प्रसिद्ध कवि, सम्मानित प्रकाशक और नौसिखिया ब्लॉगर पं0 उमा शंकर चतुर्वेदी 'कंचन' जी के संकट मोचन स्थित आवास पर आज मास के द्वितीय शनिवार की शाम एक पावस कवि गोष्ठी का आयोजन हुआ। एक तो अल्प सूचना ऊपर से रिम-झिम बारिश का परिणाम यह रहा कि मुझे लेकर मात्र चार कवि ही पहुँच पाये। मैं जब वहाँ पहुँचा तो 'कंचन' जी प्रकाशक की भूमिका में नज़र आये। अपने प्रकाशन की दो नवीनतम पुस्तकों को सरिया रहे थे। अभी इनका लोकार्पण भी नहीं हुआ है। मैने मौका ताड़ा और एक फोटू हींच लिया....
बायें-पं0 उमा शंकर चतुर्वेदी जी, बीच में प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री विंध्याचल पाण्डेय 'सगुन' तथा सबसे दायें वयोवृद्ध साहित्यकार हिंदी गज़ल के बेजोड़ बादशाह आदरणीय श्री परमानंद आनंद जी।
अपनी पुस्तकों को लेकर प्रकाशक महोदय खासे उत्साहित नज़र आये लेकिन एक भी पुस्तक पढ़ने के लिए नहीं दी। मेरे आग्रह करने पर मुस्करा कर टाल गये। सब आप ही का है। अभी लोकार्पण नहीं हुआ है। मैने पुस्तकों की बंधी गठरियों के तश्वीर भीं खींच लिये। एक 'बेनीपुरी की साहित्य यात्रा' तो दूसरी भोजपुरी छंद में लिखी 'लव-कुश'। 'बेनीपुरी की साहित्य यात्रा' तो प्रसिद्ध पुस्तक है। यह विश्वविद्यालय प्रकाशन से भी प्रकाशित हो चुकी है। 'लव-कुश' बलिया के वयोवृद्ध कवि श्री तारकेश्वर मिश्र 'राही' का भोजपुरी में लिखा खण्ड काव्य है। दोनो पुस्तकें अच्छी लग रही थीं। पढ़ने के बाद इस पर प्रतिक्रिया देना उचित होगा।
पुस्तकें हटायी गयीं और मौसम और बनारस की खस्ताहाल सड़कों को कोसा गया जिनके कारण दूसरे कवि नहीं आ पाये। मैने अपना कैमरा कंचन जी के सुपुत्र को पकड़ा दिया और फोटो खींचने का आग्रह किया। आखिर हमारी भी फोटू आनी चाहिए कितनी दूसरों की ही खींचता रहूँ ? वयो वृद्ध कवि परमानंद आनंद का साथ अब कितने वर्षों का है कौन जाने भगवान उनको लम्बी उम्र दे। कविता के प्रति समर्पण का उनका यह भाव गज़ब का है जो इस मौसम में भी उन्हें यहाँ खींच लाया। वैसे मेरे पहुँचने तक बारिश रूक चुकी थी और बादलों से छन-छन कर प्रकाश कमरे में आ रहा था।
मेरी और 'कंचन' जी की कवितायें तो आप पढ़ते ही रहते हैं। विंध्यांचल पाण्डेय जी की कविता फिर कभी। गोष्ठी में सुनायी गई आनंद परमानंद जी की हिंदी गज़ल के कुछ अंश आपको पढ़ाता हूँ। परमानंद जी नेट से नहीं, सड़क से जुड़े हैं। ये कवितायें कवि का परिचय आपसे कराने में स्वयम् समर्थ हैं। कविता सुनाने से पहले परमानंद आनंद जी ने कहा...
आज तो साहित्य का दौर इतना बेढंगा हो गया है कि कोई किसी को पूछने के लिए तैयार नहीं है। सब अपने लिये व्याकुल है, अपने लिये चिंतित है। ऐसे समय में कंचन जी का बुलावा बहुत अच्छा लगा। काव्य गोष्ठियाँ कविता की दृष्टि से., साहित्य की दृष्टि से बहुत उपयोगी होती हैं और इनका बहुत महत्व है। हम एक दूसरे की आलोचना, समालोचना करते हैं। इनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है। उन्होने सुनाया....
जिंदगी में जिस तरह हो संतुलन रख्खा करो
एक अच्छे आदमी का आचरण रख्खा करो।
हो अगर अच्छे, तो अच्छा और होने के लिये
गैर की अच्छाइयों का संकलन रख्खा करो।
प्यार मुश्किल है मगर बिलकुल असंभव है नहीं
अपने भीतर प्यार का तुम उपकरण रख्खा करो।
क्यों न सूरज-चाँद आंगन में तुम्हारे आयेंगे
अपने भीतर दूर तक निर्मल गगन रख्खा करो।
कौन किसका है यहां ! विश्वास ये कैसे करूँ ?
