घर पहुँचने से पहले ही बारिश की फुहार शुरू हो गई। बारिश तेज हो जाने,
भीग जाने और भीग कर बीमार पड़ जाने की चिंता ने बाइक की स्पीड तेज कर दी। तभी खयाल
आया, “रूक सकता नहीं, घर जल्दी
पहुँचना ही है, बारिश तेज हो जायेगी तो भीगना तय है। क्यों न सावन की इस फुहार का
आनंद लिया जाय!” बाइक की स्पीड धीमी हो गई। गरदन ऊपर किया तो चेहरे पर वर्षा की फुहारें
पड़ने लगीं। अगले ही पल मेरा मन आनंद से भर गया।
यह कई वर्ष पहले की बात है। बारह घंटे की बस की यात्रा के बाद भी मेरा
सफ़र अभी खत्म नहीं हुआ था। मंजिल अभी दो घंटे दूर थी। जिस्म थककर चूर हो चुका था
और मस्तिष्क बोरियत का पहाड़ ढो रहा था। तभी निगाह तेज धुन पर उछलते-कूदते खलासी पर पड़ी। हर
स्टेशन पर जैसे ही बस धीमी हो कर रूकने लगती, बस का खलासी दरवाजे पर खड़ा हो, एक हाथ
से लोहे के रॉड को पकड़े अपना पूरा जिस्म बाहर की ओर झोंकते हुए, आगे की मंजिल का
नाम ले-लेकर चीखता। कुछ यात्रि रूकते, कुछ चढ़ जाते। बस आगे बढ़ती और वह फिर वैसे
ही तेज धुन पर उछलने कूदने लगता। रूक-रूक कर ड्राइवर या कंडेक्टर से कुछ मजाक
करता, जोर का ठहाका लगाता, फिर गरदन जोर जोर से हिलाते हुए उछलने कूदने लगता। उसे
देखकर यह खयाल आया, “एक यह है जो सफ़र की शुरूआत से ही खड़े-खड़े मस्ती से झूमते हुए चला आ रहा
है, एक मैं हूँ जो बैठे-बैठे भी उकता चुका हूँ। चलना तो तय है फिर क्यों न सफ़र का
आनंद लिया जाय !” अगले ही पल मन आनंद से भर गया। सफ़र की
थकान मिट चुकी थी।
दो बार ही नहीं, कई बार ऐसा महसूस किया है मैने। हालात को कोसा है,
दुखी हुआ हूँ फिर अनायास खुशी से झूमने लगा हूँ। अकेले में, कभी सोचता हूँ इन बातों
को तो लगता है मैं ही महामूर्ख हूँ ! जानता हूँ कि आनंद कहाँ है फिर भी रोता रहता हूँ
! कभी जल्दी ही संभल जाता हूँ, कभी कई दिन लगते हैं संभलने में।
प्रश्न उठता है कि इतने सबक सीखने के बावजूद दुखी होता ही क्यों हूँ? क्यों नहीं बना लेता हमेशा-हमेशा के लिए आनंद को अपना दास ? काश ! मैं ऐसा कर पाता।
आप कह सकते हैं, “आनंद को अपना दास बनाने के चक्कर में पड़ना ही
क्यों ? खुद को ही आनंद का दास बना लो!” आनंद प्राप्ति के लिए यह सरल मार्ग है। जहाँ आनंद दिखे वहीं रम जाओ। जायज, नाजायज चाहे जैसे हो खूब मजे उड़ाओ। जेब में पैसे हों तो हाट-मॉल,
सुरा-सुंदरी सभी तो आपकी सेवा में हाजिर हैं। जहाँ जैसे भी मिले लूट लो ! लेकिन मैं इस आनंद की बात नहीं कर रहा। यह तो क्षणिक है। इस मार्ग पर
चलकर तो दुखों के महासागर में खो जाने की प्रबल संभावना है। मैं उस आनंद की बात कर
रहा हूँ जो हमारे भीतर है। मैं उस दुःख की बात कर रहा हूँ जो हमारी सोच से बढ़ती-घटती
है। इसके लिए किसी अतिरिक्त धन की आवश्यकता नहीं। इसके लिए किसी खास मेहनत की
