगीतों के मनभावन रंग आनन्दित कर गए !
ReplyDeleteदेवेन्द्र जी, कजरी के बारे में आपके आलेख से मन प्रसन्न हो गया| ये सही है कि अब ये हमें ज्यादा सुनने को नहीं मिलती पर अभी भी वाराणसी आकाशवाणी औए दूरदर्शन से इसका प्रसारण जरूर होता होगा हालांकि चैनलों की भीड़ में अब इन्हें कौन सुनता या देखता होगा ये शोध का विषय है.... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteAhaa!!!!kitna sundar :) :) :) :)
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