तुम अगर अपने हो तो केवल स्मरण रख्खा करो।
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इस गज़ल में कवि की पीड़ा साफ झलकती है ः-
पुत्र जिनके श्लोक जैसे, बेटियाँ होतीं ऋचा
वे पिता-माता लगे वैदिक कथाओं की तरह।
प्यार तरुवर को धराशायी न करना आँधियों
हम लिपट कर जिनसे रहते हैं लताओं की तरह।
कौन सी अपनी दिशा होगी कभी सोचा नहीं
चार अपने पुत्र हैं चारों दिशाओं की तरह।
अपना संयोजन भी होगा ये कभी संभव नहीं
हम बहुत बिखरे दिंगबर की जटाओं की तरह।
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इस गज़ल में मध्यम वर्गीय परिवार की बेबसी के साथ-साथ समाज़ की उपेक्षा पर गहरा कटाक्ष भी हैः-
खेलते होंगे कहीं जाकर उधर बच्चे मेंरे
वो खुला मैदान तट पर है जिधर बच्चे मेरे।
भूख में लौटा हूँ पैदल रास्ते में रोक कर
मांगते हैं सेव, केले ये मटर बच्चे मेरे।
साइकिल, छाता, गलीचे भी बनाना सीखलो,
काम देते हैं गरीबी में हुनर बच्चे मेरे।
भूख, बिमारी, उपेक्षा, कर्ज, महंगाई, दहेज
सोच ही पाता नहीं जाऊँ किधर बच्चे मेरे।
जंतुओं के दांत पंजों में जहर होता मगर,
आदमी की आँख में बनता जहर बच्चे मेरे
जो मिले खा-पी के सो जा, मत किसी का नाम ले,
कौन लेता है यहां, किसकी खबर, बच्चे मेरे।
संस्कृतियाँ जब लड़ीं सदियों की आँखें रो पड़ीं,
खण्डहर होते गये कितने शहर बच्चे मेरे।
यह बनारस है यहाँ तुम पान बनकर मत जिओ,
सब तमोली हैं तुम्हें देंगे कतर बच्चे मेरे।
तुम मेरे हीरे हो, मोती हो, मेरी पहचान हो,
मेरे सब कुछ, मेरे दिल, मेरे जिगर बच्चे मेरे।
गालियाँ गालिब, निराला भूख सहते थे यहाँ
यह कमीनों का बहुत अच्छा शहर बच्चे मेरे।
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आनंद जी की दूसरी ग़ज़ल मेरे बच्चे अंदर तक उतर गई।
ReplyDeleteक्या बात है वाह!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि दिनांक 16-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-942 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
परमानंद जी की रचनाएं तो बहुत गहरे असर वाली हैं.
ReplyDeleteअच्छी रही ये काव्य गोष्ठी
aap ki tvrit karyavahi achchhi lagi dhnyavaad
ReplyDeleteचार में चारों कवि और दो आनंद, ये हाल बनारस का है :)
ReplyDeleteमेरे विचार से , पहली कविता आशावादी और उपदेशात्मक है ! दूसरी कविता असमंजस और आशंकाओं के भाव लिए हुए तथा तीसरी कविता 'भारत' की प्रतिनिधि कविता है !
भारत की प्रतिनिधि कविता। सही लिखा आपने। ..सहमत।
Deleteआदरणीय कवि-वृन्द को सादर प्रणाम । ।
ReplyDeleteआदमी की आँख में बनता जहर ।
पान पर भी टूटता जुल्मी कहर-
अंदाज बदला आज चूना यूँ लगा -
पानी पिला के कैंचियाँ दें पर क़तर ।
हास्य-रस जैसा बना रस था मगर
स्वाद सड़ते सोरबे सा हर शहर ।
प्रेम रस में व्यस्तता का लवण ज्यादा
बस पसीने से हुवे सब तर-बतर ।।
अब इसी में खोजना है जिंदगी-
चारो दिशाओं ने दिया उलझा मगर ।।
:P :D
Deleteफलाने नेट से नहीं सड़क से जुड़े हैं -अकस्मात एक गहरी बात कर दी आपने -
ReplyDeleteएक अच्छा आयोजन और बच्चे मेरे कविता तो दहला देने वाली कविता है ....बनारस के तमोलियों को समर्पित !
सत्य निकल ही आता है।..आभार।
Deleteअहा, तीनों ही कवितायें अत्यन्त प्रभावी..
ReplyDeleteअच्छी रही ये मुलाकात बरसात में .
ReplyDeleteअच्छे साहित्यकार और कवियों को सदा सादा जीवन व्यतीत करते देखा है .
