भेड़ो कें झुँड से
अलग कर दी गई बकरी
बकरियों के साथ
नहीं रह पाया भेड़
सियार बनने के प्रयास में
मारे गये कुत्ते
खरगोशों ने
दूर तक खदेड़ा
सफेद चूहों को
बिल्ली मारी गई
कुत्तों के चक्कर में।
शेर ने खाया
बस पेट भर
मौके का लाभ उठा
स्वाद के लिए
निरीह का खून पीते रहे
दूसरे जानवर।
जी नहीं पाया
सुकून से
जिसने स्वीकार नहीं किया
जंगल का कानून।
नहीं दिखते
बिच्छुओं से डंक खाते जाने
और...
माफ करते रहने वाले
साधू।
क्या आप फँसे हैं कभी
ऐसे जंगल में?
नहीं...!
ओह!
निःसंदेह आप
भाग्यशाली और
बुद्धिमान हैं।
.....................
जी नहीं पाया
ReplyDeleteसुकून से
जिसने स्वीकार नहीं किया
जंगल का कानून।
aaj kee sachchai dikhati sundar abhivyakti .
achchhe tarike ke aaj ke smy ki tsveer khichi hai aapne is kavita me
ReplyDeletebadhai
rachana
जंगल का लोकतंत्र ऐसा ही है !!
ReplyDeleteइससे भी खराब देश का हाल देख रहे हैं। अच्छा कविता।
ReplyDeleteजंजाल है।
ReplyDeleteसटीक कथ्य है.
ReplyDeleteरामराम.
वहीं है हम सबका मुकाम।
ReplyDeleteआपका सन्देश पाते ही कविता के अंदर अपनी भूमिका / हैसियत चीन्हने की कोशिश कर रहा हूं !
ReplyDeleteजी, यह कोई दूसरा नहीं बता सकता।
Deleteवाह ... क्या अंत दिया है रचना को ...
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब व्यंग ... सटीक ... करारा ...
सही में, जंगल में ही है हर कोई
ReplyDeleteगजब है इस जंगल का कानून-
ReplyDeleteजीने के लिए अपनाना होगा-
गजब-
धन्यवाद।
ReplyDeleteजंगल का कानून किसी को नहीं बख्शता ………बहुत बढ़िया |
ReplyDeleteनहीं किसी का ग्रास बनेगें, हम अपने ही त्रास बनेंगे।
ReplyDeleteअच्छी कविता । इस जंगलराज से बचना ही बडे जीवट का काम है । कविता का शीर्षक कविता से साम्य करता नही लगता । सायद मेरी समझ में न आरहा हो ।
ReplyDeleteपहले 'मैं मूर्ख' लिखा था। बाद में 'मूर्ख' ही रहने दिया। कहना चाहता था कि जो भी इस जंगल राज से नहीं बच पाये वे सभी मूर्ख हैं। जो बच गये वे भाग्यशाली हैं या बुद्धिमान। 'बुद्धिमान' शब्द में यहाँ व्यंग्योक्ति है। शायद मैं सफल नहीं हुआ।
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