आवश्यकता नहीं। बस थोड़ा सा नज़रिया ही तो बदलना है! भीगने
के भय से चिंतातुर होकर भी हमें भीगते हुए घर जाना है। हमने अपनी सोच थोड़ी सी
बदली, बारिश की फुहारों का एहसास किया और अगले ही पल मन आनंद से भर गया। खलासी वही
कर रहा है जो उसका काम है। वह चाहे तो कम पगार के लिए बस के मालिक को कोसते हुए भी
सफ़र कर सकता है। वह चाहे तो अपनी छुट्टी और परिवार की चिंता करते हुए दुखी मन से
भी सफ़र कर सकता है। लेकिन नहीं, वह खुशी-खुशी अपना काम करते हुए आनंद ले रहा है।
प्रायः देखा जाता है, बॉस ने कोई अतिरिक्त काम सौंपा नहीं कि हमारा
मूड-मिजाज़ गड़बड़ा जाता है। काम तो करना ही पड़ता है लेकिन हम काम करते वक्त पूरा
समय अपने बॉस को कोसते हुए दुखी रहते हैं। वहीं अगर यह भाव आ जाये, “हमारा परम सौभाग्य है कि
हमारे बॉस ने हमें इस विशेष काम के लुए चुना। हमे इस अतिरक्त काम को बेहतर ढंग से
करके दफ्तर में अपनी उपयोगिता सिद्ध करनी है।“ नज़रिया बदलते
ही काम करते वक्त बिताया गया वही समय आनंद से कट जाता है।
दिखता सरल है लेकिन यह आनंद सहज़ नहीं है। आनंद के इस मार्ग में विचार
रूपी तिलस्मी दुनियाँ है। हमें विचारों के इस तिलस्म को यत्नपूर्वक तोड़ना है।
दृढ़ प्रतिज्ञ रहना है। यह तभी संभव है जब हमारे हृदय में संतोष का भाव हो। ईश्वर
के प्रति धन्यवाद का भाव हो। दूसरों के प्रति क्षमा का भाव हो। सहज स्वीकार्य की
सकारात्मकता हो। सहज स्वीकार्य का यह अर्थ भी नहीं कि अन्याय को भी स्वीकार करते
चले जाना है। अन्याय का विरोध करना भी हमारा धर्म है। हमे अपने धर्म से च्युत भी
नहीं होना है लेकिन ऐसा करते वक्त अपने भीतर अहंकार को भी आश्रय नहीं देना है।
अहंकार अकेले नहीं आता। जब आता है अपने साथ दुखों का पूरा कुनबा साथ लिये चलता है।
अंहकार और सहृदयता के बीच का सतुंलन ही आनंद की प्राप्ति का मार्ग है। कभी-कभी यह
सतुंलन सहज ही स्थापित हो जाता है, कभी अहंकार में डूबे नकारात्मक सोच को ही हम अपने
ऊपर हावी होने देते हैं। यह कठिन है, मगर एक बार सध जाय तो मन आनंद से भर जाता है।
..................................
नोटः इस पोस्ट की मजेदार बात यह है कि इसका आधा हिस्सा ब्लॉगिंग की देन है। पहले शुरू के तीन पैराग्राफ ही लिखे थे जिन पर मेरे कमेंट सहित कुल 27 कमेंट दर्ज थे। इसके बाद संतोष जी का मेल आया कि आपका यह आलेख बहुत अच्छा है। आप इसे मेल करके भेज दें तो इसे मैं 'जनसत्ता' तक पहुँचा दूँ। मैने भेज दिया। उन्होने कुछ समय बाद फोन किया कि थोड़ा छोटा है। थोड़ा और लिखिये। मैने उन्ही के कमेंट से शुरू करते हुए बात आगे बढ़ायी। लिखते वक्त कमेंट में आये विचार भी प्रभावित करते रहे और वे भाव भी आ गये जो कमेंट में दर्ज थे। इसीलिए लिख रहा हूँ कि इस पोस्ट का आधा हिस्सा ब्लॉगिंग की देन है। अब फाइनली बताइये कि कैसा है ?