कमाल है , आपका चेहरा हमारे ममेरे भाइयों से कितना मिलता है ! :)
ममेरे भाइयों का चेहरा देखना पड़ेगा।:)
Deleteजाने बारिश ने कवियों को कैसे रोक लिया...हमने तो सुना था...जहाँ न पहुंचे रवि...वहाँ पहुंचे कवि :-)
ReplyDeleteतीनों रचनाएँ अव्वल.....
सादर
अनु
यह बैठकी बढ़िया रही,छोटी कवि-गोष्ठी की तरह,मगर हमारे कवि ने वहाँ क्या सुनाया...?
ReplyDelete...तीनों कवितायेँ जंची,कुछ में शिल्प की कमी ज़रूर थोड़ा लगी,पर अंतिम वाली कविता साफ़ और खुले सन्देश देती हुई.इसका हर पक्ष प्रबल है !
शिल्प की कमी! भई अपने में तो सामर्थ्य नहीं है। संकेत दें तो आपकी बात परमानंद जी तक पहुँचा सकता हूँ।
Deleteपहली गज़ल की आखिरी लाइन कुछ खटकती है,बाकी हम उन्हें क्या सिखाएंगे ??
Deleteअच्छी गजलें हैं। आप बेफ़िजूल में अपने ब्लॉग पर ताला लगाये हुये हैं। ताला खुला होता तो तीन-चार लाइनें कापी करके टीप देते यहां पर। :)
ReplyDeleteफोटो चकाचक आया है। आपकी फोटो खैंचने वाला फ़ोटो अच्छा खींच लेता है। :)
आपको याद होगा हमेशा दौड़ते रहने वाले आदमी के विजेट के साथ यह ताला लगाया था। आपने कहा तो विजेट हटा दिया। उसी समय कहा होता तो ताला भी हट जाता। अब भूल गया हूँ। ताला कैसे हटाना है, मुझे नहीं आता।:) कुछ जोड़ा था.. एच टी एम एल में, हटाने में कुछ और उड़ गया तो?
Deleteफोटो बालक ने अच्छी खींची है।
अनूप जी,बेफिजूल शब्द ही फ़िज़ूल है....केवल फ़िज़ूल ही कहें,कई लोग 'बेफिजूल' बोलते हैं पर आप ऐसा न करें !
Deleteतीनों गज़लें बेहतरीन ....आभार यहाँ पढ़वाने का
ReplyDelete:) dil ko chhoo gayee gajal!
ReplyDeleteबेजोड़ गोष्ठी और ग़ज़लें
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत! आया था ३ दिन के लिए बनारस - सब झमाझम में ही बीत गया :)
ReplyDelete्वाह खूबसूरत आयोजन सुन्दर गज़लें।
ReplyDeleteबदली में भी छन-छन के प्रकाश फैला दिया इन रचनाओं ने... आभार आपका इन्हें यहाँ तक लाने के लिए...
ReplyDeleteतीनों ग़ज़लें सीधे दिल में उतर गईं ... यथार्थ से लबरेज है हर शेर ... सच के इतना करीब क्या कहूं देवेन्द्र जी .... खुशकिस्मत हैं आप इतने सच्चे कवि से मुलाक़ात का मौका मिला ...
ReplyDeleteआनन्द जी की ग़ज़लों से रूबरू करने के लिये शुक्रिया. तेनो गज़लें सामजिक सरोकारों को पुरजोर तरीके से उठाने की सार्थक कोशिश है. आभार.
ReplyDeleteगोष्ठी का आनंद आपके आलेख द्वारा प्राप्त हुआ, शानदार रचनाएं पढवाने के लिये आभार. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम
बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteहम तो प्रतिदिन एकल गोष्ठी ही कर लिया करते हैं।
बेहतरीन रचनाँऎं!!
ReplyDeleteकाव्य गोष्ठी के लिए, हम भी है बेचैन।
ReplyDeleteआयोंगे घर आपके, तभी मिलेगा चैन।।
परमानंद जी की रचनाएं बेहद प्रभावी हैं ...
ReplyDeleteफोटू बढ़िया आये हैं सारे आपका तो शानदार है....ग़ज़ल तीसरी वाली सबसे अच्छी।
ReplyDeleteNamaskaar Sir,
ReplyDeletemere pujya Pitaji ko Tarkeshwar Mishra 'Raahi' ji ki likhi hui 'Luv Kush' khandkavya padhna hai. parantu yeh pustak kahin mil nahi rahi hai.
Kripya kar k prakashak ka ya fir Varanasi/Delhi me kisi pustakalaya ka pata bata dijiye, jahan ye pustak mil sake.
Dhanyawaad
Siddhartha Shukla