घर की बाउंड्री के बाहर
लगे हैं
कदंब के वृक्ष
जब लगे थे
बहुत छोटे थे
अब बड़े हो चुके हैं
बच्चे
और बड़े हो चुके हैं
वृक्ष,
छत से भी
अब बड़े हो चुके हैं
बच्चे
और बड़े हो चुके हैं
वृक्ष,
छत से भी
कई हाथ ऊँचे!
खिलते हैं
तो सुंदर दिखते हैं
फूल
हँसते हैं
तो सुंदर दिखते हैं
बच्चे
तो सुंदर दिखते हैं
बच्चे
झरते हैं
कदंब के फूल
तो न जाने क्यों
ऐसा लगता है
जैसे
झर रहा है
बच्चों का बचपन!
शेष बचेगा
फल
धीरे-धीरे
पकेगा
और झर जायेगा
टप्प से
एक दिन।
झरे हुए फूल
टपके हुए फल
कदंब के फूल
तो न जाने क्यों
ऐसा लगता है
जैसे
झर रहा है
बच्चों का बचपन!
शेष बचेगा
फल
धीरे-धीरे
पकेगा
और झर जायेगा
टप्प से
एक दिन।
झरे हुए फूल
टपके हुए फल
छत पर
ध्यान न दो
तो बंद हो जाती है
छत की नाली
छत की नाली
ठहर जाता है
वर्षा का पानी
सिलने लगती हैं
दीवारें
धुलने लगती है
पेंटिग
पुस्तकों में
लग जाते हैं
दीमक।
,,,,,,,,,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,
गजब!!
ReplyDeleteइसी तरह बच्चों के झरते हुये बचपने को भी बचाने का ध्यान रखना होगा ... सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteआपने लिखा....
ReplyDeleteहमने पढ़ा....और लोग भी पढ़ें;
इसलिए बुधवार 031/07/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in ....पर लिंक की जाएगी.
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है .
धन्यवाद!
कदम्ब से क्या कुछ याद आया
ReplyDeleteजीवन जैसा, बचपन में कोमल रेशे, बाद में सब झड़ जाते हैं..
ReplyDeletewaah!
ReplyDeletekhoobsoorar kavita
कदम्ब के फूल और उसके जीवन के साथ मानव जीवन का साम्य... झरते फूल जैसे झर रहा हो बच्चों का बचपन!
ReplyDeleteStriking imagery!
फूल से फल , फल से बीज , बीज से पौधा , पौधे से फिर फूल --- यही तो जीवन चक्र है.
ReplyDeleteपता नहीं जाने अनजाने ये पेड़ बचपन की ओर लिए जाता है.....
ReplyDeleteमैंने भी कुछ कविता सी लिखी थी कभी, कदम और यादों पर..
:-)
अनु
सही कहा आपने, कुछ है इसमे। हम क्या, कान्हा भी भागते थे इसके पीछे!
Deleteफूल पल-पल में जीते हैं,हंसते हैं,शाख से गिरने की चिंता नहीं करते.
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteवाह .... सुंदर सन्दर्भ में कही अति सुंदर बात .....
ReplyDeleteदवेन्द्र जी ..नमस्कार !
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी फेस-बुक पर अक्सर पढ़ता रहता हूँ ..आज अपने ब्लॉग पर भी पढ़ी ! बहुत अच्छा लगा
आपका स्नेह देखकर हूँ ...मुझे पता है मैं क्या हूँ ? सिर्फ अपना समय काटता हूँ ! आप जैसों को पढना
और कुछ सीखना अच्छा लगता है ...आप जैसे मुझे स्नेह देने वाले और भी यहाँ है ...जिनके लेखे पर
मैं कोई टिप्पणी करने के काबिल ही नही हूँ ...बस महसूस कर सकता हूँ !
आज भी ..आपके कदंब के फूल की खुशबू को महसूस तो कर सकता हूँ पर बयाँ नही ....,
खुश रहें,स्वस्थ रहें!
शुभकामनायें!
इतना स्नेह जिसे मिले उसे फिर और क्या चाहिए! आपका आशीर्वाद मिला लिखना सार्थक हुआ।..आभार।
Deleteहमें तो ये (भी) याद आया - जो खग हो तो बसेरो करो मिली कालिंदी कूल कदम्ब की डारन.
ReplyDeleteआपकी कविता पढकर यह कदम का पेड अगर माँ होता यमुना तीरे ( कविता )तथा कदम्ब के फूल (कहानी) (सुभद्रा कुमारी चौहान) याद आगई । ये फूल बहुत ही प्यारी खुशबू वाले होते हैं । और लड्डू जैसे गोल भी । कहानी का यही आधार है । दोने में रखे कदम्ब के फूल लड्डू जैसे लगते हैं और नायिका के लिये एक मुश्किल पैदा कर देते हैं । प्यारी कहानी है । आपकी कविता भी । हमारे स्कूल में भी यह पेड लगा हुआ है ।
ReplyDeleteकदंब के फूल पर लिखा तो इससे पहले इस पर लिखी कोई कविता याद नहीं थी। सब भूल चुका था। अनु जी के कमेंट के बाद मुझे याद आया इस पर अज्ञेय से लेकर नागार्जुन तक सभी ने कलम चलाई है। आपने भी बढ़िया संदर्भ दिया। ..आभार।
Deleteमानवीय अकर्मण्यता और कुदरत की नित्यता के भाव समेटे सुंदर सी कविता बेहद पसंद आई ,सीलन के खतरे और बहाव के फायदे भी समझे...
ReplyDelete... लेकिन एक शंका भी है 'घर की बाउंड्री के बाहर' के कदम्ब बड़े हुए और बच्चे भी ? भला इसका क्या मतलब निकाला जाये ? अगर इसका अर्थ वही है जो हम समझ रहे हैं , तो फिर हमें आपसे ये उम्मीद ना थी ;)
बहुत दिनो बाद आपको मेरी कविता पसंद आई, मतलब मैं अभी भी लिख सकता हूँ। उत्साह वर्धन के लिए आभार।
Deleteकदम्ब के फूलों को देखकर अचानक से एहसास हुआ कि बच्चे हंस रहे हैं। फिर कुछ दिनो बाद फूलन झरने लगे तो लगा कितना क्षणिक होता है फूलों का हंसना, कितना क्षणिक होता है बच्चों का बचपन! इसी भाव को लिखने बैठा तो शुरू से ही वृक्षों को बच्चों से जोड़ता चला गया। मुझे वह घर भी याद आया जो माली के न रहने पर बर्बाद हो गया था। सब कुछ समेटना चाहता था मगर जो बन पड़ा आपके सामने है। कुछ और अच्छा बनना चाहिए था, वह नहीं लिख पाया जो भाव में वास्तव में मन मे थे।
बाउंड्री के बाहर वृक्ष बड़े हुए, बच्चे अपने घर के बड़े हुए..शंका मत पालिए। :)
बहुत कुछ मिलता है जिसे ध्यान से देख लें ..
ReplyDeleteबधाई !
कदंब के फूलों और बचपन दोनों का आनंद लेने का न चाव है किसी के पास न अवकाश - ऐसी आपा-धापी कि उनकी सरसता और माधुर्य अनजाने ही बीत जाते हैं!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर |
ReplyDeleteसुन्दर कविता |आपका बहुत -बहुत आभार |
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