ऊपर के तीन पैराग्राफ की चर्चा संतोष जी के माध्यम से आज दिनांकः 28-7-2012 को डेली न्यूज में भी देखने को मिली।
यह लेख जनसत्ता में प्रकाशित है।
ऊपर के तीन पैराग्राफ की चर्चा संतोष जी के माध्यम से आज दिनांकः 28-7-2012 को डेली न्यूज में भी देखने को मिली।
यह लेख जनसत्ता में प्रकाशित है।
पाण्डे जी , एक बार हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ था . एक शादी से आ रहे थे अपने स्कूटर पर थ्री पीस सूट पहनकर . अचानक बारिस होने लगी . जब तक आश्रय ढूंढते , भीग चुके थे . सोचा , चलो बारिस का ही आनंद लिया जाए . घर पहुंचे तो पूरे भीग चुके थे . आनंद कितना आया होगा , ज़रा सोचिये -- महीना जनवरी का था . आखिर वह थ्री पीस सूट भी फेंकना ही पड़ा . :)
ReplyDeleteबनारसी बाबु तो सदा ही आनंद को अपना दास बना कर रहते हैं, आप कहाँ चूक गए ?
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सर जी...
ReplyDeleteऐसे ही बारिश का मजा लेते रहिये...
ये बात तो अपने बहुत सही कहा है ख़ुशी तो
हमारे आस पास होती है... हम ही नजर घुमाते नहीं...
सुन्दर अहसास लिए पोस्ट:-)
सार्थक बात कहता हुआ आलेख ...पढ़ कर ही मन खुश हो गया ...!!
ReplyDeleteचलिये बारिश हो गयी सुन कर भी अच्छा लग रहा है ...!!
एक मुहावरा सुना था- रपट पड़े तो हर गंगा.
ReplyDeleteखुश रहनवालों के लिये ही तो !
सही है।
Deleteजब भीग ही गए तो आनंद तो ले ही लिया जाना चाहिए .... :):)
ReplyDeleteभीगते बनारस की सड़कों पर आनंद ही आनंद / आनंद को आनंद :)
ReplyDeleteवास्तव में सुख या आनंद महज़ एक अनुभूति होती है,जैसे हम सोचते हैं वैसे ही महसूसते हैं.सकारात्मक सोच ही हमें आनंद का अहसास कराती है.
ReplyDelete...और हाँ,आनंद को अपना दास बनाने से अच्छा है कि उसके दास बन जाओ !
आपके कमेंट का पहला अंश शानदार है। यही मैं कहना चाहता था जो आपकी टीप से आया। दूसरा हिस्से से सहमत नहीं। आनंद का दास बनना आसान है। बड़ी बात तो यह है कि आनंद को दास बना लो। दास बनाने से आशय यह कि कभी दुःख की अनुभूति न हो। खुद को इस तरह से ढाल लो कि जीवन के हर संघर्ष को आनंद के साथ जीते चले जाओ।
Deleteयहाँ आनंद को अपना दास बनाने से मतलब यही है कि आनंद हमारे नियंत्रण में रहे.वैसे कई बार दुखों में भी हम आनंद खोज सकते हैं,मन को शांत कर के !
Deleteकुछ लोगों को नकारात्मक सोच भी आनंदित करती है ! आप भले ही उन्हें परपीड़क कहें :)
Deleteजीवन जीने का यही सही तरीका है।
ReplyDeleteअब खलासी का तो काम यही है। वह तो इस पर अफसोस भी नहीं कर सकता। इसलिए उसने जो अपना काम है, उसे आनंद के साथ करना तय किया है। और केवल आपके यहां नहीं, हर जगह बस के खलासी इसी तरह से अपना काम करते हैं।
सही है।
Deleteहमारे अन्दर ही सुख दुःख कि दो नदियाँ बहती हैं सोचना हमे है कि हम को किसके साथ बहना है ....बहुत ही रोचक वृतांत और उसके माध्यम से जो खूबसूरत सन्देश दिया है उसके लिए हार्दिक बधाई पाण्डेय जी
ReplyDeleteवास्तव में दिमाग की
ReplyDeleteएक अवस्था ही तो है
जैसा चाहो बना लो
दुख : में भी सुखी
हुआ जा सकता है
और सुख में भी दुखी !!!
सही है।
Deleteaha is aanand ki kyaa baat hai...anandit rahe:)
ReplyDeleteसुख और दुःख मन के अंदर ही रहते हैं ... कभी सुख हावी तो कभी दुःख ... घटना को भी मन इसी के आईने से देखता है ... तभी किसी भी छोटी बात पे कभी कभी इतनी खुशी मिल जाती है ... कभी बड़ी से बड़ी बात पे भी मन इतना खुश नहीं होता ...
ReplyDeleteयह भी सही।
Deleteहमेशा स्वीकार का भाव ह्रदय में होना चाहिये,जो मिल रहा है वो प्रभु की मर्जि है.यही प्रशन्नता की कुंजी ही नहीं ज्ञान की कुंजी भी है.खूब सोच-विचार के काम करते जाना ,मगर जो मिले उसे धन्यवाद के साथ स्वीकार करना ही सहज ज्ञान का मार्ग है.अहंकार के कारण आदमी शिकायतें करता रहता है,और दुखी रहता है.हमेशा,चाहे जैसी भी परिस्थिति हो स्वीकार का भाव ,धन्यवाद का भाव ह्रदय में हो.
ReplyDeleteइसका अर्थ यह न लगे कि शोषण को भी स्वीकार करना चाहिये,येसी परिस्थिति में विरोध करना सहज धर्म है,मगर यह सब करते हुये भी जो भी हो रहा हो उसे स्वीकार करने का भाव होना चाहिये.
कितनी सुंदर बात कही आपने!
Deleteवाह! बहुत धन्यवाद।
आनंद तो भीतर ही है हाँ उसकी झलकें समय समय पर आती ही है पर ये मन बिच में रूकावट बनता है विचारों की भीड़ में गुम हो जाते हैं हम बहुत साधना से इस भीड़ को चीरना पड़ता है तब आनंद के स्त्रोत तक कोई पहुँचता है ।
ReplyDeleteविचार मुक्त होकर ही आनंद तक पहुँचा जा सकता है।..वाह!
Deleteआनंद हमारे भीतर ही होता है, बस उसे बाहर निकालने की देरी होती है।
ReplyDeleteजो भीतर है हम बाहर खोजते फिरते हैं.......इसकी याद ऐसे क्षण दिला देते हैं
ReplyDeleteजो अपना हो उसे बाहर भगाने की कैसे सोच सकते हैं देवेन्द्र जी :)
Deleteअच्छा है ! पर संतोष जी के हिसाब से थोड़ा कम लग रहा है :)
ReplyDeleteयह मेरा नहीं 'जनसत्ता' का हिसाब है अली भाई :-)
Delete...वैसे अब और आनंद आ गया !
यह मेरा नहीं 'जनसत्ता' का हिसाब है अली भाई :-)
Delete...वैसे अब और आनंद आ गया !
औरों की पोस्ट पढ़ते पढ़ते हमारी बुद्धि भी चलने लगती है। जो घटना से जितना प्रभावित होना चाहिये, उससे अधिक उसका प्रभाव न पड़ जाये कहीं..
ReplyDeleteवर्षा में भीगने का आनन्द मन भिगो देने को काफ़ी होता है. खलासी की खुशी खालिस थी. लेख अच्छा लगा.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
मुबारक हो आज के 'डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट' में छपने के लिए !
ReplyDeleteधन्यवाद।
Delete:) बेचैन आत्मा आनंदित हो कर कैसी दिखती होगी?
ReplyDeleteसचमुच बहुत आनंद आया :)
आज के 'जनसत्ता' में आपकी यह पोस्ट !
ReplyDelete...बहुत-बहुत बधाई :-)
Very well said post thanks for sharing with us to get all the updates...visit